"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-50": अवतरणों में अंतर

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==पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==  
==पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==  
<h4 style="text-align:center;">श्राद्धविधान आदि का वर्णन,दान की त्रिविधता से उसके फल कीभी त्रिविधता का उल्लेख,दान के पॉंच फल,नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन</h4>
<h4 style="text-align:center;">श्राद्धविधान आदि का वर्णन,दान की त्रिविधता से उसके फल कीभी त्रिविधता का उल्लेख,दान के पॉंच फल,नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन</h4>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-50 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-50 का हिन्दी अनुवाद</div>


उमा ने पूछा- देव! पितृमेध (श्राद्ध) कैसे किया जाता है? यह मुझे बताने की कृपा करें। सम्पूर्ण सम्पदाओं के दाता पितर सभी के लिये पूजनीय होते हैं। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! मैं पितृमेध का यथावतरूप से वर्णन करता हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। देश, काल, विधान तथा क्रिया के शुभाशुभ फल का भी वर्णन करूँगा। सभी लोकों में पितर पूजनीय होते हैं। वे देवताओं के भी देवता हैं। उनका स्वरूप शुद्ध, निर्मल एवं पवित्र है। वे दक्षिण दिशा में निवास करते हैं। शुभेक्षणे! जैसे भूमि पर रहने वाले सभी प्राणी वर्षा की बाट जोहते रहते हैं, उसी प्रकार पितृलोक में रहने वाले पितर श्राद्ध की प्रतीक्षा करते रहते हैं। श्राद्ध के लिये पवित्र देश हैं- कुरूक्षेत्र, गया, गंगा, सरस्वती, प्रभास और पुष्कर- इन तीर्थस्थानों में दिया गया श्राद्ध का दान महान् फलदायक होता है। तीर्थ, पवित्र नदियाँ, एकान्त वन तथा नदियों के तट- ये श्राद्ध के लिये प्रशंसित देश हैं। श्राद्ध-कर्म में माघ और भाद्रपदमास प्रशंसित हैं। दोनों पक्षों में पूर्वपक्ष (शुक्ल) की अपेक्षा कृष्णपक्ष उत्तम बताया जाता है। अमावास्या, त्रयोदशी, नवमी और प्रतिपदा- इन तिथियों में यहाँ श्राद्ध; का दान करने से पितृगण संतुष्ट होते हैं। विद्वान् पुरूष को चाहिये कि पूर्वान्ह में, शुक्ल पक्ष में, रात्रि में अपने जन्म के दिन में और युग्म दिनों में श्राद्ध न करे। यह मैंने श्राद्ध का प्रशस्त समय बताया है। जिस दिन सुपात्र ब्राह्मण का दर्शन हो, वह भी श्राद्ध का उत्तम समय माना गया है। श्राद्ध में अपांक्तेय ब्राह्मणों का त्याग और पंक्तिपावन ब्राह्मणों को ग्रहण करना चाहिये। यदि कोई श्राद्ध में पापिष्ठों को भोजन कराता है तो वह नरक में पड़ता है। शुभे! जो सदाचार, शास्त्रज्ञान और उत्तम कुल से सम्पन्न, सपत्नीक तथा सद्गुणी हों, ऐसे श्रोत्रिय ब्राह्मणों को तुम श्राद्ध के योग्य समझो। श्राद्ध में ब्राह्मणों की संख्या विषम होनी चाहिये। विद्वान् पुरूष इन ब्राह्मणों को श्राद्ध के पहले ही दिन अथवा श्राद्ध के ही दिन प्रातःकाल निमन्त्रण दे। तत्पश्चात् विधिपूर्वक श्राद्धकर्म आरम्भ करे। श्राद्ध में तीन वस्तुएँ पवित्र हैं- दौहित्र, कुतपकाल (दिन के पन्द्रह भाग में से आठवाँ भाग) तथा तिल। इस कार्य में तीन गुणों की प्रशंसा की जाती है। पवित्रता, क्रोधहीनता और अत्वरा (जल्दीबाजी न करना)। कुतप, खड्गपात्र, कुशा, दर्भ, तिल, मधु, कालशाक और गजच्छाया- ये वस्तुएँ श्राद्धकर्म में पवित्र मानी गयी हैं। श्राद्ध के स्थान में चारों ओर अनेक वर्णवाले तिल बिखेरने चाहिये। शोभने! तिलों से अशुद्ध और अपवित्र स्थान शुद्ध हो जाता है। श्राद्ध में नीला और गेरूआ वस्त्र धारण करने वाले, विभिन्न वर्णवाले, नये घाववाले, किसी अंग से हीन और अपित्र मनुष्य को दूर से ही त्याग देना चाहिये। श्राद्ध की रसोई तैयार करके ब्राह्मणों की पूजा करे। हजामत बनवाकर सिर से नहाये हुए उन ब्राह्मणों को क्रमशः आसन पर बिठाकर सुगन्ध, माला, आभूषणों तथा पुष्पहारों से विभूषित करे। अलंकृत होकर बैठे हुए उन ब्राह्मणों को यह निवेदन करे कि अब मैं पिण्डदान करूँगा। तदनन्तर दक्षिणाभिमुख कुश बिछाकर उनके समीप अग्नि प्रज्वलित करके उसमें श्राद्धान्न की आहुति दे (आहुति के मन्त्र इस प्रकार हैं- अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा। सोमाय पितृमते स्वाहा)। इस प्रकार अग्नि और सोम के लिये आहुति देकर उनके समीप पितरों के निमित्त होम करे तथा दक्षिणाभिमुख हो अपसव्य होकर अर्थात् जनेऊ को दाहिने कंधे पर रखकर पितरों के नाम और गोत्र का उच्चारण करते हुए कुशों पर तीन पिण्ड दे।
उमा ने पूछा- देव! पितृमेध (श्राद्ध) कैसे किया जाता है? यह मुझे बताने की कृपा करें। सम्पूर्ण सम्पदाओं के दाता पितर सभी के लिये पूजनीय होते हैं। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! मैं पितृमेध का यथावतरूप से वर्णन करता हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। देश, काल, विधान तथा क्रिया के शुभाशुभ फल का भी वर्णन करूँगा। सभी लोकों में पितर पूजनीय होते हैं। वे देवताओं के भी देवता हैं। उनका स्वरूप शुद्ध, निर्मल एवं पवित्र है। वे दक्षिण दिशा में निवास करते हैं। शुभेक्षणे! जैसे भूमि पर रहने वाले सभी प्राणी वर्षा की बाट जोहते रहते हैं, उसी प्रकार पितृलोक में रहने वाले पितर श्राद्ध की प्रतीक्षा करते रहते हैं। श्राद्ध के लिये पवित्र देश हैं- कुरूक्षेत्र, गया, गंगा, सरस्वती, प्रभास और पुष्कर- इन तीर्थस्थानों में दिया गया श्राद्ध का दान महान् फलदायक होता है। तीर्थ, पवित्र नदियाँ, एकान्त वन तथा नदियों के तट- ये श्राद्ध के लिये प्रशंसित देश हैं। श्राद्ध-कर्म में माघ और भाद्रपदमास प्रशंसित हैं। दोनों पक्षों में पूर्वपक्ष (शुक्ल) की अपेक्षा कृष्णपक्ष उत्तम बताया जाता है। अमावास्या, त्रयोदशी, नवमी और प्रतिपदा- इन तिथियों में यहाँ श्राद्ध; का दान करने से पितृगण संतुष्ट होते हैं। विद्वान् पुरूष को चाहिये कि पूर्वान्ह में, शुक्ल पक्ष में, रात्रि में अपने जन्म के दिन में और युग्म दिनों में श्राद्ध न करे। यह मैंने श्राद्ध का प्रशस्त समय बताया है। जिस दिन सुपात्र ब्राह्मण का दर्शन हो, वह भी श्राद्ध का उत्तम समय माना गया है। श्राद्ध में अपांक्तेय ब्राह्मणों का त्याग और पंक्तिपावन ब्राह्मणों को ग्रहण करना चाहिये। यदि कोई श्राद्ध में पापिष्ठों को भोजन कराता है तो वह नरक में पड़ता है। शुभे! जो सदाचार, शास्त्रज्ञान और उत्तम कुल से सम्पन्न, सपत्नीक तथा सद्गुणी हों, ऐसे श्रोत्रिय ब्राह्मणों को तुम श्राद्ध के योग्य समझो। श्राद्ध में ब्राह्मणों की संख्या विषम होनी चाहिये। विद्वान् पुरूष इन ब्राह्मणों को श्राद्ध के पहले ही दिन अथवा श्राद्ध के ही दिन प्रातःकाल निमन्त्रण दे। तत्पश्चात् विधिपूर्वक श्राद्धकर्म आरम्भ करे। श्राद्ध में तीन वस्तुएँ पवित्र हैं- दौहित्र, कुतपकाल (दिन के पन्द्रह भाग में से आठवाँ भाग) तथा तिल। इस कार्य में तीन गुणों की प्रशंसा की जाती है। पवित्रता, क्रोधहीनता और अत्वरा (जल्दीबाजी न करना)। कुतप, खड्गपात्र, कुशा, दर्भ, तिल, मधु, कालशाक और गजच्छाया- ये वस्तुएँ श्राद्धकर्म में पवित्र मानी गयी हैं। श्राद्ध के स्थान में चारों ओर अनेक वर्णवाले तिल बिखेरने चाहिये। शोभने! तिलों से अशुद्ध और अपवित्र स्थान शुद्ध हो जाता है। श्राद्ध में नीला और गेरूआ वस्त्र धारण करने वाले, विभिन्न वर्णवाले, नये घाववाले, किसी अंग से हीन और अपित्र मनुष्य को दूर से ही त्याग देना चाहिये। श्राद्ध की रसोई तैयार करके ब्राह्मणों की पूजा करे। हजामत बनवाकर सिर से नहाये हुए उन ब्राह्मणों को क्रमशः आसन पर बिठाकर सुगन्ध, माला, आभूषणों तथा पुष्पहारों से विभूषित करे। अलंकृत होकर बैठे हुए उन ब्राह्मणों को यह निवेदन करे कि अब मैं पिण्डदान करूँगा। तदनन्तर दक्षिणाभिमुख कुश बिछाकर उनके समीप अग्नि प्रज्वलित करके उसमें श्राद्धान्न की आहुति दे (आहुति के मन्त्र इस प्रकार हैं- अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा। सोमाय पितृमते स्वाहा)। इस प्रकार अग्नि और सोम के लिये आहुति देकर उनके समीप पितरों के निमित्त होम करे तथा दक्षिणाभिमुख हो अपसव्य होकर अर्थात् जनेऊ को दाहिने कंधे पर रखकर पितरों के नाम और गोत्र का उच्चारण करते हुए कुशों पर तीन पिण्ड दे।

०७:४१, २७ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

श्राद्धविधान आदि का वर्णन,दान की त्रिविधता से उसके फल कीभी त्रिविधता का उल्लेख,दान के पॉंच फल,नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-50 का हिन्दी अनुवाद

उमा ने पूछा- देव! पितृमेध (श्राद्ध) कैसे किया जाता है? यह मुझे बताने की कृपा करें। सम्पूर्ण सम्पदाओं के दाता पितर सभी के लिये पूजनीय होते हैं। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! मैं पितृमेध का यथावतरूप से वर्णन करता हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। देश, काल, विधान तथा क्रिया के शुभाशुभ फल का भी वर्णन करूँगा। सभी लोकों में पितर पूजनीय होते हैं। वे देवताओं के भी देवता हैं। उनका स्वरूप शुद्ध, निर्मल एवं पवित्र है। वे दक्षिण दिशा में निवास करते हैं। शुभेक्षणे! जैसे भूमि पर रहने वाले सभी प्राणी वर्षा की बाट जोहते रहते हैं, उसी प्रकार पितृलोक में रहने वाले पितर श्राद्ध की प्रतीक्षा करते रहते हैं। श्राद्ध के लिये पवित्र देश हैं- कुरूक्षेत्र, गया, गंगा, सरस्वती, प्रभास और पुष्कर- इन तीर्थस्थानों में दिया गया श्राद्ध का दान महान् फलदायक होता है। तीर्थ, पवित्र नदियाँ, एकान्त वन तथा नदियों के तट- ये श्राद्ध के लिये प्रशंसित देश हैं। श्राद्ध-कर्म में माघ और भाद्रपदमास प्रशंसित हैं। दोनों पक्षों में पूर्वपक्ष (शुक्ल) की अपेक्षा कृष्णपक्ष उत्तम बताया जाता है। अमावास्या, त्रयोदशी, नवमी और प्रतिपदा- इन तिथियों में यहाँ श्राद्ध; का दान करने से पितृगण संतुष्ट होते हैं। विद्वान् पुरूष को चाहिये कि पूर्वान्ह में, शुक्ल पक्ष में, रात्रि में अपने जन्म के दिन में और युग्म दिनों में श्राद्ध न करे। यह मैंने श्राद्ध का प्रशस्त समय बताया है। जिस दिन सुपात्र ब्राह्मण का दर्शन हो, वह भी श्राद्ध का उत्तम समय माना गया है। श्राद्ध में अपांक्तेय ब्राह्मणों का त्याग और पंक्तिपावन ब्राह्मणों को ग्रहण करना चाहिये। यदि कोई श्राद्ध में पापिष्ठों को भोजन कराता है तो वह नरक में पड़ता है। शुभे! जो सदाचार, शास्त्रज्ञान और उत्तम कुल से सम्पन्न, सपत्नीक तथा सद्गुणी हों, ऐसे श्रोत्रिय ब्राह्मणों को तुम श्राद्ध के योग्य समझो। श्राद्ध में ब्राह्मणों की संख्या विषम होनी चाहिये। विद्वान् पुरूष इन ब्राह्मणों को श्राद्ध के पहले ही दिन अथवा श्राद्ध के ही दिन प्रातःकाल निमन्त्रण दे। तत्पश्चात् विधिपूर्वक श्राद्धकर्म आरम्भ करे। श्राद्ध में तीन वस्तुएँ पवित्र हैं- दौहित्र, कुतपकाल (दिन के पन्द्रह भाग में से आठवाँ भाग) तथा तिल। इस कार्य में तीन गुणों की प्रशंसा की जाती है। पवित्रता, क्रोधहीनता और अत्वरा (जल्दीबाजी न करना)। कुतप, खड्गपात्र, कुशा, दर्भ, तिल, मधु, कालशाक और गजच्छाया- ये वस्तुएँ श्राद्धकर्म में पवित्र मानी गयी हैं। श्राद्ध के स्थान में चारों ओर अनेक वर्णवाले तिल बिखेरने चाहिये। शोभने! तिलों से अशुद्ध और अपवित्र स्थान शुद्ध हो जाता है। श्राद्ध में नीला और गेरूआ वस्त्र धारण करने वाले, विभिन्न वर्णवाले, नये घाववाले, किसी अंग से हीन और अपित्र मनुष्य को दूर से ही त्याग देना चाहिये। श्राद्ध की रसोई तैयार करके ब्राह्मणों की पूजा करे। हजामत बनवाकर सिर से नहाये हुए उन ब्राह्मणों को क्रमशः आसन पर बिठाकर सुगन्ध, माला, आभूषणों तथा पुष्पहारों से विभूषित करे। अलंकृत होकर बैठे हुए उन ब्राह्मणों को यह निवेदन करे कि अब मैं पिण्डदान करूँगा। तदनन्तर दक्षिणाभिमुख कुश बिछाकर उनके समीप अग्नि प्रज्वलित करके उसमें श्राद्धान्न की आहुति दे (आहुति के मन्त्र इस प्रकार हैं- अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा। सोमाय पितृमते स्वाहा)। इस प्रकार अग्नि और सोम के लिये आहुति देकर उनके समीप पितरों के निमित्त होम करे तथा दक्षिणाभिमुख हो अपसव्य होकर अर्थात् जनेऊ को दाहिने कंधे पर रखकर पितरों के नाम और गोत्र का उच्चारण करते हुए कुशों पर तीन पिण्ड दे।


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