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'''खिलौना''' बच्चों के खेलने की सामग्री। इसका संबंध शैशव से है और शैशव चूँकि सार्वभौम है इसलिये खिलौने भी सर्वदेशीय हैं। | '''खिलौना''' बच्चों के खेलने की सामग्री। इसका संबंध शैशव से है और शैशव चूँकि सार्वभौम है इसलिये खिलौने भी सर्वदेशीय हैं। संसार के सारे देशों में प्रस्तरयुगीन सभ्यताकाल से ही खिलौनों का प्रचार मिलता है, जिनके असंख्य उदाहरण देश विदेश के संग्रहालयों में प्रदर्शित हैं। | ||
==खिलौनों के प्रकार== | ==खिलौनों के प्रकार== | ||
[[मिट्टी]], पत्थर, लकड़ी, धातु, कपड़े, मूँज, तृण, हड्डी, सींग, बहुमूल्य रत्न आदि के बने सभी प्रकार के खिलौने अत्यंत प्राचीन सभ्यताओं की खुदाई में मिले हैं, जिनसे उनकी विविधता और वैचित्य पर प्रभूत प्रकाश पड़ता है। मानवाकृतियों के अतिरिक्त गार्हस्थ्य जीवन के अतिनिकट रहनेवाले, गाय, बैल, हाथी, कुत्ते, भेड़ और जंगल के बंदर, शेर, सिंह, मोर आदि सभी जानवरों की प्रतिकृतियाँ मिली हैं, जिनसे प्रकट है कि किस मात्रा में बच्चों के | [[मिट्टी]], पत्थर, लकड़ी, धातु, कपड़े, मूँज, तृण, हड्डी, सींग, बहुमूल्य रत्न आदि के बने सभी प्रकार के खिलौने अत्यंत प्राचीन सभ्यताओं की खुदाई में मिले हैं, जिनसे उनकी विविधता और वैचित्य पर प्रभूत प्रकाश पड़ता है। मानवाकृतियों के अतिरिक्त गार्हस्थ्य जीवन के अतिनिकट रहनेवाले, गाय, बैल, हाथी, कुत्ते, भेड़ और जंगल के बंदर, शेर, सिंह, मोर आदि सभी जानवरों की प्रतिकृतियाँ मिली हैं, जिनसे प्रकट है कि किस मात्रा में बच्चों के मन को बहलाने के लिए खिलौने का उपयोग होता रहा है। मिस्री और फिलीस्तीनी, बाबुली और असूरी, क्रीटी और कीनी, मोहेनेजोदड़ों और हड़प्पा के मिट्टी आदि के बने खिलौनों की अमित राशि मिली है। धातु, रबर और प्लास्टिक आदि के बने खिलौने आज की सभ्यता की विशेष देन हैं। इस दिशा में जापान और जर्मनी ने खासी प्रगति की है। वैसे तो कपड़े के खिलौनों का विशेष विकास भारत में हुआ है, पर इधर रूस ने कपड़े के जो खिलौनों बनाए हैं वे भी कुछ कम मनोरंजक नहीं है। | ||
भारतीय साहित्य में अति प्राचीन काल से ही खिलौनो का उल्लेख हुआ है। सैंधव सभ्यता में मिस्री-बाबुली-असूरी सभ्यताओं की भाँति अनेक प्रकार के खिलौने मिले ही हैं, वैदिक आर्यों के साहित्य में भी उनका कुछ कम वर्णन नहीं मिलता। खेली जानेवाली पुतलियों का उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। इंद्राणी अपनी सपत्नियों के ऐश्वर्य का नाश ओषधिविशेष तथा पुत्तलिकाओं के माध्यम से करती हैं। कठपुतलियों का भी उदय तभी हो चुका था, जो अद्यावधि | भारतीय साहित्य में अति प्राचीन काल से ही खिलौनो का उल्लेख हुआ है। सैंधव सभ्यता में मिस्री-बाबुली-असूरी सभ्यताओं की भाँति अनेक प्रकार के खिलौने मिले ही हैं, वैदिक आर्यों के साहित्य में भी उनका कुछ कम वर्णन नहीं मिलता। खेली जानेवाली पुतलियों का उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। इंद्राणी अपनी सपत्नियों के ऐश्वर्य का नाश ओषधिविशेष तथा पुत्तलिकाओं के माध्यम से करती हैं। कठपुतलियों का भी उदय तभी हो चुका था, जो अद्यावधि मनोरंजक खेल के रूप में सारे संसार में प्रचलित हैं। | ||
==मिट्टी के खिलौने== | ==मिट्टी के खिलौने== | ||
ऐतिहासिक युग में प्राड़मौर्य, मौर्यकाल और गुप्तकाल की पकाई हुई मिट्टी के खिलौने पुरातात्विक खुदाइयों में अत्यधिक मात्रा में उपलब्ध हुए हैं। [[पटना]], [[मथुरा]], [[कौशांबी]], [[राजघाट]] (वाराणसी) आदि की खुदाइयों में उपलब्ध खिलौने हमारे विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। प्राय: तभी से साँचे का प्रयोग शुरू हो गया था, जिसकी सहायता से मृदु उपादानों के खिलौने ढाले जाते थे। कहीं कहीं खुदाई में ऐसे साँचे भी मिले हैं। शुंगकालीन खिलौनों में साँचे से बनी भेड़े, मकर आदि अत्यंत सुंदर हैं और जिन खिलौनों पर | ऐतिहासिक युग में प्राड़मौर्य, [[मौर्यकाल]] और [[गुप्तकाल]] की पकाई हुई मिट्टी के खिलौने पुरातात्विक खुदाइयों में अत्यधिक मात्रा में उपलब्ध हुए हैं। [[पटना]], [[मथुरा]], [[कौशांबी]], [[राजघाट]] (वाराणसी) आदि की खुदाइयों में उपलब्ध खिलौने हमारे विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। प्राय: तभी से साँचे का प्रयोग शुरू हो गया था, जिसकी सहायता से मृदु उपादानों के खिलौने ढाले जाते थे। कहीं कहीं खुदाई में ऐसे साँचे भी मिले हैं। शुंगकालीन खिलौनों में साँचे से बनी भेड़े, मकर आदि अत्यंत सुंदर हैं और जिन खिलौनों पर नारी आकृतियाँ उभारी गई हैं वे अत्यंत आकर्षक और दर्शनीय हैं। मेष अर्थात् मेढ़े जुती गाड़ियों से खेलने की प्रथा दूसरी सदी से पूर्व के शुंगकाल में अत्यधिक थी। इनमें मिट्टी के बड़ी सुंदर सींगवाले मेढ़े अथवा मेष ऊँचे पहियोंवाली गाड़ियों अथवा रथों में जुते होते थे। पहिए भी धुरी के साथ साँचे से बनते थे। एक लकड़ी इस पार से उस पार डाल दी जाती थी जो पहियों की धुरी का काम क रती थी। कौशांबी से उसी काल की बैलगाड़ी के कुछ ऐसे नमूने उपलब्ध हुए हैं जिनमें केले आदि फल और आहार की दूसरी वस्तुएँ अलग अलग तश्तरियों में रखी हुई हैं, लोग उनपर बैठे हुए हैं। वातावरण पिकनिक के लिए वन की ओर जाने का है। उस काल के घोड़े, हाथी और अद्भूत मगरों की आकृतियाँ आज भी सुलभ हैं। [[कुषाण काल]] में मिट्टी के खिलौनों का रूप सर्वतोभद्र (चारों तरफ से कोरी हुई मूरत) हो जाता है। [[गुप्कालीन]] मिट्टी के खिलौनों में, अपूर्व छंदस और मांसलता के दर्शन होते हैं और अंडाकार मानव-मुख्-मंडल पर पीछे की ओर कंधों तक कुंचित केशराशि लटकी देख पड़ती है। इनका पिछला भाग सपाट होता है और ऊपर की चूड़ा में एक छिद्र रहता है, जिसमें डोरा डालकर सुरुचिपूर्ण नागरिक अपनी बैठकों की दीवारों पर लटका दिया करते थे। ये खिलौने कई प्रकार के रंगों से रँग दिए जाते थे। इसी प्रकार के एक रँगे हुए, वरणचित्रित, मयूर का वर्णन अभिज्ञान शाकुतंल के सातवें अंक में हुआ है। आज के भारतीय खिलौने, जिनका निर्माण अतिरिक्त विशेषता से दीवाली के अवसर पर होता है-जानवरों, मनुष्यों, जनजीवों आदि की कृतियों-अधिकतर गुप्तकालीन खिलौनों के दूर के संबंधी हैं, यद्यपि उनकी रुचिरता और भावभंगी में जमीन आसमान का अंतर हो गया है। गुप्तकालीन खिलौने जितने सूक्ष्मप्राण हैं, आधुनिक भारतीय गाँवों और नगरों के खिलौने उतने ही स्थूलकाय। | ||
नि:संदेह भारतीय गाँवों में बननेवाले मूँज, तृण और कपड़े के खिलौने प्रशंसनीय और आज भी दर्शनीय हैं। घोड़ों, हाथियों के खिलौने तो तीन तीन, चार चार फुट की ऊँचाई तक पहुँच जाते हैं और बच्चों के खेलने के अतिरिक्त उन्हें विवाह आदि के अवसरों पर संबंधियों द्वारा भेंट के रूप में भी दिया जाता है। | नि:संदेह भारतीय गाँवों में बननेवाले मूँज, तृण और कपड़े के खिलौने प्रशंसनीय और आज भी दर्शनीय हैं। घोड़ों, हाथियों के खिलौने तो तीन तीन, चार चार फुट की ऊँचाई तक पहुँच जाते हैं और बच्चों के खेलने के अतिरिक्त उन्हें विवाह आदि के अवसरों पर संबंधियों द्वारा भेंट के रूप में भी दिया जाता है। | ||
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११:०२, ३१ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
खिलौना
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 323 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | राम प्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | फूलदेवसहाय वर्मा |
खिलौना बच्चों के खेलने की सामग्री। इसका संबंध शैशव से है और शैशव चूँकि सार्वभौम है इसलिये खिलौने भी सर्वदेशीय हैं। संसार के सारे देशों में प्रस्तरयुगीन सभ्यताकाल से ही खिलौनों का प्रचार मिलता है, जिनके असंख्य उदाहरण देश विदेश के संग्रहालयों में प्रदर्शित हैं।
खिलौनों के प्रकार
मिट्टी, पत्थर, लकड़ी, धातु, कपड़े, मूँज, तृण, हड्डी, सींग, बहुमूल्य रत्न आदि के बने सभी प्रकार के खिलौने अत्यंत प्राचीन सभ्यताओं की खुदाई में मिले हैं, जिनसे उनकी विविधता और वैचित्य पर प्रभूत प्रकाश पड़ता है। मानवाकृतियों के अतिरिक्त गार्हस्थ्य जीवन के अतिनिकट रहनेवाले, गाय, बैल, हाथी, कुत्ते, भेड़ और जंगल के बंदर, शेर, सिंह, मोर आदि सभी जानवरों की प्रतिकृतियाँ मिली हैं, जिनसे प्रकट है कि किस मात्रा में बच्चों के मन को बहलाने के लिए खिलौने का उपयोग होता रहा है। मिस्री और फिलीस्तीनी, बाबुली और असूरी, क्रीटी और कीनी, मोहेनेजोदड़ों और हड़प्पा के मिट्टी आदि के बने खिलौनों की अमित राशि मिली है। धातु, रबर और प्लास्टिक आदि के बने खिलौने आज की सभ्यता की विशेष देन हैं। इस दिशा में जापान और जर्मनी ने खासी प्रगति की है। वैसे तो कपड़े के खिलौनों का विशेष विकास भारत में हुआ है, पर इधर रूस ने कपड़े के जो खिलौनों बनाए हैं वे भी कुछ कम मनोरंजक नहीं है।
भारतीय साहित्य में अति प्राचीन काल से ही खिलौनो का उल्लेख हुआ है। सैंधव सभ्यता में मिस्री-बाबुली-असूरी सभ्यताओं की भाँति अनेक प्रकार के खिलौने मिले ही हैं, वैदिक आर्यों के साहित्य में भी उनका कुछ कम वर्णन नहीं मिलता। खेली जानेवाली पुतलियों का उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। इंद्राणी अपनी सपत्नियों के ऐश्वर्य का नाश ओषधिविशेष तथा पुत्तलिकाओं के माध्यम से करती हैं। कठपुतलियों का भी उदय तभी हो चुका था, जो अद्यावधि मनोरंजक खेल के रूप में सारे संसार में प्रचलित हैं।
मिट्टी के खिलौने
ऐतिहासिक युग में प्राड़मौर्य, मौर्यकाल और गुप्तकाल की पकाई हुई मिट्टी के खिलौने पुरातात्विक खुदाइयों में अत्यधिक मात्रा में उपलब्ध हुए हैं। पटना, मथुरा, कौशांबी, राजघाट (वाराणसी) आदि की खुदाइयों में उपलब्ध खिलौने हमारे विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। प्राय: तभी से साँचे का प्रयोग शुरू हो गया था, जिसकी सहायता से मृदु उपादानों के खिलौने ढाले जाते थे। कहीं कहीं खुदाई में ऐसे साँचे भी मिले हैं। शुंगकालीन खिलौनों में साँचे से बनी भेड़े, मकर आदि अत्यंत सुंदर हैं और जिन खिलौनों पर नारी आकृतियाँ उभारी गई हैं वे अत्यंत आकर्षक और दर्शनीय हैं। मेष अर्थात् मेढ़े जुती गाड़ियों से खेलने की प्रथा दूसरी सदी से पूर्व के शुंगकाल में अत्यधिक थी। इनमें मिट्टी के बड़ी सुंदर सींगवाले मेढ़े अथवा मेष ऊँचे पहियोंवाली गाड़ियों अथवा रथों में जुते होते थे। पहिए भी धुरी के साथ साँचे से बनते थे। एक लकड़ी इस पार से उस पार डाल दी जाती थी जो पहियों की धुरी का काम क रती थी। कौशांबी से उसी काल की बैलगाड़ी के कुछ ऐसे नमूने उपलब्ध हुए हैं जिनमें केले आदि फल और आहार की दूसरी वस्तुएँ अलग अलग तश्तरियों में रखी हुई हैं, लोग उनपर बैठे हुए हैं। वातावरण पिकनिक के लिए वन की ओर जाने का है। उस काल के घोड़े, हाथी और अद्भूत मगरों की आकृतियाँ आज भी सुलभ हैं। कुषाण काल में मिट्टी के खिलौनों का रूप सर्वतोभद्र (चारों तरफ से कोरी हुई मूरत) हो जाता है। गुप्कालीन मिट्टी के खिलौनों में, अपूर्व छंदस और मांसलता के दर्शन होते हैं और अंडाकार मानव-मुख्-मंडल पर पीछे की ओर कंधों तक कुंचित केशराशि लटकी देख पड़ती है। इनका पिछला भाग सपाट होता है और ऊपर की चूड़ा में एक छिद्र रहता है, जिसमें डोरा डालकर सुरुचिपूर्ण नागरिक अपनी बैठकों की दीवारों पर लटका दिया करते थे। ये खिलौने कई प्रकार के रंगों से रँग दिए जाते थे। इसी प्रकार के एक रँगे हुए, वरणचित्रित, मयूर का वर्णन अभिज्ञान शाकुतंल के सातवें अंक में हुआ है। आज के भारतीय खिलौने, जिनका निर्माण अतिरिक्त विशेषता से दीवाली के अवसर पर होता है-जानवरों, मनुष्यों, जनजीवों आदि की कृतियों-अधिकतर गुप्तकालीन खिलौनों के दूर के संबंधी हैं, यद्यपि उनकी रुचिरता और भावभंगी में जमीन आसमान का अंतर हो गया है। गुप्तकालीन खिलौने जितने सूक्ष्मप्राण हैं, आधुनिक भारतीय गाँवों और नगरों के खिलौने उतने ही स्थूलकाय।
नि:संदेह भारतीय गाँवों में बननेवाले मूँज, तृण और कपड़े के खिलौने प्रशंसनीय और आज भी दर्शनीय हैं। घोड़ों, हाथियों के खिलौने तो तीन तीन, चार चार फुट की ऊँचाई तक पहुँच जाते हैं और बच्चों के खेलने के अतिरिक्त उन्हें विवाह आदि के अवसरों पर संबंधियों द्वारा भेंट के रूप में भी दिया जाता है।
बच्चों का मनोरंजन
यह उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं कि संसार के सभी देशों के बच्चे खिलौनों से मनोरंजन करते हैं और कम से कम इस संदर्भ में समूची मानवता अखंड है। प्राय: एक ही प्रकार से खिलौनों का सर्वत्र विकास हुआ है। मानव जाति के विकास के साथ साथ उसके खिलौनों के विकास का अध्ययन भी कुछ कम मनोरंजक नहीं है। अब तो ऐसे खिलौने बनने लगे है जिनसे मनोरंजन के साथ साथ अनेक उपयोगी बातों की शिक्षा भी मिलती है। ऐसा ही एक खिलौना मेकानो है, जिससे इंजीनियरी की अनेक बातें बालक खेल खेल में सीख लेते हैं। कुछ वर्षों पूर्व उत्तर प्रदेश शासन ने अंतरराष्ट्रीय खिलौनों की प्रदर्शनी आयोजित की थी जिसमें अनेक देशों के खिलौने प्रदर्शित किए गए थे। अब दिल्ली में खिलौनों का एक स्थायी संग्रहालय है जिसमें प्राय: सभी देशों के खिलौने हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ