"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 201 श्लोक 57-67" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: एकाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 57-67  का हिन्दी अनुवाद</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: एकाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 57-67  का हिन्दी अनुवाद</div>
  
जो हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज भगवान् नारायण हैं, वे ही आदिदेव, जगन्‍नाथ, लोककर्ता और स्‍वयं ही सब कुछ करने में समर्थ है। वे सम्‍पूर्ण जगत् के आदिकारण तथा स्‍वयं आदि अन्‍त से रहित है। अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने के कारण वे अच्‍युत कहलाते हैं ॥
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जो हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज भगवान  नारायण हैं, वे ही आदिदेव, जगन्‍नाथ, लोककर्ता और स्‍वयं ही सब कुछ करने में समर्थ है। वे सम्‍पूर्ण जगत् के आदिकारण तथा स्‍वयं आदि अन्‍त से रहित है। अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने के कारण वे अच्‍युत कहलाते हैं ॥
 
श्रुतिायॉ और महर्षिगण उन्‍हीं के तत्‍व का विवेचन करते है। अतः उन जगदीश्‍वर को समस्‍त प्राणी मन से भी जीतने में असमथ हैं ।
 
श्रुतिायॉ और महर्षिगण उन्‍हीं के तत्‍व का विवेचन करते है। अतः उन जगदीश्‍वर को समस्‍त प्राणी मन से भी जीतने में असमथ हैं ।
वे विश्‍व विधाता भगवान् एक समय किसी विशेष कार्य के लिये धर्म के पुत्र रूप में अवतीर्ण हुए थे ।
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वे विश्‍व विधाता भगवान  एक समय किसी विशेष कार्य के लिये धर्म के पुत्र रूप में अवतीर्ण हुए थे ।
अग्नि और सूर्य के समान महातेजस्‍वी उन भगवान् नारायण ने‍ हि‍मालय पर्वत पर रहकर अपनी दोनों भुजाऍ उपर उठाये हुए बडी कठोर तपस्‍या की थी  
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अग्नि और सूर्य के समान महातेजस्‍वी उन भगवान  नारायण ने‍ हि‍मालय पर्वत पर रहकर अपनी दोनों भुजाऍ उपर उठाये हुए बडी कठोर तपस्‍या की थी  
 
उन कमल नयन श्री हरि ने छाछठ हजार वर्षो तक केवल वायु पीकर उन दिनों अपनी शरीर को सुखाया ।
 
उन कमल नयन श्री हरि ने छाछठ हजार वर्षो तक केवल वायु पीकर उन दिनों अपनी शरीर को सुखाया ।
 
तदनन्‍तर उससे दुगुने काल तक फिर भारी तपस्‍या करके उन्‍होंने अपने तेज से पृथ्‍वी ओर आकाश के मध्‍यवर्ती आकाश को भर दिया ।
 
तदनन्‍तर उससे दुगुने काल तक फिर भारी तपस्‍या करके उन्‍होंने अपने तेज से पृथ्‍वी ओर आकाश के मध्‍यवर्ती आकाश को भर दिया ।

१२:१५, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

एकाधिकद्विशततम (201) अध्याय: द्रोणपर्व ( नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: एकाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 57-67 का हिन्दी अनुवाद

जो हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज भगवान नारायण हैं, वे ही आदिदेव, जगन्‍नाथ, लोककर्ता और स्‍वयं ही सब कुछ करने में समर्थ है। वे सम्‍पूर्ण जगत् के आदिकारण तथा स्‍वयं आदि अन्‍त से रहित है। अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने के कारण वे अच्‍युत कहलाते हैं ॥ श्रुतिायॉ और महर्षिगण उन्‍हीं के तत्‍व का विवेचन करते है। अतः उन जगदीश्‍वर को समस्‍त प्राणी मन से भी जीतने में असमथ हैं । वे विश्‍व विधाता भगवान एक समय किसी विशेष कार्य के लिये धर्म के पुत्र रूप में अवतीर्ण हुए थे । अग्नि और सूर्य के समान महातेजस्‍वी उन भगवान नारायण ने‍ हि‍मालय पर्वत पर रहकर अपनी दोनों भुजाऍ उपर उठाये हुए बडी कठोर तपस्‍या की थी उन कमल नयन श्री हरि ने छाछठ हजार वर्षो तक केवल वायु पीकर उन दिनों अपनी शरीर को सुखाया । तदनन्‍तर उससे दुगुने काल तक फिर भारी तपस्‍या करके उन्‍होंने अपने तेज से पृथ्‍वी ओर आकाश के मध्‍यवर्ती आकाश को भर दिया । तात ! उस तपस्‍या से जब वे साक्षात् ब्रहास्‍वरूप में स्थित हो गये, तब उन्‍हें उन भगवान विश्‍वेश्‍वर का दर्शन हुआ जो सम्‍पूर्ण विश्‍व के उत्‍पति स्‍थान और जगत् के पालक हैं, जिन्‍हें पराजित करना अत्‍यन्‍त कठिन है। सम्‍पूर्ण देवता जिनकी स्‍तुति करते है तथा जो सूक्षम से भी अत्‍यन्‍त सूक्षम ओर महान से भी परम महान हैं । वे ‘रू’ अर्थात् दुःख को दूर करने के कारणरूद्र कहलाते है। ब्रहमा आदि लोकपालों में सबसे श्रेष्‍ठ हैं। पापहारी, कल्‍याण की प्राप्ति कराने वाले तथा जटाजूटधारी हैं। वे ही सबको चेतना प्रदान करते हैं और वे ही स्‍थावर जगम प्राणियों के परम कारण है । उन्‍हें कहीं कोई रोक नहीं सकता, उनका दर्शन बडी कठिनाई से होता है, वे दुष्‍टों पर प्रचण्‍ड कोप करने वाले हैं, उनका हदय विशाल है, वे सारे क्‍लेशों को हर लेने वाले अथवा सर्वसंहारी हैं, साधु पुरूषों के प्रति उनका हदय अत्‍यन्‍त उदार हैं, वे दिव्‍य धनुषों और दो तरकस धारण करते हैं, उनका कवच सोने का बना हुआ है तथा वे अनन्‍त बल पराक्रम से सम्‍पन्‍न हैं । वे अपने हाथों में पिनाक और वज्र धारण करते हैं, उनके एक हाथ में त्रिशूल चमकता रहता है, वे फरसा, गदा और लंबी तलवार लिये रहते हैं, मुसल, परिध और दण्‍ड भी उनके हाथों की शोभा बढाते हैं, उनकी अंगक्रान्ति उज्‍जवल हैं, वे मस्‍तक पर जटा और उसके उपर चन्‍द्रमा का मुकुट धारण करते हैं, उनके श्रीअंग में बाघम्‍बर शोभा देता हैं । उनकी भुजाओं में सुन्‍दर बाजूबंद और गले में नागमय यज्ञोपवीत शोभा पाते हैं, वे अपने पार्षद स्‍वरूप सम्‍पूर्ण भूत समुदायों से सुशोभित हैं, उन्‍हें एक मात्र अदितीय परमेश्‍वर समझना चाहिये, वे तपस्‍या की निधि हैं और वृध्‍द पुरूष प्रिय वचनों द्वारा उनकी प्रस्‍तुति करते हैं । जल, दिशा, आकाश, पृथ्‍वी, चन्‍द्रमा, सूर्य, वायु, अग्नि तथा जगत् को माप लेने वाला काल – ये सब उन्‍हीं के स्‍वरूप हैं। वे ब्रहमद्रोहियों के नाशक और मोक्ष के परम कारण हैं, दुराचारी मनुष्‍य उनका दर्शन पाने में असमर्थ हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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