"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 192 श्लोक 43-63": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: द्विनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 43-63 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: द्विनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 43-63 का हिन्दी अनुवाद</div>


कर्ण ! कर्ण ! महाधनुर्धर कृपाचार्य ! और दुर्योधन ! अब तुम लोग स्‍वयं ही युद्ध में विजय पाने के लिये प्रयत्‍न करो, यही मैं तुमसे बारंबार कहते हूं । पाण्‍डवों से तुम लोगों का कल्‍याण हो । अब मैं अस्‍त्र-शस्‍त्रों का त्‍याग कर रहा हूं। महाराज ! यह कहकर उन्‍होनें वहां अश्‍वत्‍थामा नाम ले-लेकर पुकारा । फिर सारे अस्‍त्र-शस्‍त्रों को रण भूमि में फेंक-कर वे रथ के पिछले भाग में जा बैठे । फिर उन्‍होनें सम्‍पूर्ण भूतों को अभयदान दे दिया और समाधि लगा ली। उन पर प्रहार करने का वह अच्‍छा अवसर हाथ लगा जान प्रतापी धृष्‍टधुम्न बाण सहित अपने भयंकर धनुष को रथ पर ही रखकर तलवार हाथ में ले उस रथ से उछलकर सहासा द्रोणाचार्य के पास जा पहुंच। उस अवस्‍था में द्रोणाचार्य को धृष्‍टधुम्न के अधीन हुआ देख मनुष्‍य तथा अन्‍य प्राणी भी हाहाकार कर उठे। वहां सबने भारी हाहाकार मचाया और सभी कहने लगे अहो ! धिक्‍कार है । इधर आचार्य द्रोण भी शस्‍त्रों का परित्‍याग करके परम ज्ञानस्‍वरूप में स्थित हो गये। वे महातपस्‍वी द्रोण पूर्वोक्‍त बात कहकर योग का आश्रय ले ज्‍योति:स्‍वरूप परब्रह्मा से अभिन्‍नता का अनुभव करते हुए मन-ही-मन सर्वोत्‍कृष्‍ट पुराण पुरूष भगवान् विष्‍णु का ध्‍यान करने लगे। उन्‍होंने मुंह को कुछ उपर उठाकर छाती को आगे की ओर स्थिर किया । फिर विशुद्ध सत्‍व में स्थित हो नेत्र बंद करके हृदय में धारण को दृढ़तापूर्वक धारण किया । साथ ही 'ओम्' इस एकाक्षर ब्रहृा का जप करते हुए वे महातपस्‍वी आचार्य द्रोण प्रणव के अर्थभूत देव देवेश्‍वर अविनाशी परम प्रभु परमात्‍मा का चिंतन करते-करते ज्‍योति:स्‍वरूप हो साक्षात् उस ब्रह्मालोक को चले गये, जहां पहुंचना बड़े-बड़े संतो के लिये भी दुर्लभ है। आचार्य द्रोण के उस प्रकार उत्‍क्रमण करने पर हमें ऐसा भाग होने लग, मानों आकाश में दो सूर्य उदित हो गये हों। सूर्य के समान तेजस्‍वी द्रोणाचार्यरूपी दिवाकर के उदित होने पर सारा आकाश तेज से परिपूर्ण हो उस ज्‍योति के साथ एकाग्र-सा हो रहा था। पलक मारते-मारते वह ज्‍योति आकाश में जाकर अदृश्‍य हो गयी। द्रोणाचार्य के ब्रहृालोक चले जाने और धृष्‍टधुम्न के अपमान से मोहित हो जाने पर हर्षोल्‍लास से भरे हुए देवताओं का कोलाहल सुनायी देने लगा। उस समय मैं, कुन्‍ती पुत्र अर्जुन, शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य, वृष्णिवंशी भगवान् श्रीकृष्‍ण तथा धर्मपुत्र पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर- इन पांच मनुष्‍यों ने ही योग युक्‍त महात्‍मा द्रोण को परमधाम की ओर जाते देखा था। महाराज ! अन्‍य सब लोगों ने योगयुक्‍त हो उर्ध्‍व गति को जाते हुए बुद्धिमान् द्रोणाचार्य की महिमा का साक्षात्‍कार नहीं किया। ब्रहृालोक महान्, दिव्‍य, देवगुहृा, उत्‍कृष्‍ट तथा परम गतिस्‍वरूप है । शत्रुदमन आचार्य द्रोण योग का आश्रय लेकर श्रेष्‍ठ महर्षियों के साथ उसी ब्रहृालोक को प्राप्‍त हुए हैं । अज्ञानी मनुष्‍यों ने उन्‍हें वहां जाते समय नहीं देखा था। उनका सारा शरीर बाण समूहों से क्षत-विक्षत हो गया था । उससे रक्‍त की धारा बह रही थी और वे अपना अस्‍त्र-शस्‍त्र नीचे डाल चुके थे । उस दशा में धृष्‍टधुम्न ने उनके शरीर का स्‍पर्श किया । उस समय सारे प्राणी उन्‍हें धिक्‍कार रहे थे। देहधारी द्रोण के शरीर से प्राण निकल गये थे, अत: वे कुछ भी बोल नहीं रहे थे । इस अवस्‍था में उनके मस्‍तक का बाल पकड़कर धृष्‍टधुम्न ने तलवार से उनके सिर को धड़ से काट लिया। इस प्रकार द्रोणचार्य को मार गिराने पर धृष्‍टधुम्न को महान् हर्ष हुआ ओर वे रणभूमि में तलवार घुमाते हुए जोर-जोर से सिहंनाद करने लगे।  
कर्ण ! कर्ण ! महाधनुर्धर कृपाचार्य ! और दुर्योधन ! अब तुम लोग स्‍वयं ही युद्ध में विजय पाने के लिये प्रयत्‍न करो, यही मैं तुमसे बारंबार कहते हूं । पाण्‍डवों से तुम लोगों का कल्‍याण हो । अब मैं अस्‍त्र-शस्‍त्रों का त्‍याग कर रहा हूं। महाराज ! यह कहकर उन्‍होनें वहां अश्‍वत्‍थामा नाम ले-लेकर पुकारा । फिर सारे अस्‍त्र-शस्‍त्रों को रण भूमि में फेंक-कर वे रथ के पिछले भाग में जा बैठे । फिर उन्‍होनें सम्‍पूर्ण भूतों को अभयदान दे दिया और समाधि लगा ली। उन पर प्रहार करने का वह अच्‍छा अवसर हाथ लगा जान प्रतापी धृष्‍टधुम्न बाण सहित अपने भयंकर धनुष को रथ पर ही रखकर तलवार हाथ में ले उस रथ से उछलकर सहासा द्रोणाचार्य के पास जा पहुंच। उस अवस्‍था में द्रोणाचार्य को धृष्‍टधुम्न के अधीन हुआ देख मनुष्‍य तथा अन्‍य प्राणी भी हाहाकार कर उठे। वहां सबने भारी हाहाकार मचाया और सभी कहने लगे अहो ! धिक्‍कार है । इधर आचार्य द्रोण भी शस्‍त्रों का परित्‍याग करके परम ज्ञानस्‍वरूप में स्थित हो गये। वे महातपस्‍वी द्रोण पूर्वोक्‍त बात कहकर योग का आश्रय ले ज्‍योति:स्‍वरूप परब्रह्मा से अभिन्‍नता का अनुभव करते हुए मन-ही-मन सर्वोत्‍कृष्‍ट पुराण पुरूष भगवान् विष्‍णु का ध्‍यान करने लगे। उन्‍होंने मुंह को कुछ उपर उठाकर छाती को आगे की ओर स्थिर किया । फिर विशुद्ध सत्‍व में स्थित हो नेत्र बंद करके हृदय में धारण को दृढ़तापूर्वक धारण किया । साथ ही 'ओम्' इस एकाक्षर ब्रहृा का जप करते हुए वे महातपस्‍वी आचार्य द्रोण प्रणव के अर्थभूत देव देवेश्‍वर अविनाशी परम प्रभु परमात्‍मा का चिंतन करते-करते ज्‍योति:स्‍वरूप हो साक्षात् उस ब्रह्मालोक को चले गये, जहां पहुंचना बड़े-बड़े संतो के लिये भी दुर्लभ है। आचार्य द्रोण के उस प्रकार उत्‍क्रमण करने पर हमें ऐसा भाग होने लग, मानों आकाश में दो सूर्य उदित हो गये हों। सूर्य के समान तेजस्‍वी द्रोणाचार्यरूपी दिवाकर के उदित होने पर सारा आकाश तेज से परिपूर्ण हो उस ज्‍योति के साथ एकाग्र-सा हो रहा था। पलक मारते-मारते वह ज्‍योति आकाश में जाकर अदृश्‍य हो गयी। द्रोणाचार्य के ब्रहृालोक चले जाने और धृष्‍टधुम्न के अपमान से मोहित हो जाने पर हर्षोल्‍लास से भरे हुए देवताओं का कोलाहल सुनायी देने लगा। उस समय मैं, कुन्‍ती पुत्र अर्जुन, शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य, वृष्णिवंशी भगवान् श्रीकृष्‍ण तथा धर्मपुत्र पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर- इन पांच मनुष्‍यों ने ही योग युक्‍त महात्‍मा द्रोण को परमधाम की ओर जाते देखा था। महाराज ! अन्‍य सब लोगों ने योगयुक्‍त हो उर्ध्‍व गति को जाते हुए बुद्धिमान द्रोणाचार्य की महिमा का साक्षात्‍कार नहीं किया। ब्रहृालोक महान्, दिव्‍य, देवगुहृा, उत्‍कृष्‍ट तथा परम गतिस्‍वरूप है । शत्रुदमन आचार्य द्रोण योग का आश्रय लेकर श्रेष्‍ठ महर्षियों के साथ उसी ब्रहृालोक को प्राप्‍त हुए हैं । अज्ञानी मनुष्‍यों ने उन्‍हें वहां जाते समय नहीं देखा था। उनका सारा शरीर बाण समूहों से क्षत-विक्षत हो गया था । उससे रक्‍त की धारा बह रही थी और वे अपना अस्‍त्र-शस्‍त्र नीचे डाल चुके थे । उस दशा में धृष्‍टधुम्न ने उनके शरीर का स्‍पर्श किया । उस समय सारे प्राणी उन्‍हें धिक्‍कार रहे थे। देहधारी द्रोण के शरीर से प्राण निकल गये थे, अत: वे कुछ भी बोल नहीं रहे थे । इस अवस्‍था में उनके मस्‍तक का बाल पकड़कर धृष्‍टधुम्न ने तलवार से उनके सिर को धड़ से काट लिया। इस प्रकार द्रोणचार्य को मार गिराने पर धृष्‍टधुम्न को महान् हर्ष हुआ ओर वे रणभूमि में तलवार घुमाते हुए जोर-जोर से सिहंनाद करने लगे।  


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११:५६, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण

द्विनवत्‍यधिकशततम (192) अध्याय: द्रोणपर्व (द्रोणवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: द्विनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 43-63 का हिन्दी अनुवाद

कर्ण ! कर्ण ! महाधनुर्धर कृपाचार्य ! और दुर्योधन ! अब तुम लोग स्‍वयं ही युद्ध में विजय पाने के लिये प्रयत्‍न करो, यही मैं तुमसे बारंबार कहते हूं । पाण्‍डवों से तुम लोगों का कल्‍याण हो । अब मैं अस्‍त्र-शस्‍त्रों का त्‍याग कर रहा हूं। महाराज ! यह कहकर उन्‍होनें वहां अश्‍वत्‍थामा नाम ले-लेकर पुकारा । फिर सारे अस्‍त्र-शस्‍त्रों को रण भूमि में फेंक-कर वे रथ के पिछले भाग में जा बैठे । फिर उन्‍होनें सम्‍पूर्ण भूतों को अभयदान दे दिया और समाधि लगा ली। उन पर प्रहार करने का वह अच्‍छा अवसर हाथ लगा जान प्रतापी धृष्‍टधुम्न बाण सहित अपने भयंकर धनुष को रथ पर ही रखकर तलवार हाथ में ले उस रथ से उछलकर सहासा द्रोणाचार्य के पास जा पहुंच। उस अवस्‍था में द्रोणाचार्य को धृष्‍टधुम्न के अधीन हुआ देख मनुष्‍य तथा अन्‍य प्राणी भी हाहाकार कर उठे। वहां सबने भारी हाहाकार मचाया और सभी कहने लगे अहो ! धिक्‍कार है । इधर आचार्य द्रोण भी शस्‍त्रों का परित्‍याग करके परम ज्ञानस्‍वरूप में स्थित हो गये। वे महातपस्‍वी द्रोण पूर्वोक्‍त बात कहकर योग का आश्रय ले ज्‍योति:स्‍वरूप परब्रह्मा से अभिन्‍नता का अनुभव करते हुए मन-ही-मन सर्वोत्‍कृष्‍ट पुराण पुरूष भगवान् विष्‍णु का ध्‍यान करने लगे। उन्‍होंने मुंह को कुछ उपर उठाकर छाती को आगे की ओर स्थिर किया । फिर विशुद्ध सत्‍व में स्थित हो नेत्र बंद करके हृदय में धारण को दृढ़तापूर्वक धारण किया । साथ ही 'ओम्' इस एकाक्षर ब्रहृा का जप करते हुए वे महातपस्‍वी आचार्य द्रोण प्रणव के अर्थभूत देव देवेश्‍वर अविनाशी परम प्रभु परमात्‍मा का चिंतन करते-करते ज्‍योति:स्‍वरूप हो साक्षात् उस ब्रह्मालोक को चले गये, जहां पहुंचना बड़े-बड़े संतो के लिये भी दुर्लभ है। आचार्य द्रोण के उस प्रकार उत्‍क्रमण करने पर हमें ऐसा भाग होने लग, मानों आकाश में दो सूर्य उदित हो गये हों। सूर्य के समान तेजस्‍वी द्रोणाचार्यरूपी दिवाकर के उदित होने पर सारा आकाश तेज से परिपूर्ण हो उस ज्‍योति के साथ एकाग्र-सा हो रहा था। पलक मारते-मारते वह ज्‍योति आकाश में जाकर अदृश्‍य हो गयी। द्रोणाचार्य के ब्रहृालोक चले जाने और धृष्‍टधुम्न के अपमान से मोहित हो जाने पर हर्षोल्‍लास से भरे हुए देवताओं का कोलाहल सुनायी देने लगा। उस समय मैं, कुन्‍ती पुत्र अर्जुन, शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य, वृष्णिवंशी भगवान् श्रीकृष्‍ण तथा धर्मपुत्र पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर- इन पांच मनुष्‍यों ने ही योग युक्‍त महात्‍मा द्रोण को परमधाम की ओर जाते देखा था। महाराज ! अन्‍य सब लोगों ने योगयुक्‍त हो उर्ध्‍व गति को जाते हुए बुद्धिमान द्रोणाचार्य की महिमा का साक्षात्‍कार नहीं किया। ब्रहृालोक महान्, दिव्‍य, देवगुहृा, उत्‍कृष्‍ट तथा परम गतिस्‍वरूप है । शत्रुदमन आचार्य द्रोण योग का आश्रय लेकर श्रेष्‍ठ महर्षियों के साथ उसी ब्रहृालोक को प्राप्‍त हुए हैं । अज्ञानी मनुष्‍यों ने उन्‍हें वहां जाते समय नहीं देखा था। उनका सारा शरीर बाण समूहों से क्षत-विक्षत हो गया था । उससे रक्‍त की धारा बह रही थी और वे अपना अस्‍त्र-शस्‍त्र नीचे डाल चुके थे । उस दशा में धृष्‍टधुम्न ने उनके शरीर का स्‍पर्श किया । उस समय सारे प्राणी उन्‍हें धिक्‍कार रहे थे। देहधारी द्रोण के शरीर से प्राण निकल गये थे, अत: वे कुछ भी बोल नहीं रहे थे । इस अवस्‍था में उनके मस्‍तक का बाल पकड़कर धृष्‍टधुम्न ने तलवार से उनके सिर को धड़ से काट लिया। इस प्रकार द्रोणचार्य को मार गिराने पर धृष्‍टधुम्न को महान् हर्ष हुआ ओर वे रणभूमि में तलवार घुमाते हुए जोर-जोर से सिहंनाद करने लगे।


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