"श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 29-34" के अवतरणों में अंतर

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ज्ञान से ब्रम्हस्वरुप श्रीकृष्ण की ही प्राप्ति होती है। तपस्या श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये ही की जाती है। श्रीकृष्ण के लिये ही धर्मों का अनुष्ठान होता है और सब गतियाँ श्रीकृष्ण में ही समा जाती हैं । यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण प्रकृति और उसके गुणों से अतीत हैं, फिर भी अपनी गुणमयी माया से, जो प्रपंच की दृष्टि से है और तत्व की दृष्टि से नहीं है—उन्होंने ही सर्ग के आदि में इस संसार की रचना की थी ।
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ज्ञान से ब्रम्हस्वरुप श्रीकृष्ण की ही प्राप्ति होती है। तपस्या श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये ही की जाती है। श्रीकृष्ण के लिये ही धर्मों का अनुष्ठान होता है और सब गतियाँ श्रीकृष्ण में ही समा जाती हैं । यद्यपि भगवान  श्रीकृष्ण प्रकृति और उसके गुणों से अतीत हैं, फिर भी अपनी गुणमयी माया से, जो प्रपंच की दृष्टि से है और तत्व की दृष्टि से नहीं है—उन्होंने ही सर्ग के आदि में इस संसार की रचना की थी ।
ये सत्व, रज और तम—तीनों गुण उसी माया के विलास हैं; इनके भीतर रहकर भगवान् इनसे युक्त-सरीखे मालूम पड़ते हैं। वास्तव में तो वे परिपूर्ण विज्ञानघन हैं । अग्नि तो वस्तुतः एक ही है, परन्तु जब वह अनेक प्रकार की लकड़ियों में प्रकट होती है तब अनेक-सी मालूम पड़ती है। वैसे ही सबके आत्मरूप भगवान् तो एक ही हैं, परन्तु प्राणियों की अनेकता से अनेक-जैसे जान पड़ते हैं । भगवान् ही इस सूक्ष्म भूत—तन्मात्रा, इन्द्रिय तथा अन्तःकरण आदि गुणों के विकार भूत भावों के द्वारा नाना प्रकार की योनियों का निर्माण करते हैं और उनमें भिन्न-भिन्न जीवों के रूप में प्रवेश करके उन-उन योनियों के अनुरूप विषयों का उपभोग करते-कराते हैं । वे ही सम्पूर्ण लोगों की रचना करते हैं और देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि योनियों में लीलावतार ग्रहण करके सत्वगुण के द्वारा जीवों का पालन-पोषण करते हैं ।
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ये सत्व, रज और तम—तीनों गुण उसी माया के विलास हैं; इनके भीतर रहकर भगवान  इनसे युक्त-सरीखे मालूम पड़ते हैं। वास्तव में तो वे परिपूर्ण विज्ञानघन हैं । अग्नि तो वस्तुतः एक ही है, परन्तु जब वह अनेक प्रकार की लकड़ियों में प्रकट होती है तब अनेक-सी मालूम पड़ती है। वैसे ही सबके आत्मरूप भगवान  तो एक ही हैं, परन्तु प्राणियों की अनेकता से अनेक-जैसे जान पड़ते हैं । भगवान  ही इस सूक्ष्म भूत—तन्मात्रा, इन्द्रिय तथा अन्तःकरण आदि गुणों के विकार भूत भावों के द्वारा नाना प्रकार की योनियों का निर्माण करते हैं और उनमें भिन्न-भिन्न जीवों के रूप में प्रवेश करके उन-उन योनियों के अनुरूप विषयों का उपभोग करते-कराते हैं । वे ही सम्पूर्ण लोगों की रचना करते हैं और देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि योनियों में लीलावतार ग्रहण करके सत्वगुण के द्वारा जीवों का पालन-पोषण करते हैं ।
  
 
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१२:४८, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

प्रथम स्कन्धः द्वितीय अध्यायः(2)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः द्वितीय अध्यायः श्लोक 29-34 का हिन्दी अनुवाद
भगवत्कथा और भगवद्भक्ति का माहात्म्य


ज्ञान से ब्रम्हस्वरुप श्रीकृष्ण की ही प्राप्ति होती है। तपस्या श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये ही की जाती है। श्रीकृष्ण के लिये ही धर्मों का अनुष्ठान होता है और सब गतियाँ श्रीकृष्ण में ही समा जाती हैं । यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण प्रकृति और उसके गुणों से अतीत हैं, फिर भी अपनी गुणमयी माया से, जो प्रपंच की दृष्टि से है और तत्व की दृष्टि से नहीं है—उन्होंने ही सर्ग के आदि में इस संसार की रचना की थी । ये सत्व, रज और तम—तीनों गुण उसी माया के विलास हैं; इनके भीतर रहकर भगवान इनसे युक्त-सरीखे मालूम पड़ते हैं। वास्तव में तो वे परिपूर्ण विज्ञानघन हैं । अग्नि तो वस्तुतः एक ही है, परन्तु जब वह अनेक प्रकार की लकड़ियों में प्रकट होती है तब अनेक-सी मालूम पड़ती है। वैसे ही सबके आत्मरूप भगवान तो एक ही हैं, परन्तु प्राणियों की अनेकता से अनेक-जैसे जान पड़ते हैं । भगवान ही इस सूक्ष्म भूत—तन्मात्रा, इन्द्रिय तथा अन्तःकरण आदि गुणों के विकार भूत भावों के द्वारा नाना प्रकार की योनियों का निर्माण करते हैं और उनमें भिन्न-भिन्न जीवों के रूप में प्रवेश करके उन-उन योनियों के अनुरूप विषयों का उपभोग करते-कराते हैं । वे ही सम्पूर्ण लोगों की रचना करते हैं और देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि योनियों में लीलावतार ग्रहण करके सत्वगुण के द्वारा जीवों का पालन-पोषण करते हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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