"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 192 श्लोक 19-27" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: नवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-27 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: नवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-27 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
इस लोक में पुण्‍य और पापकर्म के संबंध¬ में  अनेक प्रकार के विचार होते रहते हैं। यह कर्मभूमि है। इस जगत् में शुभ और अशुभ कर्म करके मनुष्‍य शुभ कर्मों का शुभ फल पाता है और अशुभ कर्मों का अशुभ फल भोगता है। पूर्वकाल में यहीं प्रजापति, देवता तथा ॠषियों ने यज्ञ और अभीष्‍ट तपस्‍या करके पवित्र हो ब्रह्मलोक को प्राप्‍त कर लिया। पृथ्‍वी का उत्‍तर भाग सबसे अधिक पवित्र और मंगलमय है। इस लोक में जो पुण्‍यात्‍मा मनुष्‍य हैं, वे ही मृत्‍यु के पश्‍चात् उस भूभाग में जन्‍म लेते हैं । दूसरे लोग जो यहां पापकर्म करते हैं, वे पशु–पक्षियों की योनि में जन्‍म ग्रहण करते हैं ओर दूसरे कितने ही आयुक्षय होने पर नष्‍ट हो जाते हैं और पाताल में चले जाते हैं। जो लोभ और मोह से युक्‍त हो एक दूसरे को खा जाने के लिये उद्यत रहते हैं, वे  भी इसी लोक में आवागमन करते रहते हैं, उत्‍तरदिशा के उत्‍कृष्‍ट लोक में नहीं जाने पाते हैं। जो मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरूजनों की उपासना करते हैं, वे मनीषी पुरूष सभी लोकों के मार्ग को जानते हैं। इस प्रकार मैंने यहां ब्रह्माजी के द्वारा निर्मित इस धर्म का संक्षेप से वर्णन किया है। जो लोक में करने और न करने योग्‍य धर्म और अधर्म को जानता है, वही बुद्धिमान् है। भीष्‍मजी कहते हैं- राजन्! भृगुजी के इस प्रकार कहने पर परम धर्मात्‍मा प्रतापी भरद्वाज ने आश्‍यर्चचकित होकर उनकी पूजा की।  परम  बुद्धिमान् नरेश! इस प्रकार मैंने तुमसे जगत् की उत्‍पत्ति के संबंध में ये सारी बातें बतायी हैं। अब  और क्‍या सुनना चाहते हो?   
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इस लोक में पुण्‍य और पापकर्म के संबंध¬ में  अनेक प्रकार के विचार होते रहते हैं। यह कर्मभूमि है। इस जगत् में शुभ और अशुभ कर्म करके मनुष्‍य शुभ कर्मों का शुभ फल पाता है और अशुभ कर्मों का अशुभ फल भोगता है। पूर्वकाल में यहीं प्रजापति, देवता तथा ॠषियों ने यज्ञ और अभीष्‍ट तपस्‍या करके पवित्र हो ब्रह्मलोक को प्राप्‍त कर लिया। पृथ्‍वी का उत्‍तर भाग सबसे अधिक पवित्र और मंगलमय है। इस लोक में जो पुण्‍यात्‍मा मनुष्‍य हैं, वे ही मृत्‍यु के पश्‍चात् उस भूभाग में जन्‍म लेते हैं । दूसरे लोग जो यहां पापकर्म करते हैं, वे पशु–पक्षियों की योनि में जन्‍म ग्रहण करते हैं ओर दूसरे कितने ही आयुक्षय होने पर नष्‍ट हो जाते हैं और पाताल में चले जाते हैं। जो लोभ और मोह से युक्‍त हो एक दूसरे को खा जाने के लिये उद्यत रहते हैं, वे  भी इसी लोक में आवागमन करते रहते हैं, उत्‍तरदिशा के उत्‍कृष्‍ट लोक में नहीं जाने पाते हैं। जो मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरूजनों की उपासना करते हैं, वे मनीषी पुरूष सभी लोकों के मार्ग को जानते हैं। इस प्रकार मैंने यहां ब्रह्माजी के द्वारा निर्मित इस धर्म का संक्षेप से वर्णन किया है। जो लोक में करने और न करने योग्‍य धर्म और अधर्म को जानता है, वही बुद्धिमान है। भीष्‍मजी कहते हैं- राजन्! भृगुजी के इस प्रकार कहने पर परम धर्मात्‍मा प्रतापी भरद्वाज ने आश्‍यर्चचकित होकर उनकी पूजा की।  परम  बुद्धिमान नरेश! इस प्रकार मैंने तुमसे जगत् की उत्‍पत्ति के संबंध में ये सारी बातें बतायी हैं। अब  और क्‍या सुनना चाहते हो?   
  
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्वके अंतर्गत मोक्षधर्मपर्व में भृगु–भरद्वाजसंवादविषयक एक सौ बानबेवां अध्‍याय पूरा हुआ।</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्वके अंतर्गत मोक्षधर्मपर्व में भृगु–भरद्वाजसंवादविषयक एक सौ बानबेवां अध्‍याय पूरा हुआ।</div>

१२:००, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

नवत्यधिकशततम (192) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: नवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-27 का हिन्दी अनुवाद

इस लोक में पुण्‍य और पापकर्म के संबंध¬ में अनेक प्रकार के विचार होते रहते हैं। यह कर्मभूमि है। इस जगत् में शुभ और अशुभ कर्म करके मनुष्‍य शुभ कर्मों का शुभ फल पाता है और अशुभ कर्मों का अशुभ फल भोगता है। पूर्वकाल में यहीं प्रजापति, देवता तथा ॠषियों ने यज्ञ और अभीष्‍ट तपस्‍या करके पवित्र हो ब्रह्मलोक को प्राप्‍त कर लिया। पृथ्‍वी का उत्‍तर भाग सबसे अधिक पवित्र और मंगलमय है। इस लोक में जो पुण्‍यात्‍मा मनुष्‍य हैं, वे ही मृत्‍यु के पश्‍चात् उस भूभाग में जन्‍म लेते हैं । दूसरे लोग जो यहां पापकर्म करते हैं, वे पशु–पक्षियों की योनि में जन्‍म ग्रहण करते हैं ओर दूसरे कितने ही आयुक्षय होने पर नष्‍ट हो जाते हैं और पाताल में चले जाते हैं। जो लोभ और मोह से युक्‍त हो एक दूसरे को खा जाने के लिये उद्यत रहते हैं, वे भी इसी लोक में आवागमन करते रहते हैं, उत्‍तरदिशा के उत्‍कृष्‍ट लोक में नहीं जाने पाते हैं। जो मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरूजनों की उपासना करते हैं, वे मनीषी पुरूष सभी लोकों के मार्ग को जानते हैं। इस प्रकार मैंने यहां ब्रह्माजी के द्वारा निर्मित इस धर्म का संक्षेप से वर्णन किया है। जो लोक में करने और न करने योग्‍य धर्म और अधर्म को जानता है, वही बुद्धिमान है। भीष्‍मजी कहते हैं- राजन्! भृगुजी के इस प्रकार कहने पर परम धर्मात्‍मा प्रतापी भरद्वाज ने आश्‍यर्चचकित होकर उनकी पूजा की। परम बुद्धिमान नरेश! इस प्रकार मैंने तुमसे जगत् की उत्‍पत्ति के संबंध में ये सारी बातें बतायी हैं। अब और क्‍या सुनना चाहते हो?

इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्वके अंतर्गत मोक्षधर्मपर्व में भृगु–भरद्वाजसंवादविषयक एक सौ बानबेवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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