"महाभारत आदि पर्व अध्याय 190 श्लोक 15-25": अवतरणों में अंतर

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मनुष्‍यों में श्रेष्‍ठ कुन्‍तीपुत्र युधिष्ठिर ने उनकी आकृति देखकर ही मन का भाव समझ लिया। फिर उन्‍हें द्वैपायन वेदव्‍यासजी के सारे वचनों का स्‍मरण हो आया। द्रौपदी को लेकर हम सब भाइयों में फुट न पड़ जाय, इस भय से राजा ने अपने सभी बन्‍धुओं से कहा- ‘कल्‍याणमयी द्रौपदी हम सब लोगों की पत्‍नी होगी’।
मनुष्‍यों में श्रेष्‍ठ कुन्‍तीपुत्र युधिष्ठिर ने उनकी आकृति देखकर ही मन का भाव समझ लिया। फिर उन्‍हें द्वैपायन वेदव्‍यासजी के सारे वचनों का स्‍मरण हो आया। द्रौपदी को लेकर हम सब भाइयों में फुट न पड़ जाय, इस भय से राजा ने अपने सभी बन्‍धुओं से कहा- ‘कल्‍याणमयी द्रौपदी हम सब लोगों की पत्‍नी होगी’।


वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! उस समय अपने बड़े भाई का यह वचन सुनकर उदार ह्रदयवाले समस्‍त पाण्‍डव मन-ही-मन उसी का चिन्‍तन करते हुए चुपचाप बैठे रह गये। इस वृष्णिवंशियों में श्रेष्‍ठ भगवान् श्रीकृष्‍ण रोहिणी नन्‍दन बलरामजी के साथ कुरुकुल के प्रमुख वीर पाण्‍डवों को पहिचान-कर कुम्‍हार के घर में, जहां वे नरश्रेष्‍ठ  निवास करते थे, मिलने के लिये गये। वहां बलराम सहित श्रीकृष्‍ण ने मोटी और विशाल भुजाओं से सुशोभि‍त अजातशत्रु युधिष्ठिर को चारों ओर से घेरकर बैठे हुए अग्नि के समान तेजस्‍वी अन्‍य चारों भाइयों को देखा। वहां जाकर वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण ने धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ  कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर से ‘मैं श्रीकृष्‍ण हूं’ यों कहकर अजमीढवंशी राजा युधिष्ठिर के दोनों चरणों का स्‍पर्श किया। उन्‍हीं के साथ बलरामजी ने भी (अपना नाम बताकर) उनके चरण छूए । पाण्‍डव भी उन दोनों को देखकर बड़े प्रसन्‍न हुए। जनमेजय ! फिर उन यदुवीरों ने अपनी बुआ कुन्‍ती के चरणों का स्‍पर्श किया।।21।। कुरुकुल के श्रेष्‍ठ  वीर अजातशत्रु युधिष्ठिर ने श्रीकृष्‍ण को देखकर कुशल-समाचार पूछा और कहा-‘वसुदेवनन्‍दन ! हम तो यहां छिपकर रहते हैं, फिर आपने हम सब लोगों को कैसे पहचान लिया ?’ तब भगवान् वासुदेव ने हंसकर उत्‍तर दिया-‘राजन् ! आग कितनी ही छिपी क्‍यों न हो, वह पहचान में आ ही जाती है। भला, पाण्‍डवों को छोड़कर मनुष्‍यों में कौन ऐसा है, जो वैसा अद्रुत कर्म कर दिखाता। ‘बड़े सौभाग्‍य की बात है कि शत्रुओं का सामना करने की शक्ति रखनेवाले आप सभी पाण्‍डव उस भयंकर अग्निकाण्‍ड से जीवित बच गये। पापी धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन अपने मन्त्रियों सहित इस षड्यन्‍त्र में सफल न हो सका, यह भी सौभाग्‍य की ही बात है। ‘हमारे अन्‍त:करण में जो कल्‍याण की भावना निहित है, वह आपको प्राप्‍त हो। आप लोग सदा प्रज्‍वलित अग्नि की भांति बढ़ते रहें। अभी आपलोगों को कोई भी राजा पहचान न सकें, इसलिये हम लोग भी अपने शिविर को लौट जायंगे।‘ यों कहकर युधिष्ठिर की आज्ञा ले अक्षय शोभा से सम्‍पन्‍न भगवान् श्रीकृष्‍ण बलदेवजी के साथ शीघ्र वहां से चल दिये।  
वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! उस समय अपने बड़े भाई का यह वचन सुनकर उदार ह्रदयवाले समस्‍त पाण्‍डव मन-ही-मन उसी का चिन्‍तन करते हुए चुपचाप बैठे रह गये। इस वृष्णिवंशियों में श्रेष्‍ठ भगवान् श्रीकृष्‍ण रोहिणी नन्‍दन बलरामजी के साथ कुरुकुल के प्रमुख वीर पाण्‍डवों को पहिचान-कर कुम्‍हार के घर में, जहां वे नरश्रेष्‍ठ  निवास करते थे, मिलने के लिये गये। वहां बलराम सहित श्रीकृष्‍ण ने मोटी और विशाल भुजाओं से सुशोभि‍त अजातशत्रु युधिष्ठिर को चारों ओर से घेरकर बैठे हुए अग्नि के समान तेजस्‍वी अन्‍य चारों भाइयों को देखा। वहां जाकर वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण ने धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ  कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर से ‘मैं श्रीकृष्‍ण हूं’ यों कहकर अजमीढवंशी राजा युधिष्ठिर के दोनों चरणों का स्‍पर्श किया। उन्‍हीं के साथ बलरामजी ने भी (अपना नाम बताकर) उनके चरण छूए । पाण्‍डव भी उन दोनों को देखकर बड़े प्रसन्‍न हुए। जनमेजय ! फिर उन यदुवीरों ने अपनी बुआ कुन्‍ती के चरणों का स्‍पर्श किया। कुरुकुल के श्रेष्‍ठ  वीर अजातशत्रु युधिष्ठिर ने श्रीकृष्‍ण को देखकर कुशल-समाचार पूछा और कहा-‘वसुदेवनन्‍दन ! हम तो यहां छिपकर रहते हैं, फिर आपने हम सब लोगों को कैसे पहचान लिया ?’ तब भगवान् वासुदेव ने हंसकर उत्‍तर दिया-‘राजन् ! आग कितनी ही छिपी क्‍यों न हो, वह पहचान में आ ही जाती है। भला, पाण्‍डवों को छोड़कर मनुष्‍यों में कौन ऐसा है, जो वैसा अद्रुत कर्म कर दिखाता। ‘बड़े सौभाग्‍य की बात है कि शत्रुओं का सामना करने की शक्ति रखनेवाले आप सभी पाण्‍डव उस भयंकर अग्निकाण्‍ड से जीवित बच गये। पापी धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन अपने मन्त्रियों सहित इस षड्यन्‍त्र में सफल न हो सका, यह भी सौभाग्‍य की ही बात है। ‘हमारे अन्‍त:करण में जो कल्‍याण की भावना निहित है, वह आपको प्राप्‍त हो। आप लोग सदा प्रज्‍वलित अग्नि की भांति बढ़ते रहें। अभी आपलोगों को कोई भी राजा पहचान न सकें, इसलिये हम लोग भी अपने शिविर को लौट जायंगे।‘ यों कहकर युधिष्ठिर की आज्ञा ले अक्षय शोभा से सम्‍पन्‍न भगवान् श्रीकृष्‍ण बलदेवजी के साथ शीघ्र वहां से चल दिये।  


<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत स्‍वयंवर पर्व में बलराम और श्रीकृष्‍ण का आगमन विषयक एक सौ नब्‍बेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।</div>  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत स्‍वयंवर पर्व में बलराम और श्रीकृष्‍ण का आगमन विषयक एक सौ नब्‍बेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।</div>  

०८:१९, १० अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

नवत्‍यधिकशततम (190) अध्‍याय: आदि पर्व (स्‍वयंवर पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: नवत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद

मनुष्‍यों में श्रेष्‍ठ कुन्‍तीपुत्र युधिष्ठिर ने उनकी आकृति देखकर ही मन का भाव समझ लिया। फिर उन्‍हें द्वैपायन वेदव्‍यासजी के सारे वचनों का स्‍मरण हो आया। द्रौपदी को लेकर हम सब भाइयों में फुट न पड़ जाय, इस भय से राजा ने अपने सभी बन्‍धुओं से कहा- ‘कल्‍याणमयी द्रौपदी हम सब लोगों की पत्‍नी होगी’।

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! उस समय अपने बड़े भाई का यह वचन सुनकर उदार ह्रदयवाले समस्‍त पाण्‍डव मन-ही-मन उसी का चिन्‍तन करते हुए चुपचाप बैठे रह गये। इस वृष्णिवंशियों में श्रेष्‍ठ भगवान् श्रीकृष्‍ण रोहिणी नन्‍दन बलरामजी के साथ कुरुकुल के प्रमुख वीर पाण्‍डवों को पहिचान-कर कुम्‍हार के घर में, जहां वे नरश्रेष्‍ठ निवास करते थे, मिलने के लिये गये। वहां बलराम सहित श्रीकृष्‍ण ने मोटी और विशाल भुजाओं से सुशोभि‍त अजातशत्रु युधिष्ठिर को चारों ओर से घेरकर बैठे हुए अग्नि के समान तेजस्‍वी अन्‍य चारों भाइयों को देखा। वहां जाकर वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण ने धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर से ‘मैं श्रीकृष्‍ण हूं’ यों कहकर अजमीढवंशी राजा युधिष्ठिर के दोनों चरणों का स्‍पर्श किया। उन्‍हीं के साथ बलरामजी ने भी (अपना नाम बताकर) उनके चरण छूए । पाण्‍डव भी उन दोनों को देखकर बड़े प्रसन्‍न हुए। जनमेजय ! फिर उन यदुवीरों ने अपनी बुआ कुन्‍ती के चरणों का स्‍पर्श किया। कुरुकुल के श्रेष्‍ठ वीर अजातशत्रु युधिष्ठिर ने श्रीकृष्‍ण को देखकर कुशल-समाचार पूछा और कहा-‘वसुदेवनन्‍दन ! हम तो यहां छिपकर रहते हैं, फिर आपने हम सब लोगों को कैसे पहचान लिया ?’ तब भगवान् वासुदेव ने हंसकर उत्‍तर दिया-‘राजन् ! आग कितनी ही छिपी क्‍यों न हो, वह पहचान में आ ही जाती है। भला, पाण्‍डवों को छोड़कर मनुष्‍यों में कौन ऐसा है, जो वैसा अद्रुत कर्म कर दिखाता। ‘बड़े सौभाग्‍य की बात है कि शत्रुओं का सामना करने की शक्ति रखनेवाले आप सभी पाण्‍डव उस भयंकर अग्निकाण्‍ड से जीवित बच गये। पापी धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन अपने मन्त्रियों सहित इस षड्यन्‍त्र में सफल न हो सका, यह भी सौभाग्‍य की ही बात है। ‘हमारे अन्‍त:करण में जो कल्‍याण की भावना निहित है, वह आपको प्राप्‍त हो। आप लोग सदा प्रज्‍वलित अग्नि की भांति बढ़ते रहें। अभी आपलोगों को कोई भी राजा पहचान न सकें, इसलिये हम लोग भी अपने शिविर को लौट जायंगे।‘ यों कहकर युधिष्ठिर की आज्ञा ले अक्षय शोभा से सम्‍पन्‍न भगवान् श्रीकृष्‍ण बलदेवजी के साथ शीघ्र वहां से चल दिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत स्‍वयंवर पर्व में बलराम और श्रीकृष्‍ण का आगमन विषयक एक सौ नब्‍बेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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