"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 68 श्लोक 38-53": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
No edit summary
छो (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
 
पंक्ति ९: पंक्ति ९:
<references/>
<references/>
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
{{सम्पूर्ण महाभारत}}


[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत शान्ति पर्व]]
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत शान्ति पर्व]]
__INDEX__
__INDEX__

१४:३०, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

अष्टषष्टितम (68) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टषष्टितम अध्याय: श्लोक 38-53 का हिन्दी अनुवाद

जो उस राजा के प्रिय एवं हितसाधन में संलग्न रहकर उसके सर्वलोक भयंकर शासन भार को वहन करता है, वह इस लोक और परलोक दोनों पर विजय पाता है। जो पुरूष मन से भी राजा के अनिष्टका का चिन्तन करता है, वह निश्चय ही इह लोक में कष्ट भोगता है और मरने के बाद भी नरक में पडता है। यह भी एक मनुष्य है ऐसा समझकर कभी भी पृथ्वीपालक नरेश की अवहेलना नही करनी चाहिये; क्योंकि राजा मनुष्य रूप में एक महान देवता है। राजा ही सदा समयानुसार पाँच रूप धारण करता है। वह कभी अग्नि, कभी मृत्य, कभी कुबेर और कभी यमराज बन जाता है। जब पापात्मा राजा के साथ मिथ्वा बर्ताव करके उसे ठगते है, तब वह अग्निस्वरूप हो जाता है और अपने उग्र तेज से समीप आये हुए उन पापियों को जलाकर भस्म कर देता है। जब राजा गुप्तचरों द्धारा समस्त प्रजाओं की देख- भाल करता है और उन सबकी रक्षा करता हुआ चलता है, तब वह सूर्य रूप होता है। जब राजा कुपित होेकर अशुद्धाचारी सैकडो़ मनुष्यों का उनके पुत्र, पौत्र और मन्त्रियों सहित संहार कर डालता है, तब मृत्यु रूप होता है। जब वह कठोर दण्ड के द्धारा समस्त अधार्मिक पुरूषों को काबू में करके सन्मार्ग पर लाता है और धर्मात्माओं पर अनुग्रह करतर है, उस वह समय वह यमराज माना जाता है। जब राजा उपकारी पुरूषों को धनरूपी जल की धाराओं से तृप्त करता हे और अपकार करने वाले दुष्टों के नाना प्रकार के रत्नों को छीन लेता है, किसी राज्यहितैषी को धन देता है तो किसी (राज्यविद्रोही) के धन का अपहरण कर लेता है,उस समय वह पृथिवीपालक नरेश इस संसार मे कुबेर समझा जाता है। जो समस्त कार्यों में निपुण, अनायास ही कार्य- साधन करने मे समर्थ, धर्म मय लोकों में जाने की इच्छा रखने वाला दोषदृष्टि से रहित हो, उस पुरूष को अपने देश के शासक नरेश की निन्दा के काम में नहीं पड़ना चाहिये। राजा के विपरीत आचरण करने वाला मनुष्य उसका पुत्र, भाई, मित्र अथवा आत्मा के तुल्य ही क्यों न हो, कभी सुख नहीं पा सकता। वायु की सहारता से प्रज्वलित हुई आग जब किसी गाँव या जंगल को जलाने लगे तो सम्भव है कि वहाँ का कुछ भाग जलाये बिना शेष छोड़ दे; परंतु राजा जिस पर आक्रमण करता है, उसकी कहीं कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती। मनुष्य को चाहिये कि राजा की सारी रक्षणीय वस्तुओं को दूसरे ही त्याग दे और मृत्यु ही भाँति राजधन के अपहरण से घृणा करके उससे अपने को बचाने का प्रयत्न करे। जैसे मृग मारण-मन्त्र का स्पर्श करते ही अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है, उसी प्रकार राजा के धन पर हाथ लगाने वाला मनुष्य तत्काल मर जाता है; अतः बुद्धिमान पुरूष को चाहिये कि वह अपने ही धन के समान इस जगत में राजा के धन की भी रक्षा करे । राजा के धन का अपहरण करने वाले मनुष्य दीर्घकाल के लिये विशाल, भयंकर, अस्थिर और चेतनाशक्ति को लुप्त कर देने वाले नरक में गिरते है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।