"महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-4": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
No edit summary
No edit summary
 
पंक्ति १: पंक्ति १:
==द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)==
==द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-2 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-4 का हिन्दी अनुवाद </div>


फिर भी मेरी माया से मोहित रहते हैं, इसलिये मुझे नहीं जान पाते। ‘राजन् ! इस प्रकार देवता, असुर और मनुष्‍यों सहित समस्‍त संसार का मुझसे ही जन्‍म और मुझमें ही लय होता है’। चारों वर्णों के कर्म और उनके फलों का वर्णन तथा धर्म की वृद्धि और पाप के क्षय होने का उपाय  
फिर भी मेरी माया से मोहित रहते हैं, इसलिये मुझे नहीं जान पाते। ‘राजन् ! इस प्रकार देवता, असुर और मनुष्‍यों सहित समस्‍त संसार का मुझसे ही जन्‍म और मुझमें ही लय होता है’। चारों वर्णों के कर्म और उनके फलों का वर्णन तथा धर्म की वृद्धि और पाप के क्षय होने का उपाय  

०५:०६, २ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-4 का हिन्दी अनुवाद

फिर भी मेरी माया से मोहित रहते हैं, इसलिये मुझे नहीं जान पाते। ‘राजन् ! इस प्रकार देवता, असुर और मनुष्‍यों सहित समस्‍त संसार का मुझसे ही जन्‍म और मुझमें ही लय होता है’। चारों वर्णों के कर्म और उनके फलों का वर्णन तथा धर्म की वृद्धि और पाप के क्षय होने का उपाय वेशम्‍पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्‍ण ने सम्‍पूर्ण जगत् को अपने से उत्‍पन्‍न बतलाकर धर्मनन्‍दन युधिष्‍ठिर से पवित्र धर्मों ‘पाण्‍डुनन्‍दन ! मेरे द्वारा कहे हुए धर्मशास्‍त्र का पुण्‍यमय, पापनाशक, पवित्र और महन् फल यथार्थ – रूप से सुनो। ‘युधिष्‍ठिर ! जो मनुष्‍य पवित्र और एकाग्रचित्‍त होकर तपस्‍या में संलग्‍न हो स्‍वर्ग, यश और आयु प्रदान करने वाले जानने योग्‍य धर्म का श्रवण करता है, उस श्रद्धालु पुरुष के – विशेषत: मेरे भक्‍त के पूर्व संचित जितने पाप होते हैं, वे सब तत्‍काल नष्‍ट हो जाते हैं’। वैशम्‍पायनजी कहते हैं – राजन् ! श्रीकृष्‍ण का यह परम पवित्र और सत्‍य वचन सुनकर मन – ही – मन प्रसन्‍न हो धर्म के अद्भुत रहस्‍य का चिन्‍तन करते हुए सम्‍पूर्ण देवर्षि, ब्रह्मर्षि, गन्‍धर्व, अप्‍सराएं, भूत, यक्ष, ग्रह, गुहाक, सर्प, महात्‍मा बालखिल्‍यगण, तत्‍वदर्शी योगी तथा पांचों उपासना करने वाले भगवद् भक्‍त पुरुष उत्‍तम वैष्‍णव – धर्म का उपदेश सुनने तथा भगवान् की बात हृदय में धारण करने के लिये अत्‍यन्‍त उत्‍कण्‍ठित होकर वहां आये । उनके इन्‍द्रिय और मन अत्‍यन्‍त हर्षित हो रहे थे । आने के बाद उन सबने मस्‍तक झुकाकर भगवान् को प्रणाम किया। भगवान् की दिव्‍य दृष्‍टि पड़ने से वे सब निष्‍पाप हो गये । उन्‍हें उपस्‍थित देखकर महाप्रतापी धर्मपुत्र युधिष्‍ठिर ने भगवान् को प्रणाम करके इस प्रकार धर्म विषयक प्रश्‍न किया। युधिष्‍ठिर ने पूछा – देवेश्‍वर ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शुद्र की पृथक् – पृथक् कैसी गति होती है ? श्रीभगवान् ने कहा – नरश्रेष्‍ठ धर्मराज ! ब्राह्मणादि वर्णों के क्रम से धर्म का वर्णन सुनो । ब्राह्मण के लिये कुछ भी दुष्‍कर नहीं है। जो ब्राह्मण शिखा और यज्ञोपवीत धारण करते हैं, संध्‍योपासना करते हैं, पूर्णाहुति देते हैं, विधिवत् अग्‍निहोत्र करते हैं, बलिवैश्‍वदेव और अतिथियों का पूजन करते हैं, नित्‍य स्‍वाध्‍याय में लगे रहते हैं तथा जप – यज्ञ के परायण है ; जो प्रात:काल और सांयकाल होम करने के बाद ही अन्‍न ग्रहण करते हैं, शूद्र का अन्‍न नहीं खाते हैं, दम्‍भ और मिथ्‍या भाषण से दूर रहते हैं, अपनी ही स्‍त्री से प्रेम रखते हैं तथा पंच यज्ञ और अग्‍निहोत्रकरते रहते हैं, जिनके सब पापों को हवन की जाने वाली तीनों अग्‍नियां भस्‍म कर देती हैं, वे ब्राह्मण पापरहित होकर ब्रह्मलोक को प्राप्‍त होते हैं। क्षत्रियों में भी जो राज्‍य सिंहासन पर आसीन होने के बाद अपने धर्म का पालन और प्रजा की भली भांति रक्षा करता है, लगान के रूप में प्रजा की आमदनी का छठा भाग लेकर सदा उतने से ही संतोष करता है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।