"महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 24 श्लोक 1-20" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो (Text replace - "बुद्धिमान् " to "बुद्धिमान ")
 
पंक्ति ६: पंक्ति ६:
 
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! तदनन्तर वे समस्त पाण्डव दूर से ही अपनी सवारियों से उतर पडे़ और पैदल चलकर बड़ी विनय के साथ राजा के आश्रम पर आये। साथ आये हुए समस्त सैनिक, राज्य के निवासी मनुष्य तथा कुरूवंश के प्रधान पुरूषों की स्त्रियाँ भी पैदल की आश्रम तक गयीं। धृतराष्ट्र का वह पवित्र आश्रम मनुष्यों से सूना था। उसमें सब और मृगों के झुंड विचर रहे थे और केले का सुन्दर उद्यान उस आश्रम की शोभा बढ़ाता था । पाण्डव लोग ज्यों ही उस आश्रम में पहुँचे त्यों ही वहाँ नियमपूर्वक व्रतों का पालन करने वाले बहुत से तपस्वी कौतूहलवश वहाँ पधारे हुए पाण्डवों को देखने के लिये आ गये। उस समय राजा युधिष्ठिर ने उन सब को प्रणाम करके नेत्रों में आँसू भरकर उन सबसे पूछा - ‘मुनिवरो! कौरववंश का पालन करने वाले हमारे ज्येष्ठ पिता इस समय कहाँ गये हैं ?’ उन्होंने उत्तर दिया - ‘प्रभो! वे यमुना में स्नान करने, फूल लाने और पानी का घड़ा भरने के लिये गये हुए हैं’। यह सुनकर उन्हीं के बताये हुए मार्ग से वे सब के सब पैदल ही यमुना तट की ओर चल दिये । कुछ ही दूर जाने पर उन्होंने उन सब लोगों को वहाँ से आते देखा। फिर तो समस्त पाण्डव अपने ताऊ के दर्शन की इच्छा से बड़ी उतावली के साथ आगे बढे़ । बुद्धिमान सहदेव तो बडे़ वेग से दौडे़ और जहाँ कुन्ती थी, वहाँ पहुँचकर माता के दोनों चरण पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगे। कुन्ती ने भी जब अपने प्यारे पुत्र सहदेव को देखा तो उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह चली । उन्होनें दोनो हाथों से पुत्र को उठाकर छाती से लगा लिया और गान्धारी से कहा - ‘दीदी ! सहदेव आपकी सेवा में उपस्थित है’। तदनन्तर राजा युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल को देखकर कुन्ती देवी बड़ी उतावली के साथ उनकी ओर चलीं। वे आगे-आगे चलती थीं और उन पुत्रहीन दम्पति को अपने साथ खींचे लाती थीं। उन्हें देखते ही पाण्डव उनके चरणों में पृथ्वी पर गिर पडे़ । महामना बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र ने बोलने के स्वर से और स्पर्श से पाण्डवों को पहचानकर उन सबको आश्वासन दिया। तत्पश्चात् अपने नेत्रों के आँसू पोंछकर महात्मा पाण्डवों ने गान्धारी सहित राजा धृतराष्ट्र तथा माता कुन्ती के विधिपूर्वक प्रणाम किया। इसके बाद माता से बार-बार सान्त्वना पाकर जब पाण्डव कुछ स्वस्थ एवं सचेत हुए तब उन्होनें उन सबके हाथ से जल के भरे हुए कलश स्वयं ले लिये। तदनन्तर उन पुरूष सिंहों की स्त्रियों तथा अन्तःपुर की दूसरी स्त्रियों ने और नगर एवं जनपद के लोगों ने भी क्रमशः राजा धृतराष्ट्र का दर्शन किया। उस समय स्वयं राजा युधिष्ठिर ने एक-एक व्यक्ति का नाम और गोत्र बताकर परिचय दिया और परिचय पाकर धृतराष्ट्र ने उन सबका वाणी द्वारा सत्कार किया। उन सबके घिरे हुए राजा धृतराष्ट्र अपने नेत्रों से हर्ष के आँसू बहाने लगे । उस समय उन्हें ऐसा जान पड़ा मानो मैं पहले की भाँति हस्तिनापुर के राजमहल में बैठा हूँ। तत्पश्चात् द्रौपदी आदि बहुओं ने गान्धारी और कुन्ती सहित बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र को प्रणाम किया और उन्होनें भी उन सबको आशीर्वाद देकर प्रसन्न किया। इसके बाद वे सबके साथ सिद्ध और चारणों से सेवित अपने आश्रम पर आये । उस समय उनका आश्रम तारों से व्याप्त हुए आकाश की भाँति दर्शकों से भरा था।
 
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! तदनन्तर वे समस्त पाण्डव दूर से ही अपनी सवारियों से उतर पडे़ और पैदल चलकर बड़ी विनय के साथ राजा के आश्रम पर आये। साथ आये हुए समस्त सैनिक, राज्य के निवासी मनुष्य तथा कुरूवंश के प्रधान पुरूषों की स्त्रियाँ भी पैदल की आश्रम तक गयीं। धृतराष्ट्र का वह पवित्र आश्रम मनुष्यों से सूना था। उसमें सब और मृगों के झुंड विचर रहे थे और केले का सुन्दर उद्यान उस आश्रम की शोभा बढ़ाता था । पाण्डव लोग ज्यों ही उस आश्रम में पहुँचे त्यों ही वहाँ नियमपूर्वक व्रतों का पालन करने वाले बहुत से तपस्वी कौतूहलवश वहाँ पधारे हुए पाण्डवों को देखने के लिये आ गये। उस समय राजा युधिष्ठिर ने उन सब को प्रणाम करके नेत्रों में आँसू भरकर उन सबसे पूछा - ‘मुनिवरो! कौरववंश का पालन करने वाले हमारे ज्येष्ठ पिता इस समय कहाँ गये हैं ?’ उन्होंने उत्तर दिया - ‘प्रभो! वे यमुना में स्नान करने, फूल लाने और पानी का घड़ा भरने के लिये गये हुए हैं’। यह सुनकर उन्हीं के बताये हुए मार्ग से वे सब के सब पैदल ही यमुना तट की ओर चल दिये । कुछ ही दूर जाने पर उन्होंने उन सब लोगों को वहाँ से आते देखा। फिर तो समस्त पाण्डव अपने ताऊ के दर्शन की इच्छा से बड़ी उतावली के साथ आगे बढे़ । बुद्धिमान सहदेव तो बडे़ वेग से दौडे़ और जहाँ कुन्ती थी, वहाँ पहुँचकर माता के दोनों चरण पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगे। कुन्ती ने भी जब अपने प्यारे पुत्र सहदेव को देखा तो उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह चली । उन्होनें दोनो हाथों से पुत्र को उठाकर छाती से लगा लिया और गान्धारी से कहा - ‘दीदी ! सहदेव आपकी सेवा में उपस्थित है’। तदनन्तर राजा युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल को देखकर कुन्ती देवी बड़ी उतावली के साथ उनकी ओर चलीं। वे आगे-आगे चलती थीं और उन पुत्रहीन दम्पति को अपने साथ खींचे लाती थीं। उन्हें देखते ही पाण्डव उनके चरणों में पृथ्वी पर गिर पडे़ । महामना बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र ने बोलने के स्वर से और स्पर्श से पाण्डवों को पहचानकर उन सबको आश्वासन दिया। तत्पश्चात् अपने नेत्रों के आँसू पोंछकर महात्मा पाण्डवों ने गान्धारी सहित राजा धृतराष्ट्र तथा माता कुन्ती के विधिपूर्वक प्रणाम किया। इसके बाद माता से बार-बार सान्त्वना पाकर जब पाण्डव कुछ स्वस्थ एवं सचेत हुए तब उन्होनें उन सबके हाथ से जल के भरे हुए कलश स्वयं ले लिये। तदनन्तर उन पुरूष सिंहों की स्त्रियों तथा अन्तःपुर की दूसरी स्त्रियों ने और नगर एवं जनपद के लोगों ने भी क्रमशः राजा धृतराष्ट्र का दर्शन किया। उस समय स्वयं राजा युधिष्ठिर ने एक-एक व्यक्ति का नाम और गोत्र बताकर परिचय दिया और परिचय पाकर धृतराष्ट्र ने उन सबका वाणी द्वारा सत्कार किया। उन सबके घिरे हुए राजा धृतराष्ट्र अपने नेत्रों से हर्ष के आँसू बहाने लगे । उस समय उन्हें ऐसा जान पड़ा मानो मैं पहले की भाँति हस्तिनापुर के राजमहल में बैठा हूँ। तत्पश्चात् द्रौपदी आदि बहुओं ने गान्धारी और कुन्ती सहित बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र को प्रणाम किया और उन्होनें भी उन सबको आशीर्वाद देकर प्रसन्न किया। इसके बाद वे सबके साथ सिद्ध और चारणों से सेवित अपने आश्रम पर आये । उस समय उनका आश्रम तारों से व्याप्त हुए आकाश की भाँति दर्शकों से भरा था।
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत आश्रमवास पर्व में युधिष्ठिर आदि का धृतराष्ट्र से मिलन विषयक चैबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
+
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत आश्रमवास पर्व में युधिष्ठिर आदि का धृतराष्ट्र से मिलन विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
  
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 23 श्लोक 1-18|अगला=महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 25 श्लोक 1-13}}
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 23 श्लोक 1-18|अगला=महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 25 श्लोक 1-13}}

१२:५६, १० अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

चतुर्विंश (24) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: चतुर्विंश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
पाण्डवों तथा पुरवासियों का कुन्ती, गान्धारी और धृतराष्ट्र के दर्शन करना

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! तदनन्तर वे समस्त पाण्डव दूर से ही अपनी सवारियों से उतर पडे़ और पैदल चलकर बड़ी विनय के साथ राजा के आश्रम पर आये। साथ आये हुए समस्त सैनिक, राज्य के निवासी मनुष्य तथा कुरूवंश के प्रधान पुरूषों की स्त्रियाँ भी पैदल की आश्रम तक गयीं। धृतराष्ट्र का वह पवित्र आश्रम मनुष्यों से सूना था। उसमें सब और मृगों के झुंड विचर रहे थे और केले का सुन्दर उद्यान उस आश्रम की शोभा बढ़ाता था । पाण्डव लोग ज्यों ही उस आश्रम में पहुँचे त्यों ही वहाँ नियमपूर्वक व्रतों का पालन करने वाले बहुत से तपस्वी कौतूहलवश वहाँ पधारे हुए पाण्डवों को देखने के लिये आ गये। उस समय राजा युधिष्ठिर ने उन सब को प्रणाम करके नेत्रों में आँसू भरकर उन सबसे पूछा - ‘मुनिवरो! कौरववंश का पालन करने वाले हमारे ज्येष्ठ पिता इस समय कहाँ गये हैं ?’ उन्होंने उत्तर दिया - ‘प्रभो! वे यमुना में स्नान करने, फूल लाने और पानी का घड़ा भरने के लिये गये हुए हैं’। यह सुनकर उन्हीं के बताये हुए मार्ग से वे सब के सब पैदल ही यमुना तट की ओर चल दिये । कुछ ही दूर जाने पर उन्होंने उन सब लोगों को वहाँ से आते देखा। फिर तो समस्त पाण्डव अपने ताऊ के दर्शन की इच्छा से बड़ी उतावली के साथ आगे बढे़ । बुद्धिमान सहदेव तो बडे़ वेग से दौडे़ और जहाँ कुन्ती थी, वहाँ पहुँचकर माता के दोनों चरण पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगे। कुन्ती ने भी जब अपने प्यारे पुत्र सहदेव को देखा तो उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह चली । उन्होनें दोनो हाथों से पुत्र को उठाकर छाती से लगा लिया और गान्धारी से कहा - ‘दीदी ! सहदेव आपकी सेवा में उपस्थित है’। तदनन्तर राजा युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल को देखकर कुन्ती देवी बड़ी उतावली के साथ उनकी ओर चलीं। वे आगे-आगे चलती थीं और उन पुत्रहीन दम्पति को अपने साथ खींचे लाती थीं। उन्हें देखते ही पाण्डव उनके चरणों में पृथ्वी पर गिर पडे़ । महामना बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र ने बोलने के स्वर से और स्पर्श से पाण्डवों को पहचानकर उन सबको आश्वासन दिया। तत्पश्चात् अपने नेत्रों के आँसू पोंछकर महात्मा पाण्डवों ने गान्धारी सहित राजा धृतराष्ट्र तथा माता कुन्ती के विधिपूर्वक प्रणाम किया। इसके बाद माता से बार-बार सान्त्वना पाकर जब पाण्डव कुछ स्वस्थ एवं सचेत हुए तब उन्होनें उन सबके हाथ से जल के भरे हुए कलश स्वयं ले लिये। तदनन्तर उन पुरूष सिंहों की स्त्रियों तथा अन्तःपुर की दूसरी स्त्रियों ने और नगर एवं जनपद के लोगों ने भी क्रमशः राजा धृतराष्ट्र का दर्शन किया। उस समय स्वयं राजा युधिष्ठिर ने एक-एक व्यक्ति का नाम और गोत्र बताकर परिचय दिया और परिचय पाकर धृतराष्ट्र ने उन सबका वाणी द्वारा सत्कार किया। उन सबके घिरे हुए राजा धृतराष्ट्र अपने नेत्रों से हर्ष के आँसू बहाने लगे । उस समय उन्हें ऐसा जान पड़ा मानो मैं पहले की भाँति हस्तिनापुर के राजमहल में बैठा हूँ। तत्पश्चात् द्रौपदी आदि बहुओं ने गान्धारी और कुन्ती सहित बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र को प्रणाम किया और उन्होनें भी उन सबको आशीर्वाद देकर प्रसन्न किया। इसके बाद वे सबके साथ सिद्ध और चारणों से सेवित अपने आश्रम पर आये । उस समय उनका आश्रम तारों से व्याप्त हुए आकाश की भाँति दर्शकों से भरा था।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत आश्रमवास पर्व में युधिष्ठिर आदि का धृतराष्ट्र से मिलन विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।