"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 1-17" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
 
पंक्ति १२: पंक्ति १२:
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
 
{{सम्पूर्ण महाभारत}}
 
{{सम्पूर्ण महाभारत}}
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अनुशासनपर्व]]
+
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अनुशासन पर्व]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__

१३:४७, २० जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

त्रिनवतितमो (90) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: त्रिनवतितमो अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
ग्रहस्‍थ के धर्मों का रहस्‍य,प्रतिग्रह दोष बताने के लिये वृषादर्भि और सप्‍तर्षियों की कथा, भिक्षुरुपधारी इन्‍द्र के द्वारा कृत्‍या का वध करके सप्‍तर्षियों की रक्षा तथा कमलों की चोरी विषय में शपथ खाने के बहाने से धर्मपाल का संकेत

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। यदि व्रतधारी विप्र किसी ब्राह्माण की इच्छा पूर्ण करने के लिये उसके घर श्राद्ध का अन्न भोजन कर ले तो इसे आप कैसा मानते हैं? (अपने व्रत का लोप करना उचित है या ब्राह्माण की प्रार्थना अस्वीकार करना)। भीष्मजी ने कहा- युधिष्ठिर। जो वेदोक्त व्रत का पालन नहीं करते, वे ब्राह्माण की इच्छापूर्ति के लिये श्राद्ध में भोजन कर सकते हैं; किंतु जो वैदिक व्रत का पालन कर रहे हों, वे यदि किसी के अनुरोध से श्राद्ध का अन्न ग्रहण करते हैं तो उनका व्रत भंग हो जाता है। युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह ! साधारण लोग जो उपवास को ही तप कहा करते हैं, उसके सम्बन्ध में आपकी क्या धारणा है? मैं यह जानना चाहता हूं कि वास्तव में उपवास ही तप या उसका और कोई स्वरूप है। भीष्मजी ने कहा- राजन। जो लोग पन्द्रह दिन या एक महीने तक उपवास करके उसे तपस्या मानते हैं, वे व्यर्थ ही अपने शरीर को कष्ट देेते हैं। वास्तव में केवल उपवास करने वाले न तपस्वी हैं, न धर्मज्ञ। त्याग का संपादन ही सबसे उत्तम तपस्या है। ब्राह्माण को सदा उपवास ही (व्रत परायण), ब्रह्मचारी, मुनि और वेदा को स्वाध्यायी होना चाहिये। धर्मपालन की इच्छा से ही उसको स्त्री आदि कुटम्ब का संग्रह करना चाहिये (विषय भोग के लिये नहीं)। ब्राह्माण को उचित है कि वह सदा जाग्रत रहे, मांस कभी न खाये, पवित्रभाव से सदा वेद का पाठ करे, सदा सत्य भाषण करे और इन्द्रियों को संयम में रखे। उसको सदा अमृताषी, विगसाषी और अतिथीप्रिय तथा सदा पवित्र रहना चाहिये। युधिष्ठिर ने पूछा- पृथ्वीनाथ ! ब्राह्माण कैसे सदा उपवासी और ब्रह्मचारी होवे। तथा किस प्रकार विघसाषी एवं अतिथीप्रिय हो सकता है? भीष्मजी ने कहा-युधिष्ठिर ! जो मनुष्य केवल प्रातःकाल और सांयकाल ही भोजन करता है, बीच में कुछ नहीं खाता उसे सदा उपवासी समझना चाहिये। जो केवल ऋतुकाल में धर्मपत्‍नी के साथ सहवास करता है वह ब्रह्मचारी ही माना जाता है। सदा दान देने वाला पुरुष सत्यवादी ही समझने योग्य है। जो मांस नहीं खाता वह अमांसाषी होता है और जो सदा दान देने वाला है, वह पवित्र माना जाता है। जो दिन में नहीं सोता वह सदा जागने वाला माना जाता है। युधिष्ठिर।जो सदा भ्रत्यों और अतिथियों के भोजन करने के बाद ही स्‍वयं भोजन करता है, उसे केवल अमृत भोजन करने वाला (अमृताशी) समझना चाहिये। जब तक ब्राह्माण भोजन नहीं कर ले तब तक जो अन्न ग्रहण नहीं करता वह मनुष्‍य अपने उस व्रत के द्वारा स्वर्गलोक पर विजय पाता है। नरेश्‍वर ! जो देवताओं, पितरों और आश्रितों को भोजन कराने के बाद बचे हुए अन्न को ही स्वयं भोजन करता है उसे विघसाषी कहते हैं। उन मनुष्यों का ब्रह्मधाम में अक्षयलोकों की प्राप्ति होती है तथा गन्धर्वों सहित अप्सराऐं उनकी सेवा में उपस्थित होती हैं। जो देवता और अतिथियों सहित पितरों के लिये अन्न का भाग देकर स्‍वयं भोजन करते हैं, वे इस जगत में पुत्र-पौत्रों के साथ रहकर आनन्द भोगते हैं और मृत्यु के पश्चात उन्हें परम उत्तम गति प्राप्त होती है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।