"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 150 श्लोक 20-36": अवतरणों में अंतर
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१२:४७, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
पंचाशदधिकशतत (150) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )
जो-जो उपकारी सुहद युद्ध में प्राण देकर यमलोक में जा पहुंचे हैं, उनका ऋण मैं कैसे चुका सकूंगा। जो भूमिपाल मेरे लिये इस भूमिको जीतना चाहते थे, वे स्वंय भूण्डलका ऐश्वर्य त्यागकर भूमि पर सो रहे हैं। मैं कायर हूं, अपने मित्रों का ऐसा संहार कराकर हजारों अश्वमेघ यज्ञों से भी अपने को पवित्र नहीं कर सकता।। हाय ! मुझ लोभी तथा धर्मनाशक पापी के लिये युद्ध के द्वारा विजय चाहने वाले मेरे मित्रगण यमलोक चले गये।। मुझ आचारभ्रष्ट और मित्रद्रोही के लिये राजाओं के समाज में यह पृथ्वी फट क्यों नही जाती, जिससे मैं उसी में समा जाऊ। मेरे पितामह भीष्म राजाओं के बीच युद्धस्थल में मारे गये और अब खून से लथपथ होकर बाण शय्या पर पडे़ है; परंतु मैं उनकी रक्षा न कर सका। ये परलोक विजयी दुर्घर्ष वीर भीष्म यदि मैं उनके पास जाऊं तो मुझ नीच, मित्रद्रोही तथा पापात्मा पुरूष से क्या कहेगे ? आचार्य ! देखिये तो सही, मेरे लिये प्राणों का मोह छोड़कर राज्य दिलाने को उद्यत हुए महाधनुर्धर शूरवीर महारथी जलसंघ को सात्यकि ने मार डाला। काम्बोजराज, अलम्बुष तथा अन्यान्य बहुत से सुहदों को मार गया देखकर भी अब मेरे जीवित रहने का क्या प्रयोजन है ? शत्रुओं को संताप देने वाले आचार्य ! जो युद्ध से विमुख न होने वाले शूरवीर सुहृद मेरे लिये जुझते और मेरे शत्रुओं को जीतने के लिये यथाशक्ति पूरी चेष्टा करते हुए मारे गये हैं, उनका अपनी शक्तिभर ऋण उतारकर आज मैं यमुना के जल से उस सभी का तर्पण करूंगा। समस्त शस्त्रधारीयों में श्रेष्ठ गुरूदेव ! आज मैं अपने यज्ञ-यागदि तथा कुंआ, बावली बनवाने आदि शुभ कर्मों की, पराक्रम की तथा पुत्रों की शपथ खाकर आपके सामने सच्ची प्रतिज्ञा करता हूं कि अब मैं पाण्डवों के सहित समस्त पांचालों को युद्ध में मारकर ही शान्ति पाऊंगा अथवा मेरे वे सुहृद युद्ध में मरकर जिन लोकों में गये हैं, उसी में मैं भी चला जाउंगा। वे पुरूष शिरोमणि सुहद् रणभूमि में मेरे लिये युद्ध करते-करते अर्जुन के हाथ से मारे जाकर जिन लोकों में गये हैं, वहीं मैं भी जाउंगा। महाबाहो ! इस समय जो मेरे सहायक हैं, वे अरक्षित होने के कारण हमारी सहायता करना नहीं चाहते हैं। वे जैसा पाण्डवों का कल्याण चाहते हैं, वैसा हम लोगों का नहीं। युद्धस्थल में सत्यप्रतिज्ञ भीष्म ने स्वयं ही अपनी मृत्यु स्वीकार कर ली और आप भी हमारी इसलिये उपेक्षा करते हैं कि अर्जुन आपके प्रिय शिष्य हैं। इसलिये हमारी विजय चाहने वाले सभी योद्धा मारे गये। इस समय तो मैं केवल कर्ण को ही ऐसा देखता हूं, जो सच्चे हृदय से मेरी विजय चाहता है। जो मूर्ख मनुष्य मित्र को ठीक-ठीक पहचाने बिना ही उसे मित्र के कार्य में नियुक्त कर देता हैं, उसका वह काम बिगड़ जाता है। मेरे परम सुहद् कहलाने वालों ने मोहवश धन (राज्य) चाहने वाले मुझ लोभी, पापी और कुटिल के इस कार्य को उसी प्रकार चौपट कर दिया है। जयद्रथ और सोमदतकुमार भुरिश्रवा मारे गये। अभीषाह, शूरसेन, शिवि तथा वसातिगण भी चल बसे। वे नरश्रेष्ठ सुहद् रणभूमि में मेरे लिये युद्ध करते करते अर्जुन के हाथ से मारे जाकर जिन लोकों में गये हैं, वहीं आज मैं भी जाउंगा। उन पुरूष रत्न मित्रों के बिना अब मेरे जीवित रहने का कोई प्रयोजन नहीं है। आज हम पाण्डुपुत्रों के आचार्य हैं, अतः मुझे जाने की आज्ञा दें।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवध पर्व में दुर्याधन का अनुतापविषयक एक सौ पचासवां अध्याय पूरा हुआ।
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