"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 154 श्लोक 24-41": अवतरणों में अंतर

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१२:४७, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

चतुष्पञ्चाशदधिकशततम (154) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: चतुष्पञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 24-41 का हिन्दी अनुवाद

जैसे पर्वत पर रात के समय बांसों का जंगल जल रहा हो और उन बांसों के चटखने का घोर शब्द सुनायी दे रहा हो, उसी प्रकार शस्त्रों के आघात-प्रत्याघात से घोर चटखट शब्द कानों में पड रहा था। मृदग और ढोलों की आवाज से, झांझ और पटहों की ध्वनि से तथा हाथी-घोडों के फुंकार और हींसने के शब्दों से वहां का सब कुछ व्याप्‍त जान पडता था। राजन् ! उस अन्धकारराच्छन्‍न प्रदेश में अपने और पराये-की पहचान नहीं होती थी। उस प्रदोषकाल में सब कुछ उन्मत-सा जान पडता था। राजेन्द्र ! रक्त की धारा ने धरती की धूल को नष्ट कर दिया। सोने के कवचों और आभूषणों की चमक से अंधकार दूर हो गया। भरतश्रेष्ठ ! उस समय रात्रिकाल में मणियों तथा सुवर्ण के आभूषणों से विभूषित हुई वह कौरवसेना नक्षत्रों से युक्त आकाश के समान सुशोभित होती थी। उस सेनाके आसपास सियारों के समूह अपनी भयंकर बोली बोल रहे थे। शक्तियों और ध्वजों से सारी सेना व्याप्त थी। कहीं हाथी चिग्घाड रहे थे, कहीं योद्धा सिंहनाद कर रहे थे और कहीं एक सैनिक दूसरे को पुकारते तथा ललकारते थे। इन शब्दों से कोलाहलपूर्ण हुई वह सेना बडी भयानक जान पडती थी। थोडी देर में रोंगटे खडे कर देनेवाला अत्यन्त भयंकर महान् शब्द गूंज उठा। ऐसा जान पडता था देवराज इन्द्र के वज्र की गडगडाहट फैल गयी हो। वह शब्द वहां सारी दिशा में छा गया था। महाराज ! रातके समय कौरवसेना अपने बाजूबन्‍द, कुण्डल, सोनेके हार तथा अस्त्र-शस्त्रों से प्रकाशित हो रही थी। वहां रात्रि में सुवर्णभूषित हाथी और रथ बिजली सहित मेघों के समान दिखायी दे रहे थे। वहां चारों ओर गिरते हुए ऋषि, शक्ति, गदा, बाण मूसल, प्राप्त और पटि्टश आदि अस्त्र आगके अंगारों के समान प्रकाशित दिखायी देते थे। युद्ध करने की इच्दावाले सैनिकों ने उस अत्यन्त भयंकर सेना में प्रवेश किया, जो मेघों की घटा के समान जान पडती थी। दुर्योधन उसके लिये पुरवैया हवा के समान था। रथ और हाथी बादलों के दल थे। रणवाद्यों की गम्भीर ध्वनि मेघों की गर्जना के समान जान पडती थी। धनुष और ध्वज बिजली के समान चमक रहे थे। द्रोणाचार्य और पाण्डव पर्जन्य का काम देते थे। खग्ड, शक्ति और गदा का आघात ही वज्रपात था। बाणरूपी जलकी वहां वर्षा होती थी। अस्त्र ही पवन के समान प्रतीत होते थे। सर्दी ओर गर्मी से व्याप्त हुई वह अत्यन्त भयंकर उग्र सेना सबको विस्मय में डालने वाली और योद्धाओं के जीवन का उच्छेद करनेवाली थी। उससे पार होने के लिये नौकास्वरूप कोई साधन नहीं था। महान् शब्द से मुखरित एवं भयंकर रात्रि का प्रथम पहर बीत रहा था, जो कायरों को डराने वाला और शूरवीरों- का हर्ष बढाने वाला था। जब वह अत्यन्त भयंकर और दारूण रात्रियुद्ध चल रहा था, उस समय क्रोध में भरे हुए पाण्डवों तथा संजयों ने द्रोणाचार्य पर एक साथ धावा किया। राजन् ! जो-जो प्रमुख महारथी द्रोणाचार्य के सामने आये, उस सबको उन्होंने युद्ध से विमुख कर दिया और कितनों को यमलोक पहुंचा दिया। उस प्रदोषकाल में अकेले द्रोणाचार्य ने अपने नाराचों-द्वारा एक हजार हाथी, दस हजार रथ तथा लाखों-करोडों पैदल एवं घुडसवार नष्ट कर दिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तगर्त घटोत्कचवधपर्व में रात्रियुद्धविषयक एक सौ चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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