"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 172 श्लोक 22-41": अवतरणों में अंतर
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१२:५१, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण
द्विसप्तत्यधिकशततम (172) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
राजन्! महारथी द्रोणाचार्य और कर्ण बहुत से बाणों की वर्षा करते हुए उस भागती हुई पाण्डव सेना को पीछे से मार रहे थे। जब पान्चाल योद्धा सब ओर से नष्ट होने और भागने लगे, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने दीनचित्त होकर अर्जुन से इस प्रकार कहा-। ‘कुन्तीनन्दन! द्रोणाचार्य और कर्ण इन दोनों महाधनुर्धरों ने एक साथ होकर धृष्टद्युम्न, सात्यकि और पान्चालों को अपने बाणों द्वारा अत्यन्त क्षत-विक्षत कर दिया है। ‘पार्थ! इन दोनों की बाण वर्षा से हमारे महारथियों के पाँव उखड़ गये हैं। हमारी सेना रोकने पर भी रूक नहीं रही है’।। अपनी सेना को भागती देख श्रीकृष्ण और अर्जुन ने उससे कहा- ‘पाण्डव वीरो! भयभीत होकर भागो मत। भय छोड़ो। ‘हम दोनों अस्त्र-शस्त्रों से भली भाँति सुसज्जित सम्पूर्ण सेनाओं का व्यूह बनाकर द्रोणाचार्य और सूत पुत्र कर्ण को बाधा देने का प्रयन्त कर रहे हैं। ‘ये दोनों द्रोण और कर्ण बलवान्, शूरवीर, अस्त्रवेत्ता तथा विजयश्री से सुशोभित हैं। यदि इनकी उपेक्षा की गयी तो ये इसी रात में तुम लोगों की सारी सेना का विनाश कर डालेंगे’। वे दोनों इस प्रकार अपने सैनिकों से बातें कर ही रहे थे कि भयंकर कर्म करने वाले महाबली भीमसेन पुनः अपनी सेना को लौटाकर शीघ्र वहाँ आ पहुँचे। राजन! भीमसेन को वहाँ आते देख भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डुपुत्र अर्जुन का हर्ष बढ़ाते हुए से पुनः इस प्रकार बोले-। ‘ये युद्ध की स्पृहा रखने वाले भीमसेन सोमक और पाण्डव योद्धाओं से घिरकर महारथी द्रोण और कर्ण का सामना करने के लिये बडे़ वेग से आ रहे हैं। ‘पाण्डुनन्दन! इनके और पान्चाल महारथियों के साथ रहकर तुम अपनी सारी सेनाओं को सान्त्वना देने के लिये यहाँ युद्ध करो’। तदनन्तर वे दोनों पुरूषसिंह श्रीकृष्ण और अर्जुन युद्ध के मुहाने पर द्रोणाचार्य और कर्ण के सामने जाकर खडे़ हो गये।
संजय कहते हैं- महाराज! तदनन्तर युधिष्ठिर की वह विशाल सेना पुनः लौट आयी। तत्पश्चात् द्रोणाचार्य और कर्ण युद्ध के मैदान में शत्रुओं को रौंदने लगे। राजन्! उस रात्रि में चन्द्रोदयकाल में उमडे़ हुए दो महासागरों के सदृश उन दोनों दलों का वह महान् संग्राम अत्यन्त भयंकर प्रतीत होता था। तदनन्तर आपकी सेना अपने हाथों से मशालें फेंककर उन्मत्त के समान असंकुलभाव से पाण्डव सैनिकों के साथ युद्ध करने लगी। धूल और अंधकार से छाये हुए उस अत्यन्त भयंकर संग्राम में विजयाभिलाषी योद्ध केवल नाम और गोत्र का परिचय पाकर युद्ध करते थे। महाराज! स्वयंवर की भाँति उस युद्धस्थल में भी प्रहार करने वाले नरेशों द्वारा सुनाये जाते हुए नाम श्रवण गोचर हो रहे थे। क्रोध में भरहर युद्ध करते हुए पराजित एवं विजयी होने वाले योद्धाओं का शब्द वहाँ सहसा बंद होकर कभी सन्नाटा छा जाता था और कभी पुनः महान् कोलाहल होने लगता था। कुरूश्रेष्ठ! जहाँ-जहाँ मशालें दिखायी देती थीं, वहाँ-वहाँ शूरवीर सैनिक पतंगों की तरह टूट पड़ते थे। राजेन्द्र! इस प्रकार युद्ध में लगे हुए पाण्डवों और कौरवों की वह महारात्रि सर्वथा प्रगाढ़ हो चली।
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