"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-28": अवतरणों में अंतर

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१३:१६, २० जुलाई २०१५ का अवतरण

पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

प्राणियों के चार भेदों का निरुपण,पुर्वजन्म की स्मृति का रहस्य,मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्रदर्शन,दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-28 का हिन्दी अनुवाद

अतः उन घटनाओं के देखने में प्राणियों के लिये स्वप्नदर्शन निमित्त बनता है। देवि! तुम्हें स्वप्न का विषय बताया गया, अब और क्या सुनना चाहती हो? उमा ने कहा- भगवन्! सर्वभूतेश्वर! जगत् में दैव की प्रेरणा से ही सबकी कर्ममार्ग में प्रवृत्ति होती है। ऐसी कुछ लोगों की मान्यता है। दूसरे लोग क्रिया को प्रत्यक्ष देखकर ऐसा मानते हैं कि चेष्टा से ही सबकी प्रवृत्ति होती है, दैव से नहीं ये दो पक्ष हैं। इनमें मेरा मन संशय में पड़ जाता है, अतः महादेव! यथार्थ बात बताइये। इसे सुनने के लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल हो रहा है। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! मैं तुम्हें तत्व की बात बता रहा हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। मनुष्यों में दो प्रकार का कर्म देखा जाता है, उसे सुनो। इनमें एक तो पूर्वकृत कर्म है और दूसरा इहलोक में किया गया है। अब मैं देव और मनुष्य दोनों से सम्पादित होने वाले लौकिक कर्म का वर्णन करता हूँ। कृषि में जो जुताई, बोवाई, रोपनी, कटनी तथा ऐसे ही और भी जो कार्य देखे जाते हैं, वे सब मानुष कहे गये हैं। दैव से उस कर्म में सफलता और असफलता होती है। मानुष कर्म में बुराई भी सम्भव है। उत्तर प्रयत्न करने से कीर्ति प्राप्त होती है और बुरे उपायों के अवलम्बन से अपयश। देवि! आदिकाल से ही जगत् की ऐसी ही अवस्था है। बीज का रोपना और काटना आदि मनुष्य का काम है, परंतु समय पर वर्षा होना, बोवाई का सुन्दर परिणाम निकलना, बीज में अंकुर उत्पन्न होना और शस्य का श्रेणीबद्ध होकर प्रकट होना इत्यादि कार्य देवसम्बन्धी बताये गये हैं। दैव की अनुकूलता से ही इन कार्यों का सम्पादन होता है। पंचभूतों की स्थिति, ग्रहनक्षत्रों का चलना-फिरना तथा जहाँ मनुष्यों की बुद्धि न पहुँच सके अथवा किन्हीं कारणों या युक्तियों से भी समझ में न आ सके- ऐसा कर्म शुभ हो या अशुभ दैव माना जाता है और जिस बात को मनुष्य स्वयं कर सके, उसे पौरूष कहा गया है। केवल दैव या पुरूषार्थ से फल की सिद्धि नहीं होती। प्रिये! प्रत्येक वस्तु या कार्य एक ही साथ पुरूषार्थ और दैव दोनों से ही गुँथा हुआ है। दैव और पुरूषार्थ दोनों के समानकालिक सहयोग से कर्म सम्पन्न होता है। जैसे एक ही काल में सर्दी और गर्मी दोनों होती हैं, उसी प्रकार एक ही समय दैव और पुरूषार्थ दोनों काम करते हैं। इन दोनों में जो पुरूषार्थ है, उसका आरम्भ विज्ञ पुरूष को पहले करना चाहिये। जो अपने-आप होना सम्भव नहीं है, उसको आरम्भ करने से मनुष्य कीर्ति का भागी होता है। जैसे लोक में भूमि खोदने से जल तथा काष्ठ का मन्थन करने से अग्नि की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार पुरूषार्थ करने पर दैव का सहयोग स्वतः प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य कर्म नहीं करता, उसको दैवी सहायता नहीं प्राप्त होती, अतः समस्त कार्यों का आरम्भ दैव और पुरूषार्थ दोनों पर निर्भर है। उमा ने पूछा- भगवन्! सर्वलोकेश्वर! लोकनाथ! वृषध्वज! कर्मों का फल भोगने वाले जीवात्मा नामक किसी द्रव्य की सत्ता नहीं है, इसलिये मरा हुआ जीव फिर जन्म नहीं लेता है। जैसे वृक्ष से फल पैदा होता है, उसी प्रकार स्वभाव से ही सब कुछ उत्पन्न होता है और जैसे समुद्र से लहरें प्रकट होती हैं, उसी प्रकार स्वभाव से ही जगत् की आकृति प्रकट होती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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