"महाभारत आदि पर्व अध्याय 166 भाग-3": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('==षट् षष्‍टयधिकशततम (166) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
No edit summary
पंक्ति १: पंक्ति १:
==षट् षष्‍टयधिकशततम (166) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व )==
==षट्षष्‍टयधिकशततम (166) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व )==


<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: षट् षष्‍टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 34-47 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: षट्षष्‍टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 34-47 का हिन्दी अनुवाद</div>


        
        

०८:००, १० अगस्त २०१५ का अवतरण

षट्षष्‍टयधिकशततम (166) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व )

महाभारत: आदि पर्व: षट्षष्‍टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 34-47 का हिन्दी अनुवाद


और कहा- ‘राजन् ! इस यज्ञ से तुम जैसा पुत्र चाहते हो, वैसा ही तुम्‍हें होगा। तुम्‍हारा वह पुत्र महान् पराक्रमी, महातेजस्‍वी और महाबली होगा’। तदनन्‍तर द्रोण के घातक पुत्र का संकल्‍प लेकर राजा द्रुपद ने कर्म की सिद्धि के लिये उपयाज के कथनानुसार सारी व्‍यवस्‍था की। हवन के अन्‍त में याज ने द्रुपद की रानी को आज्ञा दी-‘पृषत की पुत्रवधु ! महारानी ! शीघ्र मेरे पास हविष्‍य ग्रहण करने के लिये आओ। तुम्‍हें एक पुत्र और एक कन्‍या की प्राप्ति होनेवाली है, वे कुमार और कुमारी अपने पिता के कुल की वृद्धि करनेवाले होंगे’। रानी बोली- ब्रह्मन्  ! अभी मेरे मुख में ताम्‍बूल आदि का रंग लगा है। मैं अपने अंगों में दिव्‍य सुगन्धित अंगराग धारण कर रही हूं, अत: मुंह धोये और स्‍नान किये बिना पुत्रदायक हविष्‍य का स्‍पर्श करने के योग्‍य नहीं हूं, इसलिये याजजी ! मेरे इस प्रिय कार्य के लिये थोड़ी देर ठहर जाइये। याजने कहा- इस हविष्‍य को स्‍वयं याजने पकाकर तैयार किया है और उपयाज ने इसे अभिमन्त्रित किया है; अत: तुम आओ या वहीं खड़ी रहो, यह हविष्‍य यजमान की कामना को पूर्ण कैसे नहीं करेगा? ब्राह्मण कहता हैं- यों कहकर याज ने उस संस्‍कार युक्‍त हविष्‍य की आहुति ज्‍यों ही अग्नि में डाली, त्‍यों ही उस अग्नि से देवता के समान तेजस्‍वी एक कुमार प्रकट हुआ। उसके अंगों की कान्ति अग्नि की ज्‍वाला के समान उद्रासित हो रही थी। उसका रुप भय उत्‍पन्‍न करनेवाला था। उसके माथे पर किरीट सुशोभित था। उसने अंगों में उत्‍तम कवच धारण कर रक्‍खा था। हाथों में खड्ग, बाण और धनुष धारण किये वह बार-बार गर्जना कर रहा था । वह कुमार उसी समय एक श्रेष्‍ठ रथ पर जा चढ़ा, मानो उसके द्वारा युद्ध के लिये यात्रा कर रहा हो। यह देखकर पाञ्जालों को बड़ा हर्ष हुआ और वे जोर-जोर से बोल उठे, ‘बहुत-अच्‍छा’, ‘बहुत अच्‍छा’। उस समय हर्षोल्‍लास से भरे हुए इन पाञ्जालों का भार यह पृथ्‍वी नहीं सह सकी। आकाश में कोई अदृश्‍य महाभूत इस प्रकार कहने लगा- ‘यह राजकुमार पाञ्जालों के भय को दूर करके उनके यश की वृद्धि करनेवाला होगा। यह राजा द्रुपद का शोक-दूर करनेवाला है। द्रोणाचार्य के वध के लिये ही इसका जन्‍म हुआ है’। तत्‍पश्‍चात् यज्ञ की वेदी में से एक कुमारी कन्‍या भी प्रकट हुई, जो पाञ्जाली कहलायी। वह बड़ी सुन्‍दरी एवं सौभाग्‍य शालिनी थी। उसका एक-एक अंग देखने ही योग्‍य था। उसकी श्‍याम आंखें बड़ी-बड़ी थीं। उसके शरीर की कान्ति श्‍याम थी। नेत्र ऐसे जान पड़ते मानो खिले हुए कमल के दल हों। केश काले-काले और घुंघराले थे। नख उभरे हुए और लाल रंग के थे। भौंहें बड़ी सुन्‍दर थीं। दोनों उरोज स्‍थूल और मनोहर थे । वह ऐसी जान पड़ती मानो साक्षात् देवी दुर्गा ही मानव शरीर धारण करके प्रकट हुई हों। उसके अंगों से नील कमल की सी सुगन्‍ध प्रकट होकर एक कोस तक चारों ओर फैल रही थी।उसने परम सुन्‍दर रुप धारण कर रक्‍खा था। उस समय पृथ्‍वी पर उसके-जैसी सुन्‍दर स्‍त्री दूसरी नहीं थी।देवता, दानव और यक्ष भी उस देवोपम कन्‍या को पाने के लिये लालायति थे।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।