"महाभारत आदि पर्व अध्याय 31 श्लोक 1-17": अवतरणों में अंतर

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एकत्रिंश (31) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: एकत्रिंश अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

शौनकजी ने पूछा—सूतनन्दन ! इन्द्र का क्या अपराध और कौन सा प्रमाद था? वालखिल्य मुनियों की तपस्या के प्रभाव से गरूड़ की उत्पत्ति कैसे हुई थी? कश्यपजी तो ब्राह्मण हैं, उनका पुत्र पक्षिराज कैसे हुआ? साथ ही वह समस्त प्राणियों के लिये दुर्धर्ष एवं अवध्य कैसे हो गया? उस पक्षी में इच्छानुसार चलने तथा रूचि के अनुसार पराक्रम करने की शक्ति कैसे आ गयी? मैं यह सब सुनना चाहता हूँ। यदि पुराण में कहीं इसका वर्णन हो तो सुनाइये। उग्रश्रवाजी ने कहा—ब्रह्मन् ! आप मुझसे जो पूछ रहे हैं, वह पुराण का ही विषय है। मैं संक्षेप में ये सब बातें बता रहा हूँ, सुनिये। कहते हैं, प्रजापति कश्यपजी पुत्र की कामना से यश कर रहे थे, उसमें ऋषियों, देवताओं तथा गंधर्वों ने भी उन्हें बड़ी सहायता दी। उस यज्ञ मे कश्यपजी ने इन्द्र को समिधा लाने के काम पर नियुक्त किया था। वालखिल्य मुनियों तथा अन्य देवगणों को भी यही कार्य सौंपा गया था। इन्द्र शक्तिशाली थे। उन्होंने अपने बल के अनुसार लकड़ी का एक पहाड़ जैसा बोझ उठा लिया और उसे बिना कष्ट के ही वे ले आये। उन्होंने मार्ग में बहुत से ऐसे ऋषियों को देखा, जो कद में बहुत ही छोटे थे। उनका सारा शरीर अंगूठे के मध्य भाग के बराबर था। वे सब मिलकर पलाश की एक बाती (छोटी- सी टहनी) लिये आ रहे थे। उन्होंने आहार छोड़ रखा था। तपस्या ही उनका धन था। वे अपने अंगों में ही समाये हुए से जान पड़ते थे। पानी से भरे हुए गोखुर के लाँघने में भी उन्हें बड़ा कलेश होता था। उनमें शारीरिक बल बहुत कम था। अपने बल के घमंड में मतवाले इन्द्र ने आश्चर्यचकित होकर उन सबको देखा और उनकी हँसी उड़ाते हुए वे अपमानपूर्वक उन्हें लाँघकर शीघ्रता के साथ आगे बढ़ गये। इन्द्र के इस व्यवहार से वालखिल्य मुनियों को बड़ा रोष हुआ। उनके हृदय में भारी क्रोध का उदय हो गया। अतः उन्होंने उस समय एक ऐसे महान कर्म का आरम्भ किया, जिसका परिणाम इन्द्र के लिये भयंकर था। ब्राह्मणो ! वे उत्तम तपस्वी वालखिल्य मन में जो कामना रखकर छोटे-बड़े मन्त्रों द्वारा विधिपूर्वक अग्नि में आहुति देते थे, वह बताता हूँ, सुनिये। संयमपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले वे महर्षि यह संकल्प करते थे कि–‘सम्पूर्ण देवताओं के लिये कोई दूसरा ही इन्द्र उत्पन्न हो, जो वर्तमान देवराज के लिये यदायक, इच्छानुसार पराक्रम करने वाला और अपनी रूचि के अनुसार चलने की शक्ति रखने वाला हो। ‘शौर्य और वीर्य में इन्द्र से वह सौगुना बढ़कर हो। उसका वेग मन के समान तीव्र हो। हमारी तपस्या के फल से अब ऐसा ही वीर प्रकट हो जो इन्द्र के लिये भयंकर हो’। उनका यह संकल्प सुनकर सौ यज्ञों का अनुष्ठानपूर्ण करने वाले देवराज इन्द्र को बड़ा संताप हुआ और वे कठोर व्रत का पालन करने वाले कश्यपजी की शरण में गये। देवराज इन्द्र के मुख से उनका संकल्प सुनकर प्रजापति कश्यप वालखिल्यों के पास गये और उनसे उस कर्म की सिद्धि के सम्बन्ध में प्रश्न किया। सत्यवादी महर्षि वालखिल्यों ने ‘हाँ ऐसी ही बात है’ कहकर अपने कर्म की सिद्धि का प्रतिपादन किया। तब प्रजापति कश्यप ने उन्हें सान्त्वनापूर्वक समझाते हुए कहा-।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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