"रफ़ी अहमद क़िदवई": अवतरणों में अंतर

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किदवई, रफी अहमद भारतीय राजनीति के जाज्वल्यमान नक्षत्र थे। जन्म बाराबंकी जिले के मसौली ग्राम के एक जमींदार उच्चपदस्थ सरकारी अधिकारी के परिवार में हुआ था। अपने राष्ट्रीय विचारोंवाले चाचा के संरक्षण में रफी अहमद के व्यक्तित्व का विकास हुआ। उन्होंने गवर्नमेंट हाईस्कूल (बाराबंकी) से मैट्रिक परीक्षा उर्त्त्णी की और एम. ए. ओ. कालेज, अलीगढ़ से कला में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। दो वर्ष पश्चात्‌ जब उनकी कानून की परीक्षा प्रारंभ होने वाली थी, उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर सरकार द्वारा नियंत्रित एम. ए. ओ. कालेज का अन्य कतिपय सहपाठियों के साथ बहिष्कार कर दिया और असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे। उनके चाचा विलायत अली खाँ तब तक दिवंगत हो चुके थे। वे प्राय: घर से दूर रहते थे। ब्रिटिश सरकार के विस्र्द्ध प्रदर्शन करने और नारे लगाने के अभियोग में उन्हें दस मास का कठोर कारावास का दंड दिया गया।
किदवई, रफी अहमद भारतीय राजनीति के जाज्वल्यमान नक्षत्र थे। जन्म बाराबंकी जिले के मसौली ग्राम के एक जमींदार उच्चपदस्थ सरकारी अधिकारी के परिवार में हुआ था। अपने राष्ट्रीय विचारोंवाले चाचा के संरक्षण में रफी अहमद के व्यक्तित्व का विकास हुआ। उन्होंने गवर्नमेंट हाईस्कूल (बाराबंकी) से मैट्रिक परीक्षा उर्त्त्णी की और एम. ए. ओ. कालेज, अलीगढ़ से कला में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। दो वर्ष पश्चात्‌ जब उनकी कानून की परीक्षा प्रारंभ होने वाली थी, उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर सरकार द्वारा नियंत्रित एम. ए. ओ. कालेज का अन्य कतिपय सहपाठियों के साथ बहिष्कार कर दिया और असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे। उनके चाचा विलायत अली खाँ तब तक दिवंगत हो चुके थे। वे प्राय: घर से दूर रहते थे। ब्रिटिश सरकार के विस्र्द्ध प्रदर्शन करने और नारे लगाने के अभियोग में उन्हें दस मास का कठोर कारावास का दंड दिया गया।


रफी अहमद का विवाह सन्‌ 1९1८ में हुआ था जिससे उन्हें एक पुत्र हुआ। दुर्भाग्यवश बच्चा सात वर्ष की आयु में ही चल बसा।
रफी अहमद का विवाह सन्‌ 1९18 में हुआ था जिससे उन्हें एक पुत्र हुआ। दुर्भाग्यवश बच्चा सात वर्ष की आयु में ही चल बसा।


कारावास से मुक्ति के पश्चात्‌ रफी अहमद मोतीलाल नेहरू के आवास आनंदभवन चले गए। मोतीलाल नेहरू ने उन्हें अपना सचिव नियुक्त कर दिया। वे मोतीलाल नेहरू द्वारा संगठित स्वराज्य पार्टी के सक्रिय सदस्य हो गए। किदवई का नेहरूद्वय और विशेषकर जवाहरलाल में अटूट विश्वास था। उनकी संपूर्ण राजनीति जवाहरलाल जी के प्रति मोह से प्रभावित रही। वे नेहरू के पूरक थे। नेहरू जी योजना बनाते थे और रफी अहमद उसे कार्यान्वित करते थे। वे अच्छे वक्ता नहीं थे, लेकिन संगठन की उनमें अपूर्व क्षमता थी। सन्‌ 1९26 में वे स्वराज्य पार्टी के टिकट पर लखनऊ फैजाबाद क्षेत्र से केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा के सदस्य निर्वाचित हुए और स्वराज्य पार्टी के मुख्य सचेतक नियुक्त किए गए। रफी अहमद गांधी-इरविन-समझौते से असंतुष्ट थे। प्रतिक्रिया स्वरूप स्वराज्य-प्रप्ति हेतु क्रांति का मार्ग ग्रहण करने के लिए उद्यत थे। इस संबंध में सन्‌ 1९31 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कराँची अधिवेशन के अवसर पर उन्होंने मानवेंद्रनाथ राय से परामर्श किया। उनके परामर्शानुसार किदवई ने जवाहरलाल नेहरू जी के साथ इलाहाबाद और समीपवर्ती जिलों के किसानों के मध्य कार्य करना प्रारंभ किया और जमींदारों द्वारा किए जा रहे उनके दोहन और शोषण की समाप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहे।
कारावास से मुक्ति के पश्चात्‌ रफी अहमद मोतीलाल नेहरू के आवास आनंदभवन चले गए। मोतीलाल नेहरू ने उन्हें अपना सचिव नियुक्त कर दिया। वे मोतीलाल नेहरू द्वारा संगठित स्वराज्य पार्टी के सक्रिय सदस्य हो गए। किदवई का नेहरूद्वय और विशेषकर जवाहरलाल में अटूट विश्वास था। उनकी संपूर्ण राजनीति जवाहरलाल जी के प्रति मोह से प्रभावित रही। वे नेहरू के पूरक थे। नेहरू जी योजना बनाते थे और रफी अहमद उसे कार्यान्वित करते थे। वे अच्छे वक्ता नहीं थे, लेकिन संगठन की उनमें अपूर्व क्षमता थी। सन्‌ 1९26 में वे स्वराज्य पार्टी के टिकट पर लखनऊ फैजाबाद क्षेत्र से केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा के सदस्य निर्वाचित हुए और स्वराज्य पार्टी के मुख्य सचेतक नियुक्त किए गए। रफी अहमद गांधी-इरविन-समझौते से असंतुष्ट थे। प्रतिक्रिया स्वरूप स्वराज्य-प्रप्ति हेतु क्रांति का मार्ग ग्रहण करने के लिए उद्यत थे। इस संबंध में सन्‌ 1९31 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कराँची अधिवेशन के अवसर पर उन्होंने मानवेंद्रनाथ राय से परामर्श किया। उनके परामर्शानुसार किदवई ने जवाहरलाल नेहरू जी के साथ इलाहाबाद और समीपवर्ती जिलों के किसानों के मध्य कार्य करना प्रारंभ किया और जमींदारों द्वारा किए जा रहे उनके दोहन और शोषण की समाप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहे।

०८:३३, १८ अगस्त २०११ का अवतरण

लेख सूचना
रफ़ी अहमद क़िदवई
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 6-7
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी

किदवई, रफी अहमद भारतीय राजनीति के जाज्वल्यमान नक्षत्र थे। जन्म बाराबंकी जिले के मसौली ग्राम के एक जमींदार उच्चपदस्थ सरकारी अधिकारी के परिवार में हुआ था। अपने राष्ट्रीय विचारोंवाले चाचा के संरक्षण में रफी अहमद के व्यक्तित्व का विकास हुआ। उन्होंने गवर्नमेंट हाईस्कूल (बाराबंकी) से मैट्रिक परीक्षा उर्त्त्णी की और एम. ए. ओ. कालेज, अलीगढ़ से कला में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। दो वर्ष पश्चात्‌ जब उनकी कानून की परीक्षा प्रारंभ होने वाली थी, उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर सरकार द्वारा नियंत्रित एम. ए. ओ. कालेज का अन्य कतिपय सहपाठियों के साथ बहिष्कार कर दिया और असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे। उनके चाचा विलायत अली खाँ तब तक दिवंगत हो चुके थे। वे प्राय: घर से दूर रहते थे। ब्रिटिश सरकार के विस्र्द्ध प्रदर्शन करने और नारे लगाने के अभियोग में उन्हें दस मास का कठोर कारावास का दंड दिया गया।

रफी अहमद का विवाह सन्‌ 1९18 में हुआ था जिससे उन्हें एक पुत्र हुआ। दुर्भाग्यवश बच्चा सात वर्ष की आयु में ही चल बसा।

कारावास से मुक्ति के पश्चात्‌ रफी अहमद मोतीलाल नेहरू के आवास आनंदभवन चले गए। मोतीलाल नेहरू ने उन्हें अपना सचिव नियुक्त कर दिया। वे मोतीलाल नेहरू द्वारा संगठित स्वराज्य पार्टी के सक्रिय सदस्य हो गए। किदवई का नेहरूद्वय और विशेषकर जवाहरलाल में अटूट विश्वास था। उनकी संपूर्ण राजनीति जवाहरलाल जी के प्रति मोह से प्रभावित रही। वे नेहरू के पूरक थे। नेहरू जी योजना बनाते थे और रफी अहमद उसे कार्यान्वित करते थे। वे अच्छे वक्ता नहीं थे, लेकिन संगठन की उनमें अपूर्व क्षमता थी। सन्‌ 1९26 में वे स्वराज्य पार्टी के टिकट पर लखनऊ फैजाबाद क्षेत्र से केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा के सदस्य निर्वाचित हुए और स्वराज्य पार्टी के मुख्य सचेतक नियुक्त किए गए। रफी अहमद गांधी-इरविन-समझौते से असंतुष्ट थे। प्रतिक्रिया स्वरूप स्वराज्य-प्रप्ति हेतु क्रांति का मार्ग ग्रहण करने के लिए उद्यत थे। इस संबंध में सन्‌ 1९31 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कराँची अधिवेशन के अवसर पर उन्होंने मानवेंद्रनाथ राय से परामर्श किया। उनके परामर्शानुसार किदवई ने जवाहरलाल नेहरू जी के साथ इलाहाबाद और समीपवर्ती जिलों के किसानों के मध्य कार्य करना प्रारंभ किया और जमींदारों द्वारा किए जा रहे उनके दोहन और शोषण की समाप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहे।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के निर्णयानुसार रफी अहमद ने केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। वे उत्तर प्रदेश कांग्रेस के महामंत्री और बाद में अध्यक्ष निर्वाचित हुए। सन्‌ 1९37 के महानिर्वाचन में वे उत्तर प्रदेश कांग्रेस के चुनाव संचालक थे। वे स्वयं दो स्थानों से प्रत्याशी रहे, पर दोनों क्षेत्रों से पराजित हुए। मुसलिम लीग के प्रभाव के कारण उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के लिए सुरक्षित स्थानों में से एक पर भी कांग्रेस प्रत्याशी विजयी न हो सका। रफी अहमद बाद में एक उपनिर्वाचन में विजयी हुए। वे उत्तर प्रदेश सरकार में राजस्वमंत्री नियुक्त किए गए। उत्तर प्रदेश के दखीलकारी (टेनेंसी) विधेयक उनके मंत्रित्वकाल की क्रांतिकारी देन थी। द्वितीय महायुद्ध के समय कांग्रेस के निर्णयानुसार सभी मंत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दे दिए।

रफी अहमद का व्यक्तित्व अत्यंत रहस्यमय और निर्भीक था। उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में वरिष्ठ पद पर रहकर उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिये उच्च कमान के आधिकारिक प्रत्याशी पट्टाभि सीतारमैया के विरुद्ध सुभाषचंद्र बोस को खुला समर्थन दिया और उनके पक्ष में प्रचार किया। श्री बोस विजयी हुए। सन्‌ 1९4९ में उन्होंने अध्यक्ष पद के लिए सरदार बल्लभ भाई पटेल के प्रत्याशी पुरुषोत्मदास टंडन के विरुद्ध डा. सीतारमैया का समर्थन किया। श्री टंडन पराजित हुए।

सन्‌ 1९46 में रफी अहमद किदवई पुन: उत्तर प्रदेश के राजस्वमंत्री नियुक्त हुए। उन्होंने कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र के अनुसार जमींदारी उन्मूलन का प्रस्ताव विधान सभा द्वारा सिद्धांत रूप में स्वीकृत कराया। देशविभाजन के समय वे उत्तर प्रदेश के गृहमंत्री थे। श्री किदवई किसी भी राष्ट्रीय मुसलमान से अधिक धर्म निरपेक्षता के पक्षपाती थे पर दुर्भाग्यवश उनके विरुद्ध सांप्रदायिकता को प्रश्रय देने की तीव्र चर्चा प्रारंभ हो गई। इस प्रकरण को समाप्त करेन के लिए जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें केंद्र में बुला लिया। वे केंद्रीय मंत्रिमंडल के संचार एवं नागरिक उड्डयन मंत्री नियुक्त किए गए।

जवाहरलाल जी की समाजवाद में आस्था थी और सरदार पटेल दक्षिणपंथी विचारधारा के पोषक थे। कांग्रेस संगठन पर सरदार का अधिकार था। यद्यपि सरदार पटेल ने नेहरू जी को प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया था, तथापि किदवई को इस कटु सत्य का स्पष्ट भान था कि सरदार पटेल की उपस्थिति में नेहरू जी शासन के नाममात्र के अध्यक्ष रहेंगे। वे नेहरू जी का मार्ग निष्कंटक बनाना चाहते थे, जिससे कांग्रेस की सत्ता उनके हाथ में हो। रफी अहमद अपने प्रयास में विफल रहे। उत्तर प्रदेश में रफी-समूह के विधायकों पर अनुशासनहीनता के आरोप लगाकर उसके नेताओं को कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया। रफी-समूह विरोध पक्ष में आ गया। मई, 1९51 में कांग्रेस महासमिति की आहूत बैठक में टंडन जी से समझौता न होने पर आचार्य कृपलानी ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया, पर रफी की अनिश्चय की स्थिति बनी रही। यदि वे नेहरू जी का मोह त्यागकर कांग्रेस से पृथक ही गए होते तो या तो राजनीति में समाप्त हो जाते या देश के सर्वोच्च नेता होते और शीघ्र ही शासन की बागडोर उनके हाथ में आ जाती। जुलाई में बंगलौर अधिवेशन से निराश होकर उन्होंने कांग्रेस की प्रारंभिक सदस्यता और केंद्रीय मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया और किसान मजदूर प्रजा पार्टी की सदस्यता स्वीकार कर ली। जवाहरलाल जी के कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित होने के पश्चात्‌ रफी अहमद पुन: कांग्रेस में लौट आए।

सन्‌ 1९52 में बहराइच संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से विजयी होने के पश्चात्‌ वे भारत के खाद्य और कृषि मंत्री नियुक्त हुए। संचार और नागरिक उड्डयन मंत्री के रूप में कई क्रांतिकारी कार्यों के लिये उन्होंने पर्याप्त ख्याति अर्जित की थी। सभी को शंका थी कि सदा से अशुभ खाद्य मंत्रालय उनके राजनीतिक भविष्य के लिये भी अशुभ सिद्ध होगा। पर किदवई ने चमत्कार कर दिया। कृत्रिम अभाव की स्थिति को समाप्त करने के लिए मनोवैज्ञानिक उपचार के आवश्यक पग उठाए और खाद्यान्न व्यापार को नियंत्रणमुक्त कर दिया। प्रकृति ने भी किदवई का साथ दिया। यह उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा का चरमोत्कर्ष था। शीघ्र ही उपप्रधान मंत्री के रिक्त स्थान पर उनकी नियुक्ति की संभावना थी। लेकिन सन्‌ 1९36 से ही उच्च रक्तचाप और हृदरोग से पीड़ित रफी अहमद के स्वास्थ्य ने उनका साथ नहीं दिया। 24 अक्टूबर, 1९54 को हृदयगति रूक जाने से उनका दिल्ली में देहावसान हो गया।

टीका टिप्पणी और संदर्भ