"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 86 श्लोक 52-59" के अवतरणों में अंतर

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देवता, पूण्यक्षेत्र और तीर्थ आदि तो दर्शन, स्पर्श, अर्चन आदि के द्वारा धीरे-धीरे बहुत दिनों में पवित्र करते हैं; परन्तु संत पुरुष अपनी दृष्टि से ही सबको पवित्र कर देते हैं। यही नहीं; देवता आदि में जो पवित्र करने की शक्ति है, वह भी उन्हें संतों की दृष्टि से ही प्राप्त होती है । श्रुतदेव! जगत् में ब्राम्हण जन्म सही सब प्राणियों में श्रेष्ठ है। यदि वह तपस्या, विद्या, सन्तोष और मेरी उपासना—मेरी भक्ति से युक्त हो तब तो कहना ही क्या है ।
 
देवता, पूण्यक्षेत्र और तीर्थ आदि तो दर्शन, स्पर्श, अर्चन आदि के द्वारा धीरे-धीरे बहुत दिनों में पवित्र करते हैं; परन्तु संत पुरुष अपनी दृष्टि से ही सबको पवित्र कर देते हैं। यही नहीं; देवता आदि में जो पवित्र करने की शक्ति है, वह भी उन्हें संतों की दृष्टि से ही प्राप्त होती है । श्रुतदेव! जगत् में ब्राम्हण जन्म सही सब प्राणियों में श्रेष्ठ है। यदि वह तपस्या, विद्या, सन्तोष और मेरी उपासना—मेरी भक्ति से युक्त हो तब तो कहना ही क्या है ।
 
मुझे अपना यह चतुर्भुजरूप भी ब्राम्हणों की अपेक्षा अधिक प्रिय नहीं है। क्योंकि ब्राम्हण सर्ववेदमय है और मैं सर्वदेवमय हूँ ।दुर्बुद्धि मनुष्य इस बात को न जानकर केवल मूर्ति आदि में ही पूज्यबुद्धि रखते हैं और गुणों में दोष निकालकर मेरे स्वरुप जगद्गुरु ब्राम्हण का, जो कि उनका आत्मा ही है, तिरस्कार करते हैं ।
 
मुझे अपना यह चतुर्भुजरूप भी ब्राम्हणों की अपेक्षा अधिक प्रिय नहीं है। क्योंकि ब्राम्हण सर्ववेदमय है और मैं सर्वदेवमय हूँ ।दुर्बुद्धि मनुष्य इस बात को न जानकर केवल मूर्ति आदि में ही पूज्यबुद्धि रखते हैं और गुणों में दोष निकालकर मेरे स्वरुप जगद्गुरु ब्राम्हण का, जो कि उनका आत्मा ही है, तिरस्कार करते हैं ।
ब्राम्हण मेरा साक्षात्कार करके अपने चित्त में यह निश्चय कर लेता है कि यह चराचर जगत्, इसके सम्बन्ध की सारी भावनाएँ और इसके कारण प्रकृति—महतत्वादि सब-के-सब आत्मस्वरुप भगवान् के ही रूप हैं ।इसीलिए श्रुतदेव! तुम इन ब्रम्हर्षियों को मेरा ही स्वरुप समझकर पूरी श्रद्धा से इनकी पूजा करो। यदि तुम ऐसा करोगे, तब तो तुमने साक्षात् अनायास ही मेरा पूजन कर लिया; नहीं तो बड़ी-बड़ी बहुमूल्य सामग्रियों से ही मेरी पूजा नहीं हो सकती ।
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ब्राम्हण मेरा साक्षात्कार करके अपने चित्त में यह निश्चय कर लेता है कि यह चराचर जगत्, इसके सम्बन्ध की सारी भावनाएँ और इसके कारण प्रकृति—महतत्वादि सब-के-सब आत्मस्वरुप भगवान  के ही रूप हैं ।इसीलिए श्रुतदेव! तुम इन ब्रम्हर्षियों को मेरा ही स्वरुप समझकर पूरी श्रद्धा से इनकी पूजा करो। यदि तुम ऐसा करोगे, तब तो तुमने साक्षात् अनायास ही मेरा पूजन कर लिया; नहीं तो बड़ी-बड़ी बहुमूल्य सामग्रियों से ही मेरी पूजा नहीं हो सकती ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण का यह आदेश प्राप्त करके श्रुतदेव ने भगवान् श्रीकृष्ण और ब्रम्हर्षियों की एकात्मभाव से आराधना की तथा उनकी कृपा से वे भगवत्स्वरूप को प्राप्त हो गये। राजा बहुलाश्व ने भी वही गति प्राप्त की । प्रिय परीक्षित्! जैसे भक्त भगवान् की भक्ति करते हैं, वैसे ही भगवान् भी भक्तों की भक्ति करते हैं। वे अपने दोनों भक्तों को प्रसन्न करने के लिये कुछ दिनों तक मिथिलापुरी में रहे और उन्हें साधु पुरुषों के मार्ग का उपदेश करके वे द्वारका लौट आये ।
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श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान  श्रीकृष्ण का यह आदेश प्राप्त करके श्रुतदेव ने भगवान  श्रीकृष्ण और ब्रम्हर्षियों की एकात्मभाव से आराधना की तथा उनकी कृपा से वे भगवत्स्वरूप को प्राप्त हो गये। राजा बहुलाश्व ने भी वही गति प्राप्त की । प्रिय परीक्षित्! जैसे भक्त भगवान  की भक्ति करते हैं, वैसे ही भगवान  भी भक्तों की भक्ति करते हैं। वे अपने दोनों भक्तों को प्रसन्न करने के लिये कुछ दिनों तक मिथिलापुरी में रहे और उन्हें साधु पुरुषों के मार्ग का उपदेश करके वे द्वारका लौट आये ।
  
  

१२:४५, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: षडशीतितमोऽध्यायः(86) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षडशीतितमोऽध्यायः श्लोक 52-59 का हिन्दी अनुवाद


देवता, पूण्यक्षेत्र और तीर्थ आदि तो दर्शन, स्पर्श, अर्चन आदि के द्वारा धीरे-धीरे बहुत दिनों में पवित्र करते हैं; परन्तु संत पुरुष अपनी दृष्टि से ही सबको पवित्र कर देते हैं। यही नहीं; देवता आदि में जो पवित्र करने की शक्ति है, वह भी उन्हें संतों की दृष्टि से ही प्राप्त होती है । श्रुतदेव! जगत् में ब्राम्हण जन्म सही सब प्राणियों में श्रेष्ठ है। यदि वह तपस्या, विद्या, सन्तोष और मेरी उपासना—मेरी भक्ति से युक्त हो तब तो कहना ही क्या है । मुझे अपना यह चतुर्भुजरूप भी ब्राम्हणों की अपेक्षा अधिक प्रिय नहीं है। क्योंकि ब्राम्हण सर्ववेदमय है और मैं सर्वदेवमय हूँ ।दुर्बुद्धि मनुष्य इस बात को न जानकर केवल मूर्ति आदि में ही पूज्यबुद्धि रखते हैं और गुणों में दोष निकालकर मेरे स्वरुप जगद्गुरु ब्राम्हण का, जो कि उनका आत्मा ही है, तिरस्कार करते हैं । ब्राम्हण मेरा साक्षात्कार करके अपने चित्त में यह निश्चय कर लेता है कि यह चराचर जगत्, इसके सम्बन्ध की सारी भावनाएँ और इसके कारण प्रकृति—महतत्वादि सब-के-सब आत्मस्वरुप भगवान के ही रूप हैं ।इसीलिए श्रुतदेव! तुम इन ब्रम्हर्षियों को मेरा ही स्वरुप समझकर पूरी श्रद्धा से इनकी पूजा करो। यदि तुम ऐसा करोगे, तब तो तुमने साक्षात् अनायास ही मेरा पूजन कर लिया; नहीं तो बड़ी-बड़ी बहुमूल्य सामग्रियों से ही मेरी पूजा नहीं हो सकती । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण का यह आदेश प्राप्त करके श्रुतदेव ने भगवान श्रीकृष्ण और ब्रम्हर्षियों की एकात्मभाव से आराधना की तथा उनकी कृपा से वे भगवत्स्वरूप को प्राप्त हो गये। राजा बहुलाश्व ने भी वही गति प्राप्त की । प्रिय परीक्षित्! जैसे भक्त भगवान की भक्ति करते हैं, वैसे ही भगवान भी भक्तों की भक्ति करते हैं। वे अपने दोनों भक्तों को प्रसन्न करने के लिये कुछ दिनों तक मिथिलापुरी में रहे और उन्हें साधु पुरुषों के मार्ग का उपदेश करके वे द्वारका लौट आये ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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