"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 66 श्लोक 1-21": अवतरणों में अंतर

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==छाछठवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)==
==षट्षष्टितम (66) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद </div>


<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: छाछठवाँ अध्याय: श्लोक 1-31 का हिन्दी अनुवाद </div>
जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्‍न के दान का माहात्‍म्‍य


जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्‍न के दान का माहात्‍म्‍य
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। गर्मी के दिनों में जिसके पैर जल रहे हों, ऐसे ब्राह्माण को जो जूते पहनाता है, उसका जो फल मिलता है, वह मुझे बताइये। भीष्मजी ने कहा- युधिष्ठिर । जो एकाग्रचित होकर ब्राह्माणों के लिये जूते दान करता है, वह सब कंटकों को मसल डालता है और कठिन विपत्ति से भी पार हो जाता है। इतना ही नहीं, वह शत्रुओं के ऊपर विराजमान होता है। प्रजानाथ। उस जन्मान्तर में खच्चरियों से जुता हुआ उज्वल रथ प्राप्त होता है।कुन्तीकुमार। जो नये बैलों से युक्त शकट दान करता है, उसे चांदी और सोने से जटित रथ प्राप्त होते हैं। युधिष्ठिर ने पूछा- कुरूनन्दन। तिल, भूमि, गौर और अन्न का दान करने से क्या फल मिलता है? इसका फिर से वर्णन किजिये। भीष्मजी ने कहा- कुन्तीनन्दन। कुरूश्रेष्ठ। तिलदान का जो फल है वह मुझसे सुनो और सुनकर यथोचित रूप से उसका दान करो । ब्रह्माजी ने जो तिल उत्पन्न किये हैं, वे पितरों के सर्वश्रेष्ठ खाद्य पदार्थ हैं। इसलिये तिल दान करने से पितरों को बड़ी प्रसन्नता होती है । जो माघ मास में ब्राह्माणों को तिल दान करता है, वह समस्त जन्तुओं से भरे हुए नरक का दर्शन नहीं करता। जो तिलों के द्वारा पितरों का पूजन करता है, वह मानो सम्पूर्ण यज्ञों का अनुष्ठान कर लेता है। तिल-श्राद्ध कभी निष्काम पुरूष को नहीं करना चाहिये । प्रभो। यह तिल महर्षि कश्‍यप के अंगों से प्रकट होकर विस्तार को प्राप्त हुए है; इसलिये दान के निमित्त इनमें दिव्यता आ गयी है। तिल पौष्टिक पदार्थ है। वे सुन्दर रूप देने वाले और पाप नाशक हैं इसलिये तिल-दान सब दानों से बढ़कर है। परम बुद्विमान महर्षि आपस्तम्ब, शंख, लिखित तथा गौतम- ये तिलों का दान करके दिव्य लोक को प्राप्त हुऐ हैं। वे सभी ब्राह्माण स्त्री-समागम से दूर रहकर तिलों का हवन किया करते थे, तिल गौर घृत के समान हवी के योग्य माने गये हैं इसलिये यज्ञों में गृहित होते हैं एवं हरेक कर्मों में उनकी आवश्‍यकता है । अतः तिल दान सब दानों से वढ़कर है। तिल दान यहां सब दानों में अक्षय फल देने वाला बताया जाता है।पूर्व काल में परंतप राजर्षि कुशिक हविष्य समाप्त हो जाने पर तिलों से ही हवन करके तीनों अग्नियों को तृप्त किया था; इससे उन्हें उत्तम गति प्राप्त हुई। कुरूश्रेष्ठ। इस प्रकार जिस विधि के अनुसार तिल दान करना उत्तम बताया गया है वह सर्वोत्तम तिल दान का विधान यहां बताया गया। महाराज इसके बाद यज्ञ की इच्छा वाले देवताओं और स्वयम्भू ब्रह्माजी के समागम होने पर उनमें परस्पर जो बातचीत हुई थी, उसे बता रहा हूं इस पर ध्यान दो।पृथ्वीनाथ। भूतल के किसी भाग में यज्ञ करने की इच्छा वाले देवता ब्रह्माजी के पास जाकर किसी शुभ देश की याचना करने लगे, जहां यज्ञ कर सके। देवता बोले- भगवन। महाभाग। आप पृथ्वी और सम्पूर्ण स्वर्ग के स्वामी हैं; अतः हम आपकी आज्ञा लेकर पृथ्वी पर यज्ञ करेंगे। क्योंकि भूस्वामी जिस भूमि पर यज्ञ करने की अनुमति नहीं देता, उस भूमि पर यदि यज्ञ किया जाये तो उसका फल नहीं होता।आप सम्पूर्ण चराचर जगत के स्वामी हैं; अतः पृथ्वी पर यज्ञ करने के लिये हमें आज्ञा दीजिये।ब्रह्माजी ने कहा- काष्यपनन्दन सुरश्रेष्ठगण। तुम लोग पृथ्वी के जिस प्रदेश में यज्ञ करोगे वही भूभाग मैं तुम्हें दे रहा हूं।  
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। गर्मी के दिनों में जिसके पैर जल रहे हों, ऐसे ब्राह्माण को जो जूते पहनाता है, उसका जो फल मिलता है, वह मुझे बताइये। भीष्मजी ने कहा- युधिष्ठिर । जो एकाग्रचित होकर ब्राह्माणों के लिये जूते दान करता है, वह सब कंटकों को मसल डालता है और कठिन विपत्ति से भी पार हो जाता है। इतना ही नहीं, वह शत्रुओं के ऊपर विराजमान होता है। प्रजानाथ। उस जन्मान्तर में खच्चरियों से जुता हुआ उज्वल रथ प्राप्त होता है।कुन्तीकुमार। जो नये बैलों से युक्त शकट दान करता है, उसे चांदी और सोने से जटित रथ प्राप्त होते हैं। युधिष्ठिर ने पूछा- कुरूनन्दन। तिल, भूमि, गौर और अन्न का दान करने से क्या फल मिलता है? इसका फिर से वर्णन किजिये। भीष्मजी ने कहा- कुन्तीनन्दन। कुरूश्रेष्ठ। तिलदान का जो फल है वह मुझसे सुनो और सुनकर यथोचित रूप से उसका दान करो । ब्रह्माजी ने जो तिल उत्पन्न किये हैं, वे पितरों के सर्वश्रेष्ठ खाद्य पदार्थ हैं। इसलिये तिल दान करने से पितरों को बड़ी प्रसन्नता होती है । जो माघ मास में ब्राह्माणों को तिल दान करता है, वह समस्त जन्तुओं से भरे हुए नरक का दर्शन नहीं करता। जो तिलों के द्वारा पितरों का पूजन करता है, वह मानो सम्पूर्ण यज्ञों का अनुष्ठान कर लेता है। तिल-श्राद्ध कभी निष्काम पुरूष को नहीं करना चाहिये । प्रभो। यह तिल महर्षि कश्‍यप के अंगों से प्रकट होकर विस्तार को प्राप्त हुए है; इसलिये दान के निमित्त इनमें दिव्यता आ गयी है। तिल पौष्टिक पदार्थ है। वे सुन्दर रूप देने वाले और पाप नाशक हैं इसलिये तिल-दान सब दानों से बढ़कर है। परम बुद्विमान महर्षि आपस्तम्ब, शंख, लिखित तथा गौतम- ये तिलों का दान करके दिव्य लोक को प्राप्त हुऐ हैं। वे सभी ब्राह्माण स्त्री-समागम से दूर रहकर तिलों का हवन किया करते थे, तिल गौर घृत के समान हवी के योग्य माने गये हैं इसलिये यज्ञों में गृहित होते हैं एवं हरेक कर्मों में उनकी आवश्‍यकता है । अतः तिल दान सब दानों से वढ़कर है। तिल दान यहां सब दानों में अक्षय फल देने वाला बताया जाता है।पूर्व काल में परंतप राजर्षि कुशिक हविष्य समाप्त हो जाने पर तिलों से ही हवन करके तीनों अग्नियों को तृप्त किया था; इससे उन्हें उत्तम गति प्राप्त हुई। कुरूश्रेष्ठ। इस प्रकार जिस विधि के अनुसार तिल दान करना उत्तम बताया गया है वह सर्वोत्तम तिल दान का विधान यहां बताया गया। महाराज इसके बाद यज्ञ की इच्छा वाले देवताओं और स्वयम्भू ब्रह्माजी के समागम होने पर उनमें परस्पर जो बातचीत हुई थी, उसे बता रहा हूं इस पर ध्यान दो।पृथ्वीनाथ। भूतल के किसी भाग में यज्ञ करने की इच्छा वाले देवता ब्रह्माजी के पास जाकर किसी शुभ देश की याचना करने लगे, जहां यज्ञ कर सके। देवता बोले- भगवन। महाभाग। आप पृथ्वी और सम्पूर्ण स्वर्ग के स्वामी हैं; अतः हम आपकी आज्ञा लेकर पृथ्वी पर यज्ञ करेंगे। क्योंकि भूस्वामी जिस भूमि पर यज्ञ करने की अनुमति नहीं देता, उस भूमि पर यदि यज्ञ किया जाये तो उसका फल नहीं होता।आप सम्पूर्ण चराचर जगत के स्वामी हैं; अतः पृथ्वी पर यज्ञ करने के लिये हमें आज्ञा दीजिये।ब्रह्माजी ने कहा- काष्यपनन्दन सुरश्रेष्ठगण। तुम लोग पृथ्वी के जिस प्रदेश में यज्ञ करोगे वही भूभाग मैं तुम्हें दे रहा हूं। देवताओं ने कहा- भगवन। हमारा कार्य हो गया। अब हम पर्याप्त दक्षिणा वाले यज्ञ पुरूष का यजन करेंगे। यह जो हिमालय के पास का प्रदेश है, इसका ऋषि-मुनि सदा से ही आश्रय लेते हैं (अतः हमारा यज्ञ भी यहीं होगा)। तदनन्तर अगस्त्य, कण्व, भृगु, अत्रि, वृषाकपि, असित और देवल देवताओं के उस यज्ञ में उपस्थित हुए। तब महामनस्वी देवताओं ने यज्ञ पुरूष अच्युत का यजन आरम्भ किया और उन श्रेष्ठ देवगणों ने यथा समय यज्ञ को समाप्त भी कर दिया।पर्वत राज हिमालय के पास यज्ञ पूरा करके देवताओं ने भूमि दान भी दिया, जो उस यज्ञ के छठे भाग के बरावर पुण्य का जनक था। जिसको खोद खाद कर खराब न कर दिया गया हो ऐसे प्रादेश मात्र भूभाग का जो दान करता है, वह न तो दुर्गम संकटों में पड़ता और न पड़ने पर कभी दुःखी ही होता है। जो सर्दी, गर्मी और हवा के वेग को सहन करने योग्य सजी-सजायी गृह-भूमि दान करता है, वह देवलोक में निवास करता है। पुण्य का भोग समाप्त होने पर भी वहां से हटाया नहीं जाता। पृथ्वीनाथ जो विद्वान गृह दान करता है वह भी उसके पुण्य से इन्द्र के साथ आनन्दपूर्वक निवास करता और स्वर्गलोक में सम्मानित होता है। अध्यापक-वंश में उत्पन्न श्रोत्रिय एवं जितेन्द्रिय ब्राह्माण जिसके दिये हुए घर में प्रसन्नता से रहता है, उसे श्रेष्ठ लोक प्राप्त होते हैं। भरतश्रेष्ठ। जो गौओं के लिये सर्दी और बर्षा से बचाने वाला सुदृद्व निवास स्थान बनवाता है वह अपनी सात पीढि़यों का उद्वार कर देता है। खेत के योग्य भूमि दान करने वाला मनुष्य जगत में शुभ संपत्ति प्राप्त करता है और जो रत्न युक्त भूमि का दान करता है, वह अपने कुल की वंश -परंपरा को बढाता है।


{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 65 श्लोक 1-19|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 66 श्लोक 32-65}}
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 65 श्लोक 1-19|अगला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 66 श्लोक 22-43}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०७:४२, ७ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

षट्षष्टितम (66) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्‍न के दान का माहात्‍म्‍य

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। गर्मी के दिनों में जिसके पैर जल रहे हों, ऐसे ब्राह्माण को जो जूते पहनाता है, उसका जो फल मिलता है, वह मुझे बताइये। भीष्मजी ने कहा- युधिष्ठिर । जो एकाग्रचित होकर ब्राह्माणों के लिये जूते दान करता है, वह सब कंटकों को मसल डालता है और कठिन विपत्ति से भी पार हो जाता है। इतना ही नहीं, वह शत्रुओं के ऊपर विराजमान होता है। प्रजानाथ। उस जन्मान्तर में खच्चरियों से जुता हुआ उज्वल रथ प्राप्त होता है।कुन्तीकुमार। जो नये बैलों से युक्त शकट दान करता है, उसे चांदी और सोने से जटित रथ प्राप्त होते हैं। युधिष्ठिर ने पूछा- कुरूनन्दन। तिल, भूमि, गौर और अन्न का दान करने से क्या फल मिलता है? इसका फिर से वर्णन किजिये। भीष्मजी ने कहा- कुन्तीनन्दन। कुरूश्रेष्ठ। तिलदान का जो फल है वह मुझसे सुनो और सुनकर यथोचित रूप से उसका दान करो । ब्रह्माजी ने जो तिल उत्पन्न किये हैं, वे पितरों के सर्वश्रेष्ठ खाद्य पदार्थ हैं। इसलिये तिल दान करने से पितरों को बड़ी प्रसन्नता होती है । जो माघ मास में ब्राह्माणों को तिल दान करता है, वह समस्त जन्तुओं से भरे हुए नरक का दर्शन नहीं करता। जो तिलों के द्वारा पितरों का पूजन करता है, वह मानो सम्पूर्ण यज्ञों का अनुष्ठान कर लेता है। तिल-श्राद्ध कभी निष्काम पुरूष को नहीं करना चाहिये । प्रभो। यह तिल महर्षि कश्‍यप के अंगों से प्रकट होकर विस्तार को प्राप्त हुए है; इसलिये दान के निमित्त इनमें दिव्यता आ गयी है। तिल पौष्टिक पदार्थ है। वे सुन्दर रूप देने वाले और पाप नाशक हैं इसलिये तिल-दान सब दानों से बढ़कर है। परम बुद्विमान महर्षि आपस्तम्ब, शंख, लिखित तथा गौतम- ये तिलों का दान करके दिव्य लोक को प्राप्त हुऐ हैं। वे सभी ब्राह्माण स्त्री-समागम से दूर रहकर तिलों का हवन किया करते थे, तिल गौर घृत के समान हवी के योग्य माने गये हैं इसलिये यज्ञों में गृहित होते हैं एवं हरेक कर्मों में उनकी आवश्‍यकता है । अतः तिल दान सब दानों से वढ़कर है। तिल दान यहां सब दानों में अक्षय फल देने वाला बताया जाता है।पूर्व काल में परंतप राजर्षि कुशिक हविष्य समाप्त हो जाने पर तिलों से ही हवन करके तीनों अग्नियों को तृप्त किया था; इससे उन्हें उत्तम गति प्राप्त हुई। कुरूश्रेष्ठ। इस प्रकार जिस विधि के अनुसार तिल दान करना उत्तम बताया गया है वह सर्वोत्तम तिल दान का विधान यहां बताया गया। महाराज इसके बाद यज्ञ की इच्छा वाले देवताओं और स्वयम्भू ब्रह्माजी के समागम होने पर उनमें परस्पर जो बातचीत हुई थी, उसे बता रहा हूं इस पर ध्यान दो।पृथ्वीनाथ। भूतल के किसी भाग में यज्ञ करने की इच्छा वाले देवता ब्रह्माजी के पास जाकर किसी शुभ देश की याचना करने लगे, जहां यज्ञ कर सके। देवता बोले- भगवन। महाभाग। आप पृथ्वी और सम्पूर्ण स्वर्ग के स्वामी हैं; अतः हम आपकी आज्ञा लेकर पृथ्वी पर यज्ञ करेंगे। क्योंकि भूस्वामी जिस भूमि पर यज्ञ करने की अनुमति नहीं देता, उस भूमि पर यदि यज्ञ किया जाये तो उसका फल नहीं होता।आप सम्पूर्ण चराचर जगत के स्वामी हैं; अतः पृथ्वी पर यज्ञ करने के लिये हमें आज्ञा दीजिये।ब्रह्माजी ने कहा- काष्यपनन्दन सुरश्रेष्ठगण। तुम लोग पृथ्वी के जिस प्रदेश में यज्ञ करोगे वही भूभाग मैं तुम्हें दे रहा हूं।


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