"श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 4 श्लोक 15-25": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) ('==चतुर्थ (4) अध्याय== <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ") |
||
पंक्ति ६: | पंक्ति ६: | ||
हिमालय के शिखर पर एक भूरुण्ड जाति का पक्षी होता है। वह किसी के शिक्षाप्रद वाक्य सुनकर वैसा हो बोला करता है, किन्तु स्वयं उससे लाभ नहीं उठाता। इसी प्रकार जो उपदेश की बात सुनकर उसे दूसरों को तो सिखाये पर स्वयं आचरण में न लाये, ऐसे श्रोता को ‘भूरुण्ड’ कहते हैं । | हिमालय के शिखर पर एक भूरुण्ड जाति का पक्षी होता है। वह किसी के शिक्षाप्रद वाक्य सुनकर वैसा हो बोला करता है, किन्तु स्वयं उससे लाभ नहीं उठाता। इसी प्रकार जो उपदेश की बात सुनकर उसे दूसरों को तो सिखाये पर स्वयं आचरण में न लाये, ऐसे श्रोता को ‘भूरुण्ड’ कहते हैं । | ||
‘वृष’ कहते हैं बैल को। उसके सामने मीठे-मीठे अंगूर हो या कड़वी खली, दोनों को वह एक-सा ही मानकर खाता है। उसी प्रकार जो सुनी हुई सभी बातें ग्रहण करता है, पर सार और असार वस्तु का विचार करने में उसकी बुद्धि अंधी—असमर्थ होती है, ऐसा श्रोता ‘वृष’ कहलाता है । | ‘वृष’ कहते हैं बैल को। उसके सामने मीठे-मीठे अंगूर हो या कड़वी खली, दोनों को वह एक-सा ही मानकर खाता है। उसी प्रकार जो सुनी हुई सभी बातें ग्रहण करता है, पर सार और असार वस्तु का विचार करने में उसकी बुद्धि अंधी—असमर्थ होती है, ऐसा श्रोता ‘वृष’ कहलाता है । | ||
जिस प्रकार ऊँट माधुर्य गुण से युक्त आम को भी छोड़कर केवल नीम की पत्ती चबाता है, उसी प्रकार जो | जिस प्रकार ऊँट माधुर्य गुण से युक्त आम को भी छोड़कर केवल नीम की पत्ती चबाता है, उसी प्रकार जो भगवान की मधुर कथा को छोड़कर उसके विपरीत संसारी बातों में रमता रहता है, उसे ‘ऊँट’ कहते हैं । ये कुछ थोड़े-से भेद यहाँ बताये गये। इनके अतिरिक्त भी प्रवर-अवर दोनों प्रकार के श्रोताओं के ‘भ्रमर’ और ‘गदहा’ आदि बहुत-से भेद हैं,’ इन सब भेदों को उन-उन श्रोताओं के स्वाभाविक आचार-व्यवहारों से परखना चाहिये । | ||
जो वक्ता के सामने उन्हें विधिवत् प्रणाम करके बैठे और अन्य संसारी बातों को छोड़कर केवल | जो वक्ता के सामने उन्हें विधिवत् प्रणाम करके बैठे और अन्य संसारी बातों को छोड़कर केवल श्रीभगवान की लीला-कथाओं को ही सुनने की इच्छा रखे, समझने में अत्यन्त कुशल हो, नम्र हो, हाथ जोड़े रहे, शिष्य भाव से उपदेश ग्रहण करे और भीतर श्रद्धा तथा विश्वास रखे; इसके सिवा, जो कुछ सुने उसका बराबर चिन्तन करता रहे, जो बात समझ में न आये, पूछे और पवित्र भाव से रहे तथा श्रीकृष्ण के भक्तों पर सदा ही प्रेम रखता हो—ऐसे ही श्रोता को वक्ता लोग उत्तम श्रोता कहते हैं ।अब वक्ता के लक्षण बतलाते हैं। जिसका मन सदा भगवान में लगा रहे, जिसे किसी भी वस्तु की अपेक्षा न हो, जो सबका सुहृद और दीनों पर दया करने वाला हो तथा अनेकों युक्तियों से तत्व का बोध करा देने में चतुर हो, उसी वक्ता का मुनि लोग भी सम्मान करते हैं । | ||
विप्रगण! अब मैं भारत वर्ष की भूमि पर श्रीमद्भागवत कथा का सेवन करने के लिये जो आवश्यक विधि है, उसे बतलाता हूँ; आप सुने। इस विधि के पालन से श्रोता की सुख-परम्परा का विस्तार होता है । श्रीमद्भागवत का सेवन चार प्रकार का है—सात्विक, राजस, तामस और निर्गुण । जिसमें यज्ञ की भाँति तैयारी की गयी हो, बहुत-सी पूजा-सामग्रियों के कारण जो अत्यन्त शोभासम्पन्न दिखायी दे रहा हो और बड़े ही परिश्रम से बहुत उतावली के साथ सात दिनों में ही जिसकी समाप्ति की जाय, वह प्रसन्नतापूर्वक किया हुआ श्रीमद्भागवत का सेवन ‘राजस’ है । | विप्रगण! अब मैं भारत वर्ष की भूमि पर श्रीमद्भागवत कथा का सेवन करने के लिये जो आवश्यक विधि है, उसे बतलाता हूँ; आप सुने। इस विधि के पालन से श्रोता की सुख-परम्परा का विस्तार होता है । श्रीमद्भागवत का सेवन चार प्रकार का है—सात्विक, राजस, तामस और निर्गुण । जिसमें यज्ञ की भाँति तैयारी की गयी हो, बहुत-सी पूजा-सामग्रियों के कारण जो अत्यन्त शोभासम्पन्न दिखायी दे रहा हो और बड़े ही परिश्रम से बहुत उतावली के साथ सात दिनों में ही जिसकी समाप्ति की जाय, वह प्रसन्नतापूर्वक किया हुआ श्रीमद्भागवत का सेवन ‘राजस’ है । | ||
१२:४९, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
चतुर्थ (4) अध्याय
जैसे क्षीरसागर में मछली मौन रहकर अपलक आँखों से देखती हुई सदा दुग्ध पान करती रहती हैं, उसी प्रकार जो कथा सुनते समय निर्निमेष नयनों से देखता हुआ मुँह से कभी एक शब्द भी नहीं निकालता वह प्रेमी श्रोता ‘मीन’ कहा गया है । (ये प्रवर अर्थात् उत्तम श्रोताओं के भेद बताये गये हैं, अब अवर यानी अधम श्रोता बताये जाते हैं।) ‘वृक’ कहते हैं भेड़ियों। जैसे भेड़िया वन के भीतर वेणु की मीठी आवाज सुनने में लगे हुए मृगों को डराने वाली भयानक गर्जना करता है, वैसे ही जो मूर्ख कथा श्रवण के समय रसिक श्रोताओं को उद्विग्न करता हुआ बीच-बीच में जोर-जोर से बोल उठता है, वह ‘वृक’ कहलाता है । हिमालय के शिखर पर एक भूरुण्ड जाति का पक्षी होता है। वह किसी के शिक्षाप्रद वाक्य सुनकर वैसा हो बोला करता है, किन्तु स्वयं उससे लाभ नहीं उठाता। इसी प्रकार जो उपदेश की बात सुनकर उसे दूसरों को तो सिखाये पर स्वयं आचरण में न लाये, ऐसे श्रोता को ‘भूरुण्ड’ कहते हैं । ‘वृष’ कहते हैं बैल को। उसके सामने मीठे-मीठे अंगूर हो या कड़वी खली, दोनों को वह एक-सा ही मानकर खाता है। उसी प्रकार जो सुनी हुई सभी बातें ग्रहण करता है, पर सार और असार वस्तु का विचार करने में उसकी बुद्धि अंधी—असमर्थ होती है, ऐसा श्रोता ‘वृष’ कहलाता है । जिस प्रकार ऊँट माधुर्य गुण से युक्त आम को भी छोड़कर केवल नीम की पत्ती चबाता है, उसी प्रकार जो भगवान की मधुर कथा को छोड़कर उसके विपरीत संसारी बातों में रमता रहता है, उसे ‘ऊँट’ कहते हैं । ये कुछ थोड़े-से भेद यहाँ बताये गये। इनके अतिरिक्त भी प्रवर-अवर दोनों प्रकार के श्रोताओं के ‘भ्रमर’ और ‘गदहा’ आदि बहुत-से भेद हैं,’ इन सब भेदों को उन-उन श्रोताओं के स्वाभाविक आचार-व्यवहारों से परखना चाहिये । जो वक्ता के सामने उन्हें विधिवत् प्रणाम करके बैठे और अन्य संसारी बातों को छोड़कर केवल श्रीभगवान की लीला-कथाओं को ही सुनने की इच्छा रखे, समझने में अत्यन्त कुशल हो, नम्र हो, हाथ जोड़े रहे, शिष्य भाव से उपदेश ग्रहण करे और भीतर श्रद्धा तथा विश्वास रखे; इसके सिवा, जो कुछ सुने उसका बराबर चिन्तन करता रहे, जो बात समझ में न आये, पूछे और पवित्र भाव से रहे तथा श्रीकृष्ण के भक्तों पर सदा ही प्रेम रखता हो—ऐसे ही श्रोता को वक्ता लोग उत्तम श्रोता कहते हैं ।अब वक्ता के लक्षण बतलाते हैं। जिसका मन सदा भगवान में लगा रहे, जिसे किसी भी वस्तु की अपेक्षा न हो, जो सबका सुहृद और दीनों पर दया करने वाला हो तथा अनेकों युक्तियों से तत्व का बोध करा देने में चतुर हो, उसी वक्ता का मुनि लोग भी सम्मान करते हैं । विप्रगण! अब मैं भारत वर्ष की भूमि पर श्रीमद्भागवत कथा का सेवन करने के लिये जो आवश्यक विधि है, उसे बतलाता हूँ; आप सुने। इस विधि के पालन से श्रोता की सुख-परम्परा का विस्तार होता है । श्रीमद्भागवत का सेवन चार प्रकार का है—सात्विक, राजस, तामस और निर्गुण । जिसमें यज्ञ की भाँति तैयारी की गयी हो, बहुत-सी पूजा-सामग्रियों के कारण जो अत्यन्त शोभासम्पन्न दिखायी दे रहा हो और बड़े ही परिश्रम से बहुत उतावली के साथ सात दिनों में ही जिसकी समाप्ति की जाय, वह प्रसन्नतापूर्वक किया हुआ श्रीमद्भागवत का सेवन ‘राजस’ है ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-