"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 196-211": अवतरणों में अंतर

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१४:०७, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण

अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टात्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 196-211 का हिन्दी अनुवाद

‘संक्षेप में नीतिशास्‍त्र का सार यह है कि किसी का भी विश्‍वास न करना ही उत्‍तम माना गया है; इसलिये दूसरे लोगों पर विश्‍वास न करने में ही अपना‍ विशेष हित है। ‘जो विश्‍वास न करके सावधान रहते हैं, वे दुर्बल होनेपर भी शत्रुओं द्वारा मारे नहीं जाते। परंतु जो उन पर विश्‍वास करते हैं, वे बलवान होने पर भी दुर्बल शत्रुओं द्वारा मार डाले जाते हैं। ‘बिलाव! तुम जैसे लोगों से मुझे सदा अपनी रक्षा करनी चाहिये और तुम भी अपने जन्‍मजात शत्रु चाण्‍डाल से अपने को बचाये रखो’। चूहे के इस प्रकार कहते समय चाण्‍डाल का नाम सुनते ही बिलाव बहुत डर गया और वह डाली छोड़कर बड़े वेग से तुरंत दूसरी ओर चला गया। तदनन्‍तर नीतिशास्‍त्र के और तत्‍त्‍व को जानने वाला बुद्धिमान् पलित अपने बौद्धिक शक्तिका परिचय दे दूसरे बिल में चला गया। इस प्रकार दुर्बल और अकेला होनेपर भी बुद्धिमान् पलित चूहे ने अपने बुद्धि–बल से बहुतेरे प्रबल शत्रुओं को परास्‍त कर दिया; अत: आपत्ति के समय विद्वान् पुरूष बलवान शत्रु के साथ भी संधि कर ले। देखों, चूहे और बिलाव दोनों एक दूसरे का आश्रय लेकर विपत्ति से छुटकारा पा गये थे। महाराज! इस दृष्‍टान्‍त से मैंने तुम्‍हें विस्‍तारपूर्वक क्षात्र-धर्म का मार्ग दिखाया है। अब संक्षेप में कुछ मेरी बात सुनो। चूहे ओर बिलाव एक दूसरे से वैर रखने वाले प्राणी हैं तो भी उन्‍होंने संकट के समय एक दूसरे से उत्‍तम प्रीति कर ली। उनमें परस्‍पर संधि कर लेने का विचार पैदा हो गया। ऐसे अवसरों पर बुद्धिमान् पुरूष उत्‍तम बुद्धि का आश्रय ले संधि करके शत्रु को परास्‍त कर देता है। इसी तरह विद्वान् पुरूष भी यदि असावधान रहे तो उसे दूसरे बूद्धिमान पुरूष परास्‍त कर देते हैं। इसलिये मनुष्‍य भयभीत होकर भी निडर के समान और किसी पर विश्‍वास न करते हुए भी विश्‍वास करने वाले के समान बर्ताव करे, उसे कभी असावधान होकर नहीं चलना चाहिये। यदि चलता है तो नष्‍ट हो जाता है। नरेश्‍वर! समयानुसार शत्रु के साथ भी संधि और मित्रके साथ भी युद्ध करना उचित है। संधि के तत्‍तव को जानने-वाले विद्वान् पुरूष इसी बात को सदा कहते हैं। महाराज! ऐसा जानकार नीतिशास्‍त्र के तात्‍पर्य को हृदयंगम करके उद्योगशील एवं सावधान रहकर भय आने से पहले भयभीत के समान आचरण करना चाहिये। बलवान शत्रु के समीप डरे हुए के समान उपस्थित होना चाहिये। उसी तरह उसके साथ संधि भी कर लेनी चाहिये। सावधान पुरूष के उद्योगशील बने रहने से स्‍वयं ही संकट से बचाने वाली बुद्धि उत्‍पन्‍न होती है। राजन्! जो पुरूष भय आने के पहले से ही उसकी ओर से सशंक रहता है, उसके सामने प्राय: भय का अवसर ही नहीं आता है; परंतु जो नि:शंक होकर दूसरों पर विश्‍वास कर लेता है, उसे सहसा बडे़ भारी भय का सामना करना पड़ता है। जो मनुष्‍य अपने को बुद्धिमान् मानकर निर्भय विचरता है, उसे कभी कोई सलाह नहीं देनी चाहिये; क्‍योंकि वह दूसरे की सलाह सुनता ही नहीं है। भय को न जानने की अपेक्षा उसे जानने वाला ठीक है; क्‍योंकि वह उससे बचने के लिये उपाय जानने की इच्‍छा से परिणामदर्शी पुरूषों के पास जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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