"महाभारत विराट पर्व अध्याय 20 श्लोक 1-15" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('==विंश (20) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व))== <div style="text-align:center; d...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
 
पंक्ति १५: पंक्ति १५:
 
<references/>
 
<references/>
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
+
{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
 
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत विराट पर्व]]
 
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत विराट पर्व]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__

१३:५७, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

विंश (20) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व))

महाभारत: विराट पर्व विंशोऽध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


द्रौपदी द्वारा भीमसेन से अपना दुःख निवेदन करना द्रौपदी कहती है- परंतप ! तुम्हारे जूए में चतुर चालाक भाई के कारण आज मैं राजमहल में सैरन्ध्री का वेश धारण करके टहल बजाती और रानी सुदेष्णा को स्नान की वस्तुएँ जुटा कर देती हूँ। राजपुत्री होकर भी मुझे कैसा भारी हीन कार्य करना पड़ता है, यह अपनी आँखों से देख लो; परंतु सब लोग अपने अभ्युदय का अवसर देखते रहते हैं; क्योंकि यदि दुःख आता है? तो उसका अन्त भी होता ही है। मनुष्यों की अर्थसिद्धि या जय-पराजय अनित्य हैं। वे सदा सिथर नहीं रहते। यही सोचकर मैं अपने पतियों के पुनः अभ्युदय की प्रतीचा करती हूँ। धन और व्यसन (सम्पत्ति और विपत्ति) सदा गाड़ी के पहिये की तरह घूमा करते हैं; ऐसा विचारकर मैं पतियों के पुनः अभ्युदयकाल की प्रतीक्षा करती हूँ। जो काल मनुष्य के लिये विजयकाल होता है, वही उसकी पराजय का भी कारण बन जाता है। ऐसा विचार कर मैं अपने पक्ष की विजय के अवसर की राह देखती हूँ। भीमसेन ! क्या तुम नहीं जानते कि इन दुःखों के आघात से मैं मरी हुई सी हो गयी हूँ। मैंने सुना है, जो मनुष्य दान करते हैं, वे ही कभी याचना के लिये विवश हो जाते हैं। दूसरे बहुत से मनुष्य ऐसे हैं, जो दूसरों को मारकर स्वयं भी दूसरों के द्वारा मारे जाते हैं तथा जो दूसरों को नीचे गिराते हें, वे स्वयं भी दूसरे प्रतिपक्षियों द्वारा नीचे गिराये जाते हैं। अतः दैव के लिये कुछ भी दुष्कर नहीं है। दैव के विधान को लाँघ जाना भी असम्भव है। इसलिये मैं दैव की प्रधानता बताने वाले शास्त्र-वचनों कर पालन करती- उन्हें आदर देती हूँ। पानी जहाँ पहले स्थिर होता है, वह फिर भी वहीं ठहरता है। इस क्रम को चाहती हुई मैं पुनः अभ्युदयकाल की प्रतीक्षा करती हूँ। उत्तम नीति द्वारा युरक्षित पदार्थ भी यदि उैव प्रतिकूल हो, तो उसके द्वारा नष्ट हो जाता है; अतः विज्ञ पुरुष को दैव को अनुकूल बनाने का ही प्रयत्न करना चहिये। 1904 मैंने इस समय जो ये यथार्थ बातें कही हैं, इनका क्या प्रयोजन है ? यह मुझ दुखिया से पूछो। तुम्हारे पूछने पर यहाँ मैं यथार्थ बात बताती हूँ, सुनो। मैं पाण्डवों की पटरानी और प्रुपद की पुत्री होकर भी ऐसी दुर्दशा में पड़ी हूँ। मेरे सिवा दूसरी कौन स्त्री ऐसी अवस्था में जीना चाहेगी ? भारत ! शत्रुदमन ! मुझपर पड़ा हुआ यह क्लेश समस्त कौरवों, पान्चालों और पाण्डवों के लिये अपमान की बात है। जिसके बहुत से भाई, श्वसुर और पुत्र हों, जो इन सबसे घिरी हुई हो तथा भलीभाँति अभ्युदयशील हो, ऐसी परिस्थिति में मेरे सिवा दूसरी कौन स्त्री दुःख भोगने के लिये विवश हुई होगी ? भरतश्रेष्ठ ! जान पड़ता है, बचपन में मेंने विधाता का निश्चय ही महान् अपराध किया है,ए जिसके फलस्वरूप मैं आज इस दुर्दशा में पड़ गयी हूँ। पाण्डुनन्दन ! देखो, मेरे शरीर की कान्ति कैसी फीकी पड़ गयी है। यहाँ नगर में मेरी जो अवस्था है, वह उन दिनों अत्यन्त दुःख पूर्ण वनवास के समय भी नहीं थी।


« पीछे आगे »


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।