"भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-132": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) ('<h4 style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">भागवत धर्म मिमांसा</h4> <h4 style="text-...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) No edit summary |
||
पंक्ति २: | पंक्ति २: | ||
<h4 style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">7. वेद-तात्पर्य</h4> | <h4 style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">7. वेद-तात्पर्य</h4> | ||
मूर्ति ही भगवान् है, यह भ्रम न रहे, इसलिए उसे अन्त में डुबो दिया जाता है। वेद कहता है कि आपने उपासना की, फिर उसका आसक्ति हुई, तो अब उसे छोड़ दो। पूछा जा सकता है कि आखिर वेद यह सारा झमेला क्यों खड़ा करता है? यही सुझाने के लिए कि आखिर हमें भगवान् के पास पहुँचने की कोशिश करनी चाहिए। ये तो सारी सीढ़ियाँ हैं। संस्कृत में इसे ‘स्थूल-अरुन्धती-न्याय’ कहते हैं। आकाश में अरुन्धती का दर्शन कराते समय प्रथम सप्त ऋषियों के तारे दिखाये जाते हैं।<ref>कश्यप, अन्नि, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वसिष्ठ – ये सात ऋषि हैं और अरुन्धती है वसिष्ठ की साध्वी पत्नी। यों तो यह अरुन्धती-दर्शन कभी किया जा सकता है, पर रात्रि में विवाह होने पर अन्त में वर-वधू द्वारा अरुन्धती-दर्शन से विवाह की सांगता की जाती है। यह ‘स्थूलारुन्धती न्याय’ वेदान्त में सुप्रसिद्ध है। - सं. </ref> फिर उनमें से सबसे बड़ा तारा दिखाते और फिर कहते हैं कि “उस तारे के पास जो बारीक-सी छोटी तारिका है, वही ‘अरुन्धती’ है।” अरुन्धती के नाम से एक-एक तारा दिखाते और फिर उसका निरसन करते जाते हैं। ठीक यही पद्धति वेद की है। बच्चों को सिखाने की यह एक अद्भुत पद्धति है। एक बार चर्चा चली - ‘इन्द्र का रूप कैसा होता है?’ कहा गया : ‘इं द् र्’ लिखो। यह इन्द्र का रूप है। अग्नि का रूप क्या है? ‘अ ग् नि’। यह एक प्रकार की उपासना है। ‘दूध दीजिये’ लिखकर एक कागज आपके पास भेजा और आप वह चिट्ठी पढ़कर कागज पर ‘दूध’ ये अक्षर लिख दें, तो क्या काम चलेगा? नहीं। चिट्ठी पढ़कर आप दूध देंगे। ‘दूध’ इन अक्षरों से आप ‘गाय का दूध’ जान लेंगे। मतलब यह कि ‘दूध’ ये अक्षर, आपकी उपासना हुई। इसी तरह जो सारा शिक्षण चलता है, जो साहित्य है, वह उपासना है। उसका अर्थ यही है कि मिथ्या अक्षरों पर यथार्थता की कल्पना करना। ‘दूध’ पर से ‘दूध’ जानना। लेकिन कोई अंग्रेजी जाननेवाला हो, तो वह ‘दूध’ पर से कुछ भी नहीं समझेगा। उसके लिए ‘मिल्क’ लिखना, कहना पड़ेगा। कोई कहता है : ‘मुझे शिवलिंग चाहिए।’ एक को शालग्राम मिलता है और दूसरे को शिवलिंग, तभी वह उस पर भावना कर पाता है। जैसे ‘दूध’ और ‘मिल्क’ ये अक्षर भिन्न हैं, पर वस्तु में फरक नहीं, वैसे ही ‘शालग्राम’ और ‘शिवलिंग’ भिन्न होने पर भी मूल वस्तु में कोई फरक नहीं है। यही अर्थ है – भगवान् की उपासना का भी। भगवान् कहते हैं कि आरम्भ में इन वस्तुओं का आधार लें, उपासना करें, पर अन्त में वह भी छोड़ दें। | मूर्ति ही भगवान् है, यह भ्रम न रहे, इसलिए उसे अन्त में डुबो दिया जाता है। वेद कहता है कि आपने उपासना की, फिर उसका आसक्ति हुई, तो अब उसे छोड़ दो। पूछा जा सकता है कि आखिर वेद यह सारा झमेला क्यों खड़ा करता है? यही सुझाने के लिए कि आखिर हमें भगवान् के पास पहुँचने की कोशिश करनी चाहिए। ये तो सारी सीढ़ियाँ हैं। संस्कृत में इसे ‘स्थूल-अरुन्धती-न्याय’ कहते हैं। आकाश में अरुन्धती का दर्शन कराते समय प्रथम सप्त ऋषियों के तारे दिखाये जाते हैं।<ref>कश्यप, अन्नि, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वसिष्ठ – ये सात ऋषि हैं और अरुन्धती है वसिष्ठ की साध्वी पत्नी। यों तो यह अरुन्धती-दर्शन कभी किया जा सकता है, पर रात्रि में विवाह होने पर अन्त में वर-वधू द्वारा अरुन्धती-दर्शन से विवाह की सांगता की जाती है। यह ‘स्थूलारुन्धती न्याय’ वेदान्त में सुप्रसिद्ध है। - सं. </ref> फिर उनमें से सबसे बड़ा तारा दिखाते और फिर कहते हैं कि “उस तारे के पास जो बारीक-सी छोटी तारिका है, वही ‘अरुन्धती’ है।” अरुन्धती के नाम से एक-एक तारा दिखाते और फिर उसका निरसन करते जाते हैं। ठीक यही पद्धति वेद की है। बच्चों को सिखाने की यह एक अद्भुत पद्धति है। एक बार चर्चा चली - ‘इन्द्र का रूप कैसा होता है?’ कहा गया : ‘इं द् र्’ लिखो। यह इन्द्र का रूप है। अग्नि का रूप क्या है? ‘अ ग् नि’। यह एक प्रकार की उपासना है। ‘दूध दीजिये’ लिखकर एक कागज आपके पास भेजा और आप वह चिट्ठी पढ़कर कागज पर ‘दूध’ ये अक्षर लिख दें, तो क्या काम चलेगा? नहीं। चिट्ठी पढ़कर आप दूध देंगे। ‘दूध’ इन अक्षरों से आप ‘गाय का दूध’ जान लेंगे। मतलब यह कि ‘दूध’ ये अक्षर, आपकी उपासना हुई। इसी तरह जो सारा शिक्षण चलता है, जो साहित्य है, वह उपासना है। उसका अर्थ यही है कि मिथ्या अक्षरों पर यथार्थता की कल्पना करना। ‘दूध’ पर से ‘दूध’ जानना। लेकिन कोई अंग्रेजी जाननेवाला हो, तो वह ‘दूध’ पर से कुछ भी नहीं समझेगा। उसके लिए ‘मिल्क’ लिखना, कहना पड़ेगा। कोई कहता है : ‘मुझे शिवलिंग चाहिए।’ एक को शालग्राम मिलता है और दूसरे को शिवलिंग, तभी वह उस पर भावना कर पाता है। जैसे ‘दूध’ और ‘मिल्क’ ये अक्षर भिन्न हैं, पर वस्तु में फरक नहीं, वैसे ही ‘शालग्राम’ और ‘शिवलिंग’ भिन्न होने पर भी मूल वस्तु में कोई फरक नहीं है। यही अर्थ है – भगवान् की उपासना का भी। भगवान् कहते हैं कि आरम्भ में इन वस्तुओं का आधार लें, उपासना करें, पर अन्त में वह भी छोड़ दें। | ||
'''एतावान् सर्ववेदार्थछ'''– यही सर्व-वेदों का अर्थ है। प्रथम मेरा जो भेदरूप है, उसका आधार लो : '''मां भिदाम् आस्थाय'''– यह कहकर, वाद में वेद उसी का निषेध करता है – प्रतिषिद्ध्य। पहले पकड़वाता है, बाद में अनुवाद करता है, उसके बाद निषेध करता है और अन्त में स्वयं वेद भी खतम हो जाता है। वेद कहता है कि अन्त में मेरा भी त्याग कर दो। नारद ने संन्यास का वर्णन करते हुए कहा है : | '''एतावान् सर्ववेदार्थछ'''– यही सर्व-वेदों का अर्थ है। प्रथम मेरा जो भेदरूप है, उसका आधार लो : '''मां भिदाम् आस्थाय'''– यह कहकर, वाद में वेद उसी का निषेध करता है – प्रतिषिद्ध्य। पहले पकड़वाता है, बाद में अनुवाद करता है, उसके बाद निषेध करता है और अन्त में स्वयं वेद भी खतम हो जाता है। वेद कहता है कि अन्त में मेरा भी त्याग कर दो। नारद ने संन्यास का वर्णन करते हुए कहा है : | ||
{{लेख क्रम |पिछला=भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-131|अगला=भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-133}} | {{लेख क्रम |पिछला=भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-131|अगला=भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-133}} |
०८:४३, ११ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण
भागवत धर्म मिमांसा
7. वेद-तात्पर्य
मूर्ति ही भगवान् है, यह भ्रम न रहे, इसलिए उसे अन्त में डुबो दिया जाता है। वेद कहता है कि आपने उपासना की, फिर उसका आसक्ति हुई, तो अब उसे छोड़ दो। पूछा जा सकता है कि आखिर वेद यह सारा झमेला क्यों खड़ा करता है? यही सुझाने के लिए कि आखिर हमें भगवान् के पास पहुँचने की कोशिश करनी चाहिए। ये तो सारी सीढ़ियाँ हैं। संस्कृत में इसे ‘स्थूल-अरुन्धती-न्याय’ कहते हैं। आकाश में अरुन्धती का दर्शन कराते समय प्रथम सप्त ऋषियों के तारे दिखाये जाते हैं।[१] फिर उनमें से सबसे बड़ा तारा दिखाते और फिर कहते हैं कि “उस तारे के पास जो बारीक-सी छोटी तारिका है, वही ‘अरुन्धती’ है।” अरुन्धती के नाम से एक-एक तारा दिखाते और फिर उसका निरसन करते जाते हैं। ठीक यही पद्धति वेद की है। बच्चों को सिखाने की यह एक अद्भुत पद्धति है। एक बार चर्चा चली - ‘इन्द्र का रूप कैसा होता है?’ कहा गया : ‘इं द् र्’ लिखो। यह इन्द्र का रूप है। अग्नि का रूप क्या है? ‘अ ग् नि’। यह एक प्रकार की उपासना है। ‘दूध दीजिये’ लिखकर एक कागज आपके पास भेजा और आप वह चिट्ठी पढ़कर कागज पर ‘दूध’ ये अक्षर लिख दें, तो क्या काम चलेगा? नहीं। चिट्ठी पढ़कर आप दूध देंगे। ‘दूध’ इन अक्षरों से आप ‘गाय का दूध’ जान लेंगे। मतलब यह कि ‘दूध’ ये अक्षर, आपकी उपासना हुई। इसी तरह जो सारा शिक्षण चलता है, जो साहित्य है, वह उपासना है। उसका अर्थ यही है कि मिथ्या अक्षरों पर यथार्थता की कल्पना करना। ‘दूध’ पर से ‘दूध’ जानना। लेकिन कोई अंग्रेजी जाननेवाला हो, तो वह ‘दूध’ पर से कुछ भी नहीं समझेगा। उसके लिए ‘मिल्क’ लिखना, कहना पड़ेगा। कोई कहता है : ‘मुझे शिवलिंग चाहिए।’ एक को शालग्राम मिलता है और दूसरे को शिवलिंग, तभी वह उस पर भावना कर पाता है। जैसे ‘दूध’ और ‘मिल्क’ ये अक्षर भिन्न हैं, पर वस्तु में फरक नहीं, वैसे ही ‘शालग्राम’ और ‘शिवलिंग’ भिन्न होने पर भी मूल वस्तु में कोई फरक नहीं है। यही अर्थ है – भगवान् की उपासना का भी। भगवान् कहते हैं कि आरम्भ में इन वस्तुओं का आधार लें, उपासना करें, पर अन्त में वह भी छोड़ दें। एतावान् सर्ववेदार्थछ– यही सर्व-वेदों का अर्थ है। प्रथम मेरा जो भेदरूप है, उसका आधार लो : मां भिदाम् आस्थाय– यह कहकर, वाद में वेद उसी का निषेध करता है – प्रतिषिद्ध्य। पहले पकड़वाता है, बाद में अनुवाद करता है, उसके बाद निषेध करता है और अन्त में स्वयं वेद भी खतम हो जाता है। वेद कहता है कि अन्त में मेरा भी त्याग कर दो। नारद ने संन्यास का वर्णन करते हुए कहा है :
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कश्यप, अन्नि, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वसिष्ठ – ये सात ऋषि हैं और अरुन्धती है वसिष्ठ की साध्वी पत्नी। यों तो यह अरुन्धती-दर्शन कभी किया जा सकता है, पर रात्रि में विवाह होने पर अन्त में वर-वधू द्वारा अरुन्धती-दर्शन से विवाह की सांगता की जाती है। यह ‘स्थूलारुन्धती न्याय’ वेदान्त में सुप्रसिद्ध है। - सं.
संबंधित लेख
-