"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-2": अवतरणों में अंतर

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१३:१५, २० जुलाई २०१५ का अवतरण

पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

राजधर्म का वर्णन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-2 का हिन्दी अनुवाद

बुद्धिमान् मन्त्री, बहुजनप्रिय राष्ट्र, दुर्धर्ष श्रेष्ठ नगर या दुर्ग, कठिन अवसरों पर काम देने वाला कोष, सामनीति के द्वारा राजा में अनुराग रखने वाली सेना, दुविधे में न पड़ा हुआ मित्र और विनय के तत्व को जानने वाला राज्य का स्वामी- ये सात प्रकृतियाँ कही गयी हैं। प्रजा की रक्षा के लिये ही यह सारा प्रबन्ध किया गया है। रक्षा की हेतुभूत जो ये प्रकृतियाँ है, इनके सहयोग से राजा लोकहित का सम्पादन करे। राजा को प्रजा की रक्षा के लिये ही अपनी रक्षा अभीष्ट होती है, अतः वह सदा सावधान होकर आत्मरक्षा करे। मन को वश में रखने वाला राजा भोजन- आच्छादन- स्नान, बाहर निकलना तथा सदा स्त्रियों के समुदाय से संयोग रखना- इन सबसे अपनी रक्षा करे।। वह मन को सदा अपने अधीन रखकर स्वजनों से, दूसरों से, शस्त्र से, विष से तथा स्त्री-पुत्रों से भी निरन्तर अपनी रक्षा करे। आत्मवान् राजा प्रजा की रक्षा के लिये सभी स्थानों से अपनी रक्षा करे और सदा प्रजा के हित में संलग्न रहे। प्रजा का कार्य ही राजा का कार्य है, प्रजा का सुख ही उसका सुख है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है तथा प्रजा के हित में ही उसका अपना हित होता है। प्रजा के हित के लिये ही उसका सर्वस्व है, अपने लिये कुछ भी नहीं है। प्रकृतियों की रक्षा के लिये राग-द्वेष छोड़कर किसी विवाद के निर्णय के लिये पहले दोनों पक्षों की यथार्थ बातें सुन ले। फिर अपनी बुद्धि के द्वारा स्वयं उस मामले पर तब तक विचार करे, जब तक कि उसे यथार्थता का सुस्पष्ट ज्ञान न हो जाय। तत्व को जानने वाले अनेक श्रेष्ठ पुरूषों के साथ बैठकर परामर्श करने के बाद अपराधीन, अपराध, देश, काल, न्याय और अन्याय का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करके फिर शास्त्र के अनुसार राजा अपराधी मनुष्यों को दण्ड दे। पक्षपात छोड़कर ऐसा करने वाला राजा धर्म का भागी होता है। प्रत्यक्ष देखकर, माननीय पुरूषों के उपदेश सुनकर अथवा युक्तियुक्त अनुमान करके राजा को सदा ही अपने देश के शुभाशुभ वृत्तान्त को जानना चाहिये। गुप्तचरों द्वारा और कार्य की प्रवृत्ति सेदेश के शुभाशुभ वृत्तान्त को जानकर उस पर विचार करे। तत्पश्चात् अशुभ का तत्काल निवारण करे और अपने लिये शुभ का सेवन करे। देवि! राजा निन्दनीय मनुष्यों की निन्दा ही करे, पूजनीय पुरूषों का पूजन करे और दण्डनीय अपराधियों को दण्ड दे। इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। पाँच व्यक्तियों की अपेक्षा रखकर अर्थात् पाँच मन्त्रियों के साथ बैठकर सदा ही राज-कार्य के विषय में गुप्त मन्त्रणा करे। जो बुद्धिमान्, कुलीन, सदाचारी और शास्त्रज्ञानसम्पन्न हों, उन्हीं के साथ राजा को सदा मन्त्रणा करनी चाहिये। जो इच्छानुसार राज्य कार्य से विमुख हो जाते हों, ऐसे लोगों के साथ मन्त्रणा करने का विचार भी मन में नहीं लाना चाहिये। राजा को राष्ट्र के हित का ध्यान रखकर सत्य-धर्म का पालन करना और कराना चाहिये।। दुर्ग आदि तथा मनुष्यों की देखभाल के लिये राजा सम्पूर्ण उद्योग सदा स्वयं ही करे। वह देश की उन्नति करने वाले भृत्यों को सावधानी के साथ कार्य में नियुक्त करे और देश को हानि पहुँचाने वाले समस्त अप्रियजनों का परित्याग कर दे। जो राजा के आश्रित होकर जीविका चला रहे हों, ऐसे लोगों की देखभाल भी राजा प्रतिदिन स्वयं ही करे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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