"महाभारत विराट पर्व अध्याय 20 श्लोक 16-29" के अवतरणों में अंतर

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१३:५७, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

विंश (20) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व))

महाभारत: विराट पर्व विंशोऽध्यायः श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद


भीमसेन ! तुम्हीं जानते हो, पहले मुण्े कितना सुख था। यहाँ आकर जबसे मैं दासीभाव को प्राप्त हुई हूँ, तभी से परतन्त्र होने के कारण मुझे तनिक भी शानित नहीं मिलती है। इसे मैं दैव की ही लीला मानती हूँ। जहाँ प्रचण्ड धनुष धारण करने वाले महाबाहु अर्जुन भी ढकी हुई अग्नि की भाँति रनिवास में छिपकर रहते हैं। कुन्तीनन्दन ! दैवाधीन प्राणियों की कब क्या गति होगी, इसे जानना मनुष्यों के लिये सर्वथा असम्भव है। मैं तो समझती हूँ, तुम लोगों की जो अवनति हुई है, इसकी किसी के मन में कल्पना तक नहीं थी। एक दिन था कि इन्द्र समान पराक्रमी तुम सब भाई सदा मेरा मुँह निहारा करते थे। आज वही मैं श्रेष्ठ होकर भी अपने से निकृष्ट दूसरी स्त्रियों का मुँह जोहती रहती हूँ। पाण्डुनन्दन ! देखो, तुम सबक जीतेजी मैं ऐसी बुरी हालत में पड़ी हूँ, जो मेरे लिये कदापि उचित नहीं है। समय के इस उलट-फेर को तो देखो; एक दिन समुद्र के पास तक की पृथ्वी जिसके अधीन थी, वही मैं आज सुदेष्णा के वश में होकर उससे डरती रहती हूँ। जिसके आगे और पीछे बहुत-से सेवक रहा करते थे, वही मैं अब रानी सुदेष्णा के आगे और पीछे चलती हूँ। कुन्तीकुमार ! इसके सिवा मेरे एक और असह्य दुःख को तो देखो। पहले में माता कुन्ती को छोड़कर (और किसी के लिये तो क्या) स्वयं अपने लिये भी कभी उबटन नहीं पीसती थी; किंतु वही मैं आज दूसरों के लिये चन्दन घिसती हूँ। पार्थ ! देखो, ये मेरे दोनों हाथ, जिनमें घड्डे पडत्र गये हैं, पहले ये ऐसे नहीं थे। ऐसा कहकर द्रौपदी ने भीमसेन को अपने दोनों हाथ दिखाये, जिनमें चन्दन रगड़ने से काले दाग पड़ गये थे। 1905 (फिर वह सिसकती हुई बोली-) नाथ ! जो पहले कभी आर्या कुन्ती से अथवा तुम लोगों से भी नहीं डरती थी, वही द्रौपदी आज दासी होकर राजा विराट के आगे भयभीत सी खड़ी रहती है। उस समय मैं सोचती हूँ, ‘न जाने सम्राट मुझे क्या कहेंगे ? यह उबटन अच्छा बना है या नहीं।’ मेरे सिवा दूारे कस पीसा हुआ चन्दन मत्स्यराज को अच्छा ही नहीं लगता। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! भामिनी द्रौपदी इस प्रकार भीमसेन से अपने दुःख बताकर उनके मुख की ओर देखती हुई धीरे-धीरे रोने लगी। वह बार7बार लंबी साँसें लेती हुई आँसुओं से गद्गद वाणी में भीमसेन के हृदय को कम्पित करती हुई इस प्रकार बोली- ‘पाण्डुनन्दन भीमसेन ! मेंने पूर्वकाल में देवताओं का थोड़ा अपराध नहीं किया है, तभी तो मुझ अभागिनी को जहाँ मर जाना चाहिये, उस दशा में मैं जी रही हूँ’। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तदनन्तर शत्रुहन्ता भीमसेन अपनी पत्नी द्रौपदी के दुबले-पतले हाथों को, जिनमें घड्डे पडत्र गये थे, अपने मुख पर लगाकर रो पड़े। फिर पराक्रमी भीम ने उस हाथों को पकडत्रकर आँसू बहाते हुए अत्यन्त दुःख से पीडि़त हो इस प्राकर कहा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में द्रौपदी भीमसेन संवाद विषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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