"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 28 श्लोक 13-17" के अवतरणों में अंतर

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‘इस संसार में जीव अज्ञानवश शरीर में आत्मबुद्धि करके भाँति-भाँति की कामना और उनकी पूर्ति के लिये नाना प्रकार के कर्म करता है। फिर उनके फलस्वरूप देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि ऊँची-नीची योनियों में भटकता फिरता है, अपनी असली गति को —आत्मस्वरूप को नहीं पहचान पाता ।
 
‘इस संसार में जीव अज्ञानवश शरीर में आत्मबुद्धि करके भाँति-भाँति की कामना और उनकी पूर्ति के लिये नाना प्रकार के कर्म करता है। फिर उनके फलस्वरूप देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि ऊँची-नीची योनियों में भटकता फिरता है, अपनी असली गति को —आत्मस्वरूप को नहीं पहचान पाता ।
  
परम दयालु भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सोचकर उन गोपों को मयान्धकार से अतीत अपना परमधाम दिखलाया ।
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परम दयालु भगवान  श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सोचकर उन गोपों को मयान्धकार से अतीत अपना परमधाम दिखलाया ।
  
भगवान् ने पहले उनको उस ब्रम्ह का साक्षात्कार करवाया जिसका स्वरुप सत्य, ज्ञान, अनन्त, सनातन और ज्योतिःस्वरुप है तथा समाधिनिष्ठ गुणातीत पुरुष ही जिसे देख पाते हैं ।
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भगवान  ने पहले उनको उस ब्रम्ह का साक्षात्कार करवाया जिसका स्वरुप सत्य, ज्ञान, अनन्त, सनातन और ज्योतिःस्वरुप है तथा समाधिनिष्ठ गुणातीत पुरुष ही जिसे देख पाते हैं ।
  
जिस जलाशय में अक्रूर को भगवान् ने अपना स्वरुप दिखलाया था, उसी ब्रम्हस्वरूप ब्रम्हहृद में डुबकी लगायी। वे ब्रम्हहृद में प्रवेश कर गये। तब भगवान् ने उसमें से उनको निकालकर अपने परमधाम का दर्शन कराया । उस दिव्य भगवत्स्वरुप लोक को देखकर नन्द आदि गोप परमानन्द में मग्न हो गये। वहाँ उन्होंने देखा कि सारे वेद मूर्तिमान होकर भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे हैं। यह देखकर वे सब-के-सब परम विस्मित हो गये ।
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जिस जलाशय में अक्रूर को भगवान  ने अपना स्वरुप दिखलाया था, उसी ब्रम्हस्वरूप ब्रम्हहृद में डुबकी लगायी। वे ब्रम्हहृद में प्रवेश कर गये। तब भगवान  ने उसमें से उनको निकालकर अपने परमधाम का दर्शन कराया । उस दिव्य भगवत्स्वरुप लोक को देखकर नन्द आदि गोप परमानन्द में मग्न हो गये। वहाँ उन्होंने देखा कि सारे वेद मूर्तिमान होकर भगवान  श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे हैं। यह देखकर वे सब-के-सब परम विस्मित हो गये ।
  
  

१२:३५, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: अष्टाविंशोऽध्यायः (28) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टाविंशोऽध्यायः श्लोक 13-17 का हिन्दी अनुवाद

‘इस संसार में जीव अज्ञानवश शरीर में आत्मबुद्धि करके भाँति-भाँति की कामना और उनकी पूर्ति के लिये नाना प्रकार के कर्म करता है। फिर उनके फलस्वरूप देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि ऊँची-नीची योनियों में भटकता फिरता है, अपनी असली गति को —आत्मस्वरूप को नहीं पहचान पाता ।

परम दयालु भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सोचकर उन गोपों को मयान्धकार से अतीत अपना परमधाम दिखलाया ।

भगवान ने पहले उनको उस ब्रम्ह का साक्षात्कार करवाया जिसका स्वरुप सत्य, ज्ञान, अनन्त, सनातन और ज्योतिःस्वरुप है तथा समाधिनिष्ठ गुणातीत पुरुष ही जिसे देख पाते हैं ।

जिस जलाशय में अक्रूर को भगवान ने अपना स्वरुप दिखलाया था, उसी ब्रम्हस्वरूप ब्रम्हहृद में डुबकी लगायी। वे ब्रम्हहृद में प्रवेश कर गये। तब भगवान ने उसमें से उनको निकालकर अपने परमधाम का दर्शन कराया । उस दिव्य भगवत्स्वरुप लोक को देखकर नन्द आदि गोप परमानन्द में मग्न हो गये। वहाँ उन्होंने देखा कि सारे वेद मूर्तिमान होकर भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे हैं। यह देखकर वे सब-के-सब परम विस्मित हो गये ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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