"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-58": अवतरणों में अंतर
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== | ==पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)== | ||
<h4 style="text-align:center;">मोक्ष धर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादन,मोक्ष साधक ज्ञानकी प्राप्ति का उपाय और मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता</h4> | <h4 style="text-align:center;">मोक्ष धर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादन,मोक्ष साधक ज्ञानकी प्राप्ति का उपाय और मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता</h4> | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-58 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
जैसे महासागर में दो काठ इधर-उधर से आकर मिल जाते हैं और मिलकर फिर अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार जाति-भाइयों का समागम होता है। सब लोग अदृश्य स्थान से आये थे और पुनः अदृश्य स्थान को चले गये। उनके प्रति स्नेह नहीं करना चाहिये, क्योंकि उनके साथ वियोग होना निश्चित था। कुटुम्ब, पुत्र, स्त्री, शरीर, धनसंचय, ऐश्वर्य और स्वस्थता- इनके प्रति विद्वान् पुरूष को आसक्त नहीं होना चाहिये। स्वर्ग में रहने वाले देवराज इन्द्र को भी केवल सुख-ही-सुख नहीं मिलता। वहाँ भी दुख अधिक और सुख बहुत कम है। किसी को भी न तो सदा दुख मिलता है और न सदा सुखी ही मिलता है। सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख आता रहता है। सारे संग्रहों का अन्त विनाश है, सारी उन्नतियों का अन्त पतन है, संयोग का अन्त वियोग है और जीवन का अन्त मरण है। उत्थान और पतन को स्वयं ही प्रत्यक्ष देखकर यह निश्चय करे कि यहाँ का सब कुछ अनित्य और दुखरूप है। धन के उपार्जन में दुख होता है, उपार्जित हुए धन की रक्षा में दुख होता है, धन के नाश और व्यय में भी दुख होता है, इस प्रकार दुख के भाजन बने हुए धन को धिक्कार है। धनवान् मनुष्य पर सदा पाँच शत्रु चोट करते रहते हैं- राजा, चोर, उत्तराधिकारी भाई-बन्धु, अन्यान्य प्राणी तथा क्षय। प्रिये! इस प्रकार तुम अर्थ को अनर्थ का मूल समझो। धनरहित पुरूष को अनर्थ बाधा नहीं देते हैं। धन की प्राप्ति महान् दुख है और अकिंचनता (निर्धनता) परम सुख है, क्योंकि जब धन पर उपद्रव आते हैं, तब निश्चय ही बड़ा दुख होता है। धन के लोभ से तृष्णा की कभी तृप्ति नहीं होती है। तृष्णा या लोभ को आश्रन्य मिल जाय तो प्रज्वलित अग्नि के समान उसकी वृद्धि होने लगती है। चारों समुद्र जिसकी मेखला है, उस सारी पृथ्वी को जीतकर भी मनुष्य संतुष्ट नहीं होता। वह फिर समुद्र के पार वाले देशों को भी जीतने की इच्छा करता है, इसमें संशय नहीं है। परिग्रह (संग्रह) से यहाँ कोई लाभ नहीं, क्योंकि परिग्रह दोष से भरा हुआ है। देवि! रेशम का कीड़ा परिग्रह से ही बन्धन को प्राप्त होता है। जो राजा अकेला ही समूची पृथ्वी का एकच्छत्र शासन करता है। वह भी किसी एक ही राष्ट्र में निवास करता है। उस राष्ट्र में भी किसी एक ही नगर में रहता है। उस नगर में भी किसी एक ही घर में उसका निवास होता है। उस घ्ज्ञर में भी उसके लिये एक ही कमरा नियत होता है। उस कमरे में भी उसके लिये एक ही शय्या होती है, जिस पर वह रात में सोता है। उस शय्या का भी आधा ही भाग उसके पल्ले पड़ता है। उसका आधा भाग उसकी रानी के काम आता है। इस प्रसंग से वह अपने लिये थोड़े से ही भाग का उपयोग कर पाता है। तो भी वह मूर्ख गवाँर सारे भूमण्डल को अपना ही समझता है और सर्वत्र अपना ही बल देखता है। इस प्रकार सभी वस्तुओं के उपयोगों में उसका थोड़ा सा ही प्रयोजन होता है। प्रतिदिन सेरभर चावल से ही समस्त देहधारियों की प्राणयात्रा का निर्वाह होता है। उससे अधिक भोग दुख और संताप का कारण होता है। | जैसे महासागर में दो काठ इधर-उधर से आकर मिल जाते हैं और मिलकर फिर अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार जाति-भाइयों का समागम होता है। सब लोग अदृश्य स्थान से आये थे और पुनः अदृश्य स्थान को चले गये। उनके प्रति स्नेह नहीं करना चाहिये, क्योंकि उनके साथ वियोग होना निश्चित था। कुटुम्ब, पुत्र, स्त्री, शरीर, धनसंचय, ऐश्वर्य और स्वस्थता- इनके प्रति विद्वान् पुरूष को आसक्त नहीं होना चाहिये। स्वर्ग में रहने वाले देवराज इन्द्र को भी केवल सुख-ही-सुख नहीं मिलता। वहाँ भी दुख अधिक और सुख बहुत कम है। किसी को भी न तो सदा दुख मिलता है और न सदा सुखी ही मिलता है। सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख आता रहता है। सारे संग्रहों का अन्त विनाश है, सारी उन्नतियों का अन्त पतन है, संयोग का अन्त वियोग है और जीवन का अन्त मरण है। उत्थान और पतन को स्वयं ही प्रत्यक्ष देखकर यह निश्चय करे कि यहाँ का सब कुछ अनित्य और दुखरूप है। धन के उपार्जन में दुख होता है, उपार्जित हुए धन की रक्षा में दुख होता है, धन के नाश और व्यय में भी दुख होता है, इस प्रकार दुख के भाजन बने हुए धन को धिक्कार है। धनवान् मनुष्य पर सदा पाँच शत्रु चोट करते रहते हैं- राजा, चोर, उत्तराधिकारी भाई-बन्धु, अन्यान्य प्राणी तथा क्षय। प्रिये! इस प्रकार तुम अर्थ को अनर्थ का मूल समझो। धनरहित पुरूष को अनर्थ बाधा नहीं देते हैं। धन की प्राप्ति महान् दुख है और अकिंचनता (निर्धनता) परम सुख है, क्योंकि जब धन पर उपद्रव आते हैं, तब निश्चय ही बड़ा दुख होता है। धन के लोभ से तृष्णा की कभी तृप्ति नहीं होती है। तृष्णा या लोभ को आश्रन्य मिल जाय तो प्रज्वलित अग्नि के समान उसकी वृद्धि होने लगती है। चारों समुद्र जिसकी मेखला है, उस सारी पृथ्वी को जीतकर भी मनुष्य संतुष्ट नहीं होता। वह फिर समुद्र के पार वाले देशों को भी जीतने की इच्छा करता है, इसमें संशय नहीं है। परिग्रह (संग्रह) से यहाँ कोई लाभ नहीं, क्योंकि परिग्रह दोष से भरा हुआ है। देवि! रेशम का कीड़ा परिग्रह से ही बन्धन को प्राप्त होता है। जो राजा अकेला ही समूची पृथ्वी का एकच्छत्र शासन करता है। वह भी किसी एक ही राष्ट्र में निवास करता है। उस राष्ट्र में भी किसी एक ही नगर में रहता है। उस नगर में भी किसी एक ही घर में उसका निवास होता है। उस घ्ज्ञर में भी उसके लिये एक ही कमरा नियत होता है। उस कमरे में भी उसके लिये एक ही शय्या होती है, जिस पर वह रात में सोता है। उस शय्या का भी आधा ही भाग उसके पल्ले पड़ता है। उसका आधा भाग उसकी रानी के काम आता है। इस प्रसंग से वह अपने लिये थोड़े से ही भाग का उपयोग कर पाता है। तो भी वह मूर्ख गवाँर सारे भूमण्डल को अपना ही समझता है और सर्वत्र अपना ही बल देखता है। इस प्रकार सभी वस्तुओं के उपयोगों में उसका थोड़ा सा ही प्रयोजन होता है। प्रतिदिन सेरभर चावल से ही समस्त देहधारियों की प्राणयात्रा का निर्वाह होता है। उससे अधिक भोग दुख और संताप का कारण होता है। |
०७:४६, २७ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
मोक्ष धर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादन,मोक्ष साधक ज्ञानकी प्राप्ति का उपाय और मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
जैसे महासागर में दो काठ इधर-उधर से आकर मिल जाते हैं और मिलकर फिर अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार जाति-भाइयों का समागम होता है। सब लोग अदृश्य स्थान से आये थे और पुनः अदृश्य स्थान को चले गये। उनके प्रति स्नेह नहीं करना चाहिये, क्योंकि उनके साथ वियोग होना निश्चित था। कुटुम्ब, पुत्र, स्त्री, शरीर, धनसंचय, ऐश्वर्य और स्वस्थता- इनके प्रति विद्वान् पुरूष को आसक्त नहीं होना चाहिये। स्वर्ग में रहने वाले देवराज इन्द्र को भी केवल सुख-ही-सुख नहीं मिलता। वहाँ भी दुख अधिक और सुख बहुत कम है। किसी को भी न तो सदा दुख मिलता है और न सदा सुखी ही मिलता है। सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख आता रहता है। सारे संग्रहों का अन्त विनाश है, सारी उन्नतियों का अन्त पतन है, संयोग का अन्त वियोग है और जीवन का अन्त मरण है। उत्थान और पतन को स्वयं ही प्रत्यक्ष देखकर यह निश्चय करे कि यहाँ का सब कुछ अनित्य और दुखरूप है। धन के उपार्जन में दुख होता है, उपार्जित हुए धन की रक्षा में दुख होता है, धन के नाश और व्यय में भी दुख होता है, इस प्रकार दुख के भाजन बने हुए धन को धिक्कार है। धनवान् मनुष्य पर सदा पाँच शत्रु चोट करते रहते हैं- राजा, चोर, उत्तराधिकारी भाई-बन्धु, अन्यान्य प्राणी तथा क्षय। प्रिये! इस प्रकार तुम अर्थ को अनर्थ का मूल समझो। धनरहित पुरूष को अनर्थ बाधा नहीं देते हैं। धन की प्राप्ति महान् दुख है और अकिंचनता (निर्धनता) परम सुख है, क्योंकि जब धन पर उपद्रव आते हैं, तब निश्चय ही बड़ा दुख होता है। धन के लोभ से तृष्णा की कभी तृप्ति नहीं होती है। तृष्णा या लोभ को आश्रन्य मिल जाय तो प्रज्वलित अग्नि के समान उसकी वृद्धि होने लगती है। चारों समुद्र जिसकी मेखला है, उस सारी पृथ्वी को जीतकर भी मनुष्य संतुष्ट नहीं होता। वह फिर समुद्र के पार वाले देशों को भी जीतने की इच्छा करता है, इसमें संशय नहीं है। परिग्रह (संग्रह) से यहाँ कोई लाभ नहीं, क्योंकि परिग्रह दोष से भरा हुआ है। देवि! रेशम का कीड़ा परिग्रह से ही बन्धन को प्राप्त होता है। जो राजा अकेला ही समूची पृथ्वी का एकच्छत्र शासन करता है। वह भी किसी एक ही राष्ट्र में निवास करता है। उस राष्ट्र में भी किसी एक ही नगर में रहता है। उस नगर में भी किसी एक ही घर में उसका निवास होता है। उस घ्ज्ञर में भी उसके लिये एक ही कमरा नियत होता है। उस कमरे में भी उसके लिये एक ही शय्या होती है, जिस पर वह रात में सोता है। उस शय्या का भी आधा ही भाग उसके पल्ले पड़ता है। उसका आधा भाग उसकी रानी के काम आता है। इस प्रसंग से वह अपने लिये थोड़े से ही भाग का उपयोग कर पाता है। तो भी वह मूर्ख गवाँर सारे भूमण्डल को अपना ही समझता है और सर्वत्र अपना ही बल देखता है। इस प्रकार सभी वस्तुओं के उपयोगों में उसका थोड़ा सा ही प्रयोजन होता है। प्रतिदिन सेरभर चावल से ही समस्त देहधारियों की प्राणयात्रा का निर्वाह होता है। उससे अधिक भोग दुख और संताप का कारण होता है।
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