"महाभारत वन पर्व अध्याय 99 श्लोक 53-71": अवतरणों में अंतर

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बिजली की गड़गडा़हट समान उस टंकार–ध्‍वनि को सुनकर सब प्राणी घबरा उठे। उस समय दशरथनन्‍दन श्रीरामने परशुरामजी से कहा-‘ब्रह्मान! यह धनुष तो मैंने चढा दिया अब और आपका कौना सा कार्य करूं? तब जमदग्रि नन्‍दन परशुराम ने महात्‍मा श्रीरामचन्‍द्रजी को एक दिव्‍य बाण दे दियाऔर कहा– इसे धनुष पर रखकर अपने कान के पास तक खींचए‘ । लोमशजी कहते हैं –राजन्! इतना सुनते ही श्री रामचन्‍द्रजी मानो क्रोध से प्रज्‍वलित हो और बोले-‘भृगुनन्‍दन! तुम बड़े घमण्‍डी हो। मैं तुम्‍हारी कठोर बातें सुनता हूँ  फिर क्षमा कर लेता हॅू । ‘तुमने अपने पितामह ऋचीक के प्रभाव से क्षत्रियों को जीतकर विशेष तेज प्राप्‍त किया है, निश्‍चय ही  इसीलिये मुझपर आक्ष्‍ेाप करते हो ।
बिजली की गड़गडा़हट समान उस टंकार–ध्‍वनि को सुनकर सब प्राणी घबरा उठे। उस समय दशरथनन्‍दन श्रीरामने परशुरामजी से कहा-‘ब्रह्मान! यह धनुष तो मैंने चढा दिया अब और आपका कौना सा कार्य करूं? तब जमदग्रि नन्‍दन परशुराम ने महात्‍मा श्रीरामचन्‍द्रजी को एक दिव्‍य बाण दे दियाऔर कहा– इसे धनुष पर रखकर अपने कान के पास तक खींचए‘ । लोमशजी कहते हैं –राजन्! इतना सुनते ही श्री रामचन्‍द्रजी मानो क्रोध से प्रज्‍वलित हो और बोले-‘भृगुनन्‍दन! तुम बड़े घमण्‍डी हो। मैं तुम्‍हारी कठोर बातें सुनता हूँ  फिर क्षमा कर लेता हॅू । ‘तुमने अपने पितामह ऋचीक के प्रभाव से क्षत्रियों को जीतकर विशेष तेज प्राप्‍त किया है, निश्‍चय ही  इसीलिये मुझपर आक्ष्‍ेाप करते हो ।
लो! मैं तुम्हे दिव्‍यदृष्‍टि देता हूँ। उसके द्वारा मेरे यथार्थ स्‍वरुप का दर्शन करो। ‘तब भृ्गुवंशी परशुरामजी श्रीरामजी के शरीर में बारह आदित्‍य, आठ वसु ग्‍यारह रुद्र,साध्‍य देवता,उनचास मरुद्रण,पितृगण,अग्रिदेव,राक्ष,यक्ष,नदियॉं, तीर्थ,सनातन ब्रह्माभूत बालखिल्‍य ऋष,दवर्षि,सम्‍पूर्ण समुद्र  पर्वत उपनिषदोंसहित वेदन, वषकार यज्ञ, साम और धनुर्वेद, न सभी को चेतरुप धारण कि‍ये हुए प्रत्‍यक्ष देखा। भरतनन्‍दन युधिष्ठिर! मेघों के समूह, वर्षा और विद्युत  का भी उनके भीतर दर्शन हो रहा था । तदनन्‍तर भगवान् विष्‍णुरुप श्रीरामचन्‍द्रजी ने उस बाण को छोड़ा। भारत! उस समय सारी पृथ्‍वी बिना बादल की बिजली और बडी़-बडी़उल्‍काओं से पयाप्‍त सी हो उठी। बडे़ जोर की ऑधी उठी और सब और धूल की वर्षा होने लगी । फिर मेघो की घटा घिर आयी और भूतल पर मूसलाधार वर्षा होन लग। बारबार भूकम्‍प होन लगा। मेघगर्जन तथा अन्‍य भयानक उत्‍पातसूचक शब्‍द गूंजने लगे । श्रीरामचन्‍द्रजी की भुजाओं से प्रेरित हुआा वह प्रज्‍वलित बाण परशुरामजी को व्‍याकुल करके केवल  उनके तेज को छीनकर पुन: लौट आया । परशुरामजी एक बार मूर्च्छित होकर जब पुन: होश में आये, तब मरकर जी उठे हुए मनुष्‍य की भांति उन्‍होंने विष्‍णुतेज धारण करनेवाले भगवान् श्रीराम को नमस्‍कार किया। तत्‍पश्‍चात भगवान् विष्‍णु श्रीराम की आज्ञा लेकर वे पुन: महेन्‍द्र पर्वत पर चले गये। वहॉं भयभीत और लज्जित हो महान् तपस्‍या में संलग्र होकर रहने लगे । तदनन्‍तर एक वर्ष व्‍यतीत होने पर तेजोहन और अभिामानशून्‍य होकररहने वाले परशुराम को दुखी देखकर उनके पितरों ने कहा । पितर बोले–तुमने भगवान् विष्‍णु के पास जाकर जो बर्ताव किया है वह ठीक नहीं था। वे तीनो लोको में सर्वदा पूजनीय और माननीय हैं  । बेटा! अब तुम वधूसर नामक पुण्‍यमयी नदी के तट पर जाओ। वहां तीर्थो में स्‍नान करके पूर्ववत् अपना तेजोमय शरीर पुन: प्राप्‍त कर लोगे । राम! वह दीप्‍तोदक नामक तीर्थ है, जहॅां देवयुग में तुम्‍होर प्रपितामह भृगु ने उतम तपस्‍या की थी । कुन्‍तीनन्‍दन युधिष्ठिर!  पितरों के कहने से परशुरामजी वैसा ही किया। पाण्‍डुनन्‍दन! इस तीर्थ में नहाकर पुन: उन्‍होने अपना तेज प्राप्‍त कर लिया । तात महाराज युधिष्ठिर! इस प्रकार पूर्वकाल में अनायास ही महान् कर्म करनेवाले परशुराम विष्‍णुस्‍वरुप श्रीरामचन्‍द्र जी से भिड़कर इस दशा को प्राप्‍त हुए थे ।
लो! मैं तुम्हे दिव्‍यदृष्‍टि देता हूँ। उसके द्वारा मेरे यथार्थ स्‍वरुप का दर्शन करो। ‘तब भृ्गुवंशी परशुरामजी श्रीरामजी के शरीर में बारह आदित्‍य, आठ वसु ग्‍यारह रुद्र,साध्‍य देवता,उनचास मरुद्रण,पितृगण,अग्रिदेव,राक्ष,यक्ष,नदियॉं, तीर्थ,सनातन ब्रह्माभूत बालखिल्‍य ऋष,दवर्षि,सम्‍पूर्ण समुद्र  पर्वत उपनिषदोंसहित वेदन, वषकार यज्ञ, साम और धनुर्वेद, न सभी को चेतरुप धारण कि‍ये हुए प्रत्‍यक्ष देखा। भरतनन्‍दन युधिष्ठिर! मेघों के समूह, वर्षा और विद्युत  का भी उनके भीतर दर्शन हो रहा था । तदनन्‍तर भगवान  विष्‍णुरुप श्रीरामचन्‍द्रजी ने उस बाण को छोड़ा। भारत! उस समय सारी पृथ्‍वी बिना बादल की बिजली और बडी़-बडी़उल्‍काओं से पयाप्‍त सी हो उठी। बडे़ जोर की ऑधी उठी और सब और धूल की वर्षा होने लगी । फिर मेघो की घटा घिर आयी और भूतल पर मूसलाधार वर्षा होन लग। बारबार भूकम्‍प होन लगा। मेघगर्जन तथा अन्‍य भयानक उत्‍पातसूचक शब्‍द गूंजने लगे । श्रीरामचन्‍द्रजी की भुजाओं से प्रेरित हुआा वह प्रज्‍वलित बाण परशुरामजी को व्‍याकुल करके केवल  उनके तेज को छीनकर पुन: लौट आया । परशुरामजी एक बार मूर्च्छित होकर जब पुन: होश में आये, तब मरकर जी उठे हुए मनुष्‍य की भांति उन्‍होंने विष्‍णुतेज धारण करनेवाले भगवान  श्रीराम को नमस्‍कार किया। तत्‍पश्‍चात भगवान  विष्‍णु श्रीराम की आज्ञा लेकर वे पुन: महेन्‍द्र पर्वत पर चले गये। वहॉं भयभीत और लज्जित हो महान् तपस्‍या में संलग्र होकर रहने लगे । तदनन्‍तर एक वर्ष व्‍यतीत होने पर तेजोहन और अभिामानशून्‍य होकररहने वाले परशुराम को दुखी देखकर उनके पितरों ने कहा । पितर बोले–तुमने भगवान  विष्‍णु के पास जाकर जो बर्ताव किया है वह ठीक नहीं था। वे तीनो लोको में सर्वदा पूजनीय और माननीय हैं  । बेटा! अब तुम वधूसर नामक पुण्‍यमयी नदी के तट पर जाओ। वहां तीर्थो में स्‍नान करके पूर्ववत् अपना तेजोमय शरीर पुन: प्राप्‍त कर लोगे । राम! वह दीप्‍तोदक नामक तीर्थ है, जहॅां देवयुग में तुम्‍होर प्रपितामह भृगु ने उतम तपस्‍या की थी । कुन्‍तीनन्‍दन युधिष्ठिर!  पितरों के कहने से परशुरामजी वैसा ही किया। पाण्‍डुनन्‍दन! इस तीर्थ में नहाकर पुन: उन्‍होने अपना तेज प्राप्‍त कर लिया । तात महाराज युधिष्ठिर! इस प्रकार पूर्वकाल में अनायास ही महान् कर्म करनेवाले परशुराम विष्‍णुस्‍वरुप श्रीरामचन्‍द्र जी से भिड़कर इस दशा को प्राप्‍त हुए थे ।


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१२:१७, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

एकोनशततमो (99) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: एकोनशततमोअध्‍याय: श्लोक 53-71 का हिन्दी अनुवाद

बिजली की गड़गडा़हट समान उस टंकार–ध्‍वनि को सुनकर सब प्राणी घबरा उठे। उस समय दशरथनन्‍दन श्रीरामने परशुरामजी से कहा-‘ब्रह्मान! यह धनुष तो मैंने चढा दिया अब और आपका कौना सा कार्य करूं? तब जमदग्रि नन्‍दन परशुराम ने महात्‍मा श्रीरामचन्‍द्रजी को एक दिव्‍य बाण दे दियाऔर कहा– इसे धनुष पर रखकर अपने कान के पास तक खींचए‘ । लोमशजी कहते हैं –राजन्! इतना सुनते ही श्री रामचन्‍द्रजी मानो क्रोध से प्रज्‍वलित हो और बोले-‘भृगुनन्‍दन! तुम बड़े घमण्‍डी हो। मैं तुम्‍हारी कठोर बातें सुनता हूँ फिर क्षमा कर लेता हॅू । ‘तुमने अपने पितामह ऋचीक के प्रभाव से क्षत्रियों को जीतकर विशेष तेज प्राप्‍त किया है, निश्‍चय ही इसीलिये मुझपर आक्ष्‍ेाप करते हो । लो! मैं तुम्हे दिव्‍यदृष्‍टि देता हूँ। उसके द्वारा मेरे यथार्थ स्‍वरुप का दर्शन करो। ‘तब भृ्गुवंशी परशुरामजी श्रीरामजी के शरीर में बारह आदित्‍य, आठ वसु ग्‍यारह रुद्र,साध्‍य देवता,उनचास मरुद्रण,पितृगण,अग्रिदेव,राक्ष,यक्ष,नदियॉं, तीर्थ,सनातन ब्रह्माभूत बालखिल्‍य ऋष,दवर्षि,सम्‍पूर्ण समुद्र पर्वत उपनिषदोंसहित वेदन, वषकार यज्ञ, साम और धनुर्वेद, न सभी को चेतरुप धारण कि‍ये हुए प्रत्‍यक्ष देखा। भरतनन्‍दन युधिष्ठिर! मेघों के समूह, वर्षा और विद्युत का भी उनके भीतर दर्शन हो रहा था । तदनन्‍तर भगवान विष्‍णुरुप श्रीरामचन्‍द्रजी ने उस बाण को छोड़ा। भारत! उस समय सारी पृथ्‍वी बिना बादल की बिजली और बडी़-बडी़उल्‍काओं से पयाप्‍त सी हो उठी। बडे़ जोर की ऑधी उठी और सब और धूल की वर्षा होने लगी । फिर मेघो की घटा घिर आयी और भूतल पर मूसलाधार वर्षा होन लग। बारबार भूकम्‍प होन लगा। मेघगर्जन तथा अन्‍य भयानक उत्‍पातसूचक शब्‍द गूंजने लगे । श्रीरामचन्‍द्रजी की भुजाओं से प्रेरित हुआा वह प्रज्‍वलित बाण परशुरामजी को व्‍याकुल करके केवल उनके तेज को छीनकर पुन: लौट आया । परशुरामजी एक बार मूर्च्छित होकर जब पुन: होश में आये, तब मरकर जी उठे हुए मनुष्‍य की भांति उन्‍होंने विष्‍णुतेज धारण करनेवाले भगवान श्रीराम को नमस्‍कार किया। तत्‍पश्‍चात भगवान विष्‍णु श्रीराम की आज्ञा लेकर वे पुन: महेन्‍द्र पर्वत पर चले गये। वहॉं भयभीत और लज्जित हो महान् तपस्‍या में संलग्र होकर रहने लगे । तदनन्‍तर एक वर्ष व्‍यतीत होने पर तेजोहन और अभिामानशून्‍य होकररहने वाले परशुराम को दुखी देखकर उनके पितरों ने कहा । पितर बोले–तुमने भगवान विष्‍णु के पास जाकर जो बर्ताव किया है वह ठीक नहीं था। वे तीनो लोको में सर्वदा पूजनीय और माननीय हैं । बेटा! अब तुम वधूसर नामक पुण्‍यमयी नदी के तट पर जाओ। वहां तीर्थो में स्‍नान करके पूर्ववत् अपना तेजोमय शरीर पुन: प्राप्‍त कर लोगे । राम! वह दीप्‍तोदक नामक तीर्थ है, जहॅां देवयुग में तुम्‍होर प्रपितामह भृगु ने उतम तपस्‍या की थी । कुन्‍तीनन्‍दन युधिष्ठिर! पितरों के कहने से परशुरामजी वैसा ही किया। पाण्‍डुनन्‍दन! इस तीर्थ में नहाकर पुन: उन्‍होने अपना तेज प्राप्‍त कर लिया । तात महाराज युधिष्ठिर! इस प्रकार पूर्वकाल में अनायास ही महान् कर्म करनेवाले परशुराम विष्‍णुस्‍वरुप श्रीरामचन्‍द्र जी से भिड़कर इस दशा को प्राप्‍त हुए थे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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