"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 90 श्लोक 47-54": अवतरणों में अंतर
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१३:४७, २० जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
नवतितमो (90) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
जैसे आग बुझ जाने पर जो घृत का हवन किया जाता है, उसे न देवता पाते हैं, न पितर; उसी प्रकार नाचने वाले, गवैये और झूठ बोलने वाले अपात्र ब्राह्माण को दिया हुआ दान निष्फल होता है। अपात्र पुरुष को दी हुई दक्षिणा न दाता को तृप्त करती है न दान लेने वाले को; प्रत्युत दोनों का ही नाश करती है। यही नहीं, वह विनाशकारिणी निंदित दक्षिणा दाता के पितरों को देवयान मार्ग से नीचे गिरा देती है। युधिष्ठिर ! जो सदा ऋषियों के बताये हुए धर्म मार्ग पर चलते हैं, जिनकी बुद्वि एक निश्चय पर पहुंची हुई है तथा जो सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता हैं, उन्हीं को देवता लोग ब्राह्माण मानते हैं। भारत। ऋषि-मुनियों किन्ही को स्वाध्यायनिष्ठ, किन्ही को ज्ञाननिष्ठ, किन्हीं को तपोनिष्ठ और किन्ही को कर्मनिष्ठ जानना चहिये। भरतनन्दन ! उनमें ज्ञाननिष्ठ महर्षियों को ही श्राद्ध का अन्न जिमाना चाहिये। जो लोग ब्राह्माणों की निंदा नहीं करते, वे ही श्रेष्ठ मनुष्य हैं। राजन ! जो बातचीत में ब्राह्माणों की निंदा करते हैं, उन्हें श्राद्ध में भोजन नहीं कराना चाहिये। नरेश्वर ! वानप्रस्थ ऋषियों का यह वचन सुना जाता है कि ‘ब्राह्माणों की निंदा होने पर वे निंदा करने वाले की तीन पीढि़यों का नाश कर डालते हैं।' वेदवेत्ता ब्राह्माणों की दूर से ही प्रतीक्षा करनी चाहिये। भारत ! वेदज्ञ पुरुष अपना प्रिय हो या अप्रिय- इसका विचार न करके उसे श्राद्ध में भोजन कराना चाहिये। जो दस लाख अपात्र ब्राह्माणों को भोजन कराता है, उसके यहां उन सबके बदले एक ही सदा संतुष्ट रहने वाला वेदज्ञ ब्राह्माण भोजन करने का अधिकारी है, अर्थात लाखों मूर्खों की अपेक्षा एक सतपात्र ब्राह्माण को भोजन कराना उत्तम है।
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