"महाभारत आदि पर्व अध्याय 29 श्लोक 1-18": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
No edit summary
पंक्ति १: पंक्ति १:
== एकोनत्रिंशो अध्‍याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)==
==एकोनत्रिंश (29) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: एकोनत्रिंश अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद</div>


<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदिपर्व: एकोनत्रिंशो अध्‍याय: श्लोक 1- 24 का हिन्दी अनुवाद</div>
उग्रश्रवाजी कहते हैं— निषादों के साथ एक ब्राह्मण भी भार्या सहित गरुड़ के कण्ठ में चला गया था। वह दहकते हुए अंगार की भाँति जलन पैदा  करने लगा। तब आकाशचारी गरुड़ ने उस ब्राह्मण से कहा- 'द्बिजश्रेष्ठ ! तुम मेरे खुले हुए मुख से जल्दी निकल जाओ। ब्राह्मण पापपरायण ही क्यों न हो मेरे लिये सदा अवध्य है।' ऐसी बात कहने वाले गरुड़ से वह ब्राह्मण बोला-‘यह निषाद-जाति की कन्या मेरी भार्या है: अत: मेरे साथ यह भी निकले (तभी मैं निकल सकता हूँ)’। गरुड़ ने कहा—ब्राह्मण ! तुम इस निषादी को भी लेकर जल्दी निकल जाओ। तुम अभी तक मेरी जठराग्नि के तेज से पचे नहीं हो: अत: शीघ्र अपने जीवन की रक्षा करो। उग्रश्रवाजी कहते हैं—उनके ऐसा कहने पर वह ब्राह्मण निषादी सहित गरुड़ के मुख से निकल आया और उन्हें आशीर्वाद देकर अभीष्ट देश को चला गया। भार्या सहित उस ब्राह्मण के निकल जाने पर वह पक्षिराज गरुड़ पंख फैलाकर मन के समान तीव्र वेग से आकाश में उड़े। तदनंतर उन्हें अपने पिता कश्यपजी का दर्शन हुआ। उनके पूछ्ने पर अमेयात्मा गरुड़ ने पिता से यथोचित कुशल समाचार कहा। महर्षि कश्यप उनसे इस प्रकार बोले। कश्यपजी ने पूछा- बेटा ! तुम लोग कुशल से तो हो न? विशेषतः प्रतिदिन भोजन के सम्बन्ध में तुम्हें विशेष सुविधा है न? क्या मनुष्य लोक में तुम्हारे लिये पर्याप्त अन्न मिल जाता है? गरूड़ ने कहा--मेरी माता सदा कुशल से रहती हैं। मेरे भाई तथा मैं दोनों सकुशल हैं। परन्तु पिताजी ! पर्याप्त भोजन के विषय में तो सदा मेरे लिये कुशल का अभाव ही है। मुझे सर्पों ने उत्तम अमृत लाने के लिये भेजा है। माता को दासीपन से छुटकारा दिलाने के लिय आज मैं निश्चय ही उस अमृत को लाऊँगा। भोजन के विषय में पूछने पर माता ने कहा—‘निषादों का भक्षण करो, परन्तु हजारों निषादों को खा लेने पर भी मुझे तृप्ति नहीं हुई है।' अत: भगवान ! आप मेरे लिये कोई दूसरा भोजन बताइये। प्रभो ! वह भोजन ऐसा हो जिसे खाकर मैं अमृत लाने में समर्थ हो सकूँ। मेरी भूख- प्यास को मिटा देने के लिये आप पर्याप्त भोजन बताइये।' कश्यपजी बोले--बेटा ! यह महान पुण्यदायक सरोवर है, जो देवलोक में भी विख्यात है। उसमें एक हाथी नीचे को मुँह किये सदा सूँड से पकड़कर एक कछुए को खींचता रहता है। वह कछुआ पूर्व जन्म में उसका बड़ा भाई था। दोनों में पूर्व जन्म का वैर चला आ रहा है। उनमें यह वैर क्यो और कैसे हुआ तथा उन दोनों के शरीर की लम्बाई चैड़ाई और ऊँचाई कितनी है, ये सारी बातें मैं ठीक-ठीक बता रहा हूँ। तुम ध्यान देकर सुनो। पूर्वकाल में विभावसु नाम से प्रसिद्ध एक महर्षि थे। वे स्वभाव के बडे़ क्रोधी थे। उनके छोटे भाई का नाम था सुप्रतीक। वे भी बड़े तपस्वी थे। महामुनि सुप्रतीक। अपने धन को बड़े भाई के साथ एक जगह नहीं रखना चाहते थे। सुप्रतीक प्रतिदिन बँटबारे के लिये आग्रह करते ही रहते थे। तब एक दिन बड़े भाई विभावसु ने सुप्रतीक से कहा—‘भाई ! बहुत से मनुष्य मोहवश सदा धन का बँटबारा कर लेने की इच्छा रखते हैं। तदनन्तर हो जाने पर धन के मोह में फँसकर वे एक दूसर के विरोधी हो परस्पर क्रोध करने लगते हैं।


उग्रश्रवाजी कहते हैं— निषादों के साथ एक ब्राह्मण भी भार्या सहित गरुड़ के कण्ठ में चला गया था। वह दहकते हुए अंगार की भाँति जलन पैदा  करने लगा। तब आकाशचारी गरुड़ ने उस ब्राह्मण से कहा- 'द्बिजश्रेष्ठ ! तुम मेरे खुले हुए मुख से जल्दी निकल जाओ। ब्राह्मण पापपरायण ही क्यों न हो मेरे लिये सदा अवध्य है।' ऐसी बात कहने वाले गरुड़ से वह ब्राह्मण बोला-‘यह निषाद-जाति की कन्या मेरी भार्या है: अत: मेरे साथ यह भी निकले (तभी मैं निकल सकता हूँ)’। गरुड़ ने कहा—ब्राह्मण ! तुम इस निषादी को भी लेकर जल्दी निकल जाओ। तुम अभी तक मेरी जठराग्नि के तेज से पचे नहीं हो: अत: शीघ्र अपने जीवन की रक्षा करो। उग्रश्रवाजी कहते हैं—उनके ऐसा कहने पर वह ब्राह्मण निषादी सहित गरुड़ के मुख से निकल आया और उन्हें आशीर्वाद देकर अभीष्ट देश को चला गया। भार्या सहित उस ब्राह्मण के निकल जाने पर वह पक्षिराज गरुड़ पंख फैलाकर मन के समान तीव्र वेग से आकाश में उड़े। तदनंतर उन्हें अपने पिता कश्यपजी का दर्शन हुआ। उनके पूछ्ने पर अमेयात्मा गरुड़ ने पिता से यथोचित कुशल समाचार कहा। महर्षि कश्यप उनसे इस प्रकार बोले। कश्यपजी ने पूछा- बेटा ! तुम लोग कुशल से तो हो न? विशेषतः प्रतिदिन भोजन के सम्बन्ध में तुम्हें विशेष सुविधा है न? क्या मनुष्य लोक में तुम्हारे लिये पर्याप्त अन्न मिल जाता है? गरूड़ ने कहा--मेरी माता सदा कुशल से रहती हैं। मेरे भाई तथा मैं दोनों सकुशल हैं। परन्तु पिताजी ! पर्याप्त भोजन के विषय में तो सदा मेरे लिये कुशल का अभाव ही है। मुझे सर्पों ने उत्तम अमृत लाने के लिये भेजा है। माता को दासीपन से छुटकारा दिलाने के लिय आज मैं निश्चय ही उस अमृत को लाऊँगा। भोजन के विषय में पूछने पर माता ने कहा—‘निषादों का भक्षण करो, परन्तु हजारों निषादों को खा लेने पर भी मुझे तृप्ति नहीं हुई है।' अत: भगवान ! आप मेरे लिये कोई दूसरा भोजन बताइये। प्रभो ! वह भोजन ऐसा हो जिसे खाकर मैं अमृत लाने में समर्थ हो सकूँ। मेरी भूख- प्यास को मिटा देने के लिये आप पर्याप्त भोजन बताइये।' कश्यपजी बोले--बेटा ! यह महान पुण्यदायक सरोवर है, जो देवलोक में भी विख्यात है। उसमें एक हाथी नीचे को मुँह किये सदा सूँड से पकड़कर एक कछुए को खींचता रहता है। वह कछुआ पूर्व जन्म में उसका बड़ा भाई था। दोनों में पूर्व जन्म का वैर चला आ रहा है। उनमें यह वैर क्यो और कैसे हुआ तथा उन दोनों के शरीर की लम्बाई चैड़ाई और ऊँचाई कितनी है, ये सारी बातें मैं ठीक-ठीक बता रहा हूँ। तुम ध्यान देकर सुनो। पूर्वकाल में विभावसु नाम से प्रसिद्ध एक महर्षि थे। वे स्वभाव के बडे़ क्रोधी थे। उनके छोटे भाई का नाम था सुप्रतीक। वे भी बड़े तपस्वी थे। महामुनि सुप्रतीक। अपने धन को बड़े भाई के साथ एक जगह नहीं रखना चाहते थे। सुप्रतीक प्रतिदिन बँटबारे के लिये आग्रह करते ही रहते थे। तब एक दिन बड़े भाई विभावसु ने सुप्रतीक से कहा—‘भाई ! बहुत से मनुष्य मोहवश सदा धन का बँटबारा कर लेने की इच्छा रखते हैं। तदनन्तर हो जाने पर धन के मोह में फँसकर वे एक दूसर के विरोधी हो परस्पर क्रोध करने लगते हैं। ‘वे स्वार्थपरायण मूढ़ मनुष्य अपने धन के साथ जब अलग-अलग हो जाते हैं, तब उनकी यह अवस्था जानकर शत्रु भी मित्ररूप में आकर मिलते और उनमें भेद डालते रहते हैं। ‘दूसरे लोग, उनमें फूट हो गयी है, यह जानकर उनके छिद्र देखा करते हैं एवं छिद्र मिल जाने पर उनमें परस्पर वैर बढ़ाने के लिय स्वयं बीच में आ पड़ते हैं। इसलिये जो लोग अलग-अलग होकर आपस में फूट पैदा कर लेते हैं, उनका शीघ्र ही ऐसा विनाश हो जाता है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। ‘अतः साधु पुरुष भाईयों के बीच अलगाव या बंटवारे की प्रशंसा नहीं करते; क्योंकि इस प्रकार बँट जाने वाले भाई गुरूस्वरूप शास्त्र की उलंघनीय आज्ञा के अधीन नहीं रह जाते और एक- दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं।<ref>कनिष्ठान पुत्रवत पश्येज्ज्येष्ठो भ्राता पितुः समः’ अर्थात ‘बड़ा भाई पिता के समान होता है। वह अपने छोटे भाईयों को पुत्र के समान देखे।’ यह शास्त्र की आज्ञा है। जिसमें फूट हो जाती है, वे पीछे इस आज्ञा का पालन नहीं कर पाते।</ref> ‘सुप्रतीक ! तुम्हें वश में करना असम्भव हो रहा है और तुम भेद-भाव के कारण ही बँटबारा करके धन लेना चाहते हो, इसलिये तुम्हें हाथी की योनि में जन्म लेना पड़ेगा।' इस प्रकार शाप मिलने पर सुप्रतीक और विभावसु से कहा-‘तुम भी पानी के भीतर विचरने वाले कछुए होओगे।' इस प्रकार सुप्रतीक और विभावसु मुनि एक-दूसरे के शाप से हाथी और कछुए की योनि में पड़े हैं। धन के लिये उनके मन में मोह छा गया था।
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत आदि पर्व अध्याय 28 श्लोक 1-21|अगला=महाभारत आदि पर्व अध्याय 29 श्लोक 19-34}}
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत आदिपर्व अध्याय 28 श्लोक 1-21|अगला=महाभारत आदिपर्व अध्याय 29 श्लोक 25-44}}


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०६:२३, २३ जुलाई २०१५ का अवतरण

एकोनत्रिंश (29) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: एकोनत्रिंश अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

उग्रश्रवाजी कहते हैं— निषादों के साथ एक ब्राह्मण भी भार्या सहित गरुड़ के कण्ठ में चला गया था। वह दहकते हुए अंगार की भाँति जलन पैदा करने लगा। तब आकाशचारी गरुड़ ने उस ब्राह्मण से कहा- 'द्बिजश्रेष्ठ ! तुम मेरे खुले हुए मुख से जल्दी निकल जाओ। ब्राह्मण पापपरायण ही क्यों न हो मेरे लिये सदा अवध्य है।' ऐसी बात कहने वाले गरुड़ से वह ब्राह्मण बोला-‘यह निषाद-जाति की कन्या मेरी भार्या है: अत: मेरे साथ यह भी निकले (तभी मैं निकल सकता हूँ)’। गरुड़ ने कहा—ब्राह्मण ! तुम इस निषादी को भी लेकर जल्दी निकल जाओ। तुम अभी तक मेरी जठराग्नि के तेज से पचे नहीं हो: अत: शीघ्र अपने जीवन की रक्षा करो। उग्रश्रवाजी कहते हैं—उनके ऐसा कहने पर वह ब्राह्मण निषादी सहित गरुड़ के मुख से निकल आया और उन्हें आशीर्वाद देकर अभीष्ट देश को चला गया। भार्या सहित उस ब्राह्मण के निकल जाने पर वह पक्षिराज गरुड़ पंख फैलाकर मन के समान तीव्र वेग से आकाश में उड़े। तदनंतर उन्हें अपने पिता कश्यपजी का दर्शन हुआ। उनके पूछ्ने पर अमेयात्मा गरुड़ ने पिता से यथोचित कुशल समाचार कहा। महर्षि कश्यप उनसे इस प्रकार बोले। कश्यपजी ने पूछा- बेटा ! तुम लोग कुशल से तो हो न? विशेषतः प्रतिदिन भोजन के सम्बन्ध में तुम्हें विशेष सुविधा है न? क्या मनुष्य लोक में तुम्हारे लिये पर्याप्त अन्न मिल जाता है? गरूड़ ने कहा--मेरी माता सदा कुशल से रहती हैं। मेरे भाई तथा मैं दोनों सकुशल हैं। परन्तु पिताजी ! पर्याप्त भोजन के विषय में तो सदा मेरे लिये कुशल का अभाव ही है। मुझे सर्पों ने उत्तम अमृत लाने के लिये भेजा है। माता को दासीपन से छुटकारा दिलाने के लिय आज मैं निश्चय ही उस अमृत को लाऊँगा। भोजन के विषय में पूछने पर माता ने कहा—‘निषादों का भक्षण करो, परन्तु हजारों निषादों को खा लेने पर भी मुझे तृप्ति नहीं हुई है।' अत: भगवान ! आप मेरे लिये कोई दूसरा भोजन बताइये। प्रभो ! वह भोजन ऐसा हो जिसे खाकर मैं अमृत लाने में समर्थ हो सकूँ। मेरी भूख- प्यास को मिटा देने के लिये आप पर्याप्त भोजन बताइये।' कश्यपजी बोले--बेटा ! यह महान पुण्यदायक सरोवर है, जो देवलोक में भी विख्यात है। उसमें एक हाथी नीचे को मुँह किये सदा सूँड से पकड़कर एक कछुए को खींचता रहता है। वह कछुआ पूर्व जन्म में उसका बड़ा भाई था। दोनों में पूर्व जन्म का वैर चला आ रहा है। उनमें यह वैर क्यो और कैसे हुआ तथा उन दोनों के शरीर की लम्बाई चैड़ाई और ऊँचाई कितनी है, ये सारी बातें मैं ठीक-ठीक बता रहा हूँ। तुम ध्यान देकर सुनो। पूर्वकाल में विभावसु नाम से प्रसिद्ध एक महर्षि थे। वे स्वभाव के बडे़ क्रोधी थे। उनके छोटे भाई का नाम था सुप्रतीक। वे भी बड़े तपस्वी थे। महामुनि सुप्रतीक। अपने धन को बड़े भाई के साथ एक जगह नहीं रखना चाहते थे। सुप्रतीक प्रतिदिन बँटबारे के लिये आग्रह करते ही रहते थे। तब एक दिन बड़े भाई विभावसु ने सुप्रतीक से कहा—‘भाई ! बहुत से मनुष्य मोहवश सदा धन का बँटबारा कर लेने की इच्छा रखते हैं। तदनन्तर हो जाने पर धन के मोह में फँसकर वे एक दूसर के विरोधी हो परस्पर क्रोध करने लगते हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।