"भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-143": अवतरणों में अंतर
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हे राजन्! मनुष्य के सिर पर ऋण होते हैं। जन्मतः मनुष्य ऋणी होता है। वे ऋण मनुष्य को अदा करने होते हैं। एक है देवों का ऋण, दूसरा है ऋषियों का ऋण और तीसरा है पितरों का ऋण। ये तीन प्रकार के ऋण तो सब जानते हैं। इनके अलावा यहाँ प्राणियों का ऋण – भूतों का ऋण कहा है। गाय हमें दूध देती है, इसलिए उसका पर ऋण है। कुत्ता चोरों से बचाता है, इसलिए उसका भी हम पर ऋण है। फिर आप्तों का ऋण माना है। माता-पिता, बन्धुजन, ये सारे आप्त हैं। कोई डॉक्टर हमारी सेवा करता है, तो उसका भी ऋण है। तीसरा है समाज का ऋण। '''नृणाम्''' – सारे मनुष्यों का। इतने सारे ऋण मनुष्यों के सिर पर रहते हैं। लेकिन यहाँ भगवान् कह रहे हैं कि जिसने अपने को भगवान् की शरण में कर लिया, उस पर कोई ऋण नहीं। वह किसी का किंकर यानी सेवक नहीं या किसी का ऋणी नहीं –''' न किंकरो नायम् ऋणी च'''। भगवान् मुकुन्द की शरण में जो पहुँच गया, उस पर किसी का ऋण नहीं। '''शरण्यं मुकुंदं शरणं गतः यः''' – जो शरणागतों के प्रतिपालक मुकुन्द की शरण में सब प्रकार से पहुँच जाए। '''कर्तम्''' यानी गड्ढा। '''परिहृत्य कर्तम्''' – गड्ढे को छोड़कर। यह सारा संसार एक बहुत बड़ा गड्ढा है, जिसमें लोग गिरते हैं। उसे बचकर, छोड़कर जो सब प्रकार से भगवान् की शरण पहुँच जाए। | हे राजन्! मनुष्य के सिर पर ऋण होते हैं। जन्मतः मनुष्य ऋणी होता है। वे ऋण मनुष्य को अदा करने होते हैं। एक है देवों का ऋण, दूसरा है ऋषियों का ऋण और तीसरा है पितरों का ऋण। ये तीन प्रकार के ऋण तो सब जानते हैं। इनके अलावा यहाँ प्राणियों का ऋण – भूतों का ऋण कहा है। गाय हमें दूध देती है, इसलिए उसका पर ऋण है। कुत्ता चोरों से बचाता है, इसलिए उसका भी हम पर ऋण है। फिर आप्तों का ऋण माना है। माता-पिता, बन्धुजन, ये सारे आप्त हैं। कोई डॉक्टर हमारी सेवा करता है, तो उसका भी ऋण है। तीसरा है समाज का ऋण। '''नृणाम्''' – सारे मनुष्यों का। इतने सारे ऋण मनुष्यों के सिर पर रहते हैं। लेकिन यहाँ भगवान् कह रहे हैं कि जिसने अपने को भगवान् की शरण में कर लिया, उस पर कोई ऋण नहीं। वह किसी का किंकर यानी सेवक नहीं या किसी का ऋणी नहीं –''' न किंकरो नायम् ऋणी च'''। भगवान् मुकुन्द की शरण में जो पहुँच गया, उस पर किसी का ऋण नहीं। '''शरण्यं मुकुंदं शरणं गतः यः''' – जो शरणागतों के प्रतिपालक मुकुन्द की शरण में सब प्रकार से पहुँच जाए। '''कर्तम्''' यानी गड्ढा। '''परिहृत्य कर्तम्''' – गड्ढे को छोड़कर। यह सारा संसार एक बहुत बड़ा गड्ढा है, जिसमें लोग गिरते हैं। उसे बचकर, छोड़कर जो सब प्रकार से भगवान् की शरण पहुँच जाए। | ||
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१०:१७, ११ अगस्त २०१५ का अवतरण
भागवत धर्म मिमांसा
10. पूजा
<poem style="text-align:center"> (27.7) योगस्य तपसश्चैव न्यासस्य गतयोऽमलाः । महर् जनस् तपः सत्यं भक्तियोगस्य मद्गतिः न।।[१] कोई योगी यानी कर्मयोगी है, जो उत्तम कर्म करता है। कोई उत्तम संन्यासी है, जो अच्छा न्यास करता है। यहाँ तीनों अवस्थाएँ दीखती हैं। योगी यानी गृहस्थ मान सकते हैं, तपस्वी और संन्यासी इन तीनों को बहुत अच्छी गति मिलेगी। कौन-सी गति मिलेगी? उन्हें महर्लोक, जन-लोक, तपोलोक और सत्य-लोक मिलेगा। भूः यानी पृथ्वी, भुवः यानी अन्तरिक्ष, स्वः यानी आकाश – ये तीन लोक तो हम जानते ही हैं। यहाँ और चार लोक बताये हैं : महः, जनः, तपः, सत्यम्। कह रहे हैं कि योगी, तपस्वी, संन्यासियों को महः, जनः, तपः, सत्यम् ये लोग मिलेंगे। लेकिन जो मेरे भक्त हैं, उन्हें मेरी ही गति मिलेगी – भक्तियोगस्य मद्गतिः। प्रश्न यह है कि आप क्या चाहते हैं? महर्, जनस्, तपस्, सत्यम् ये लोक चाहते हैं या भगवान् के पास जाना? भक्त-योगी के लिए बताया कि वे मेरे पास आयेंगे। भागवत की यह विशेषता है कि वह भक्ति पर जोर देती है। शेष योगियों के लिए दूसरी गतियाँ हैं। योगी का अर्थ निष्काम कर्मयोगी भी हो सकता है, ध्यानी भी हो सकता है। उनके लिए बड़ी-बड़ी उत्तम गतियाँ हैं। लेकिन भक्त भगवान् के पास पहुँचेगा। आप इनमें से जो भी गति पसन्द करें, विषयासक्ति में डूबे न रहें तो बस है। (27.8) देवर्षि-भूताप्त-नृणां पितृणां न किंकरो नायमृणी च राजन् ! सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं गतो मुकुंदं परिहृत्य कर्तम् ।।[२] हे राजन्! मनुष्य के सिर पर ऋण होते हैं। जन्मतः मनुष्य ऋणी होता है। वे ऋण मनुष्य को अदा करने होते हैं। एक है देवों का ऋण, दूसरा है ऋषियों का ऋण और तीसरा है पितरों का ऋण। ये तीन प्रकार के ऋण तो सब जानते हैं। इनके अलावा यहाँ प्राणियों का ऋण – भूतों का ऋण कहा है। गाय हमें दूध देती है, इसलिए उसका पर ऋण है। कुत्ता चोरों से बचाता है, इसलिए उसका भी हम पर ऋण है। फिर आप्तों का ऋण माना है। माता-पिता, बन्धुजन, ये सारे आप्त हैं। कोई डॉक्टर हमारी सेवा करता है, तो उसका भी ऋण है। तीसरा है समाज का ऋण। नृणाम् – सारे मनुष्यों का। इतने सारे ऋण मनुष्यों के सिर पर रहते हैं। लेकिन यहाँ भगवान् कह रहे हैं कि जिसने अपने को भगवान् की शरण में कर लिया, उस पर कोई ऋण नहीं। वह किसी का किंकर यानी सेवक नहीं या किसी का ऋणी नहीं – न किंकरो नायम् ऋणी च। भगवान् मुकुन्द की शरण में जो पहुँच गया, उस पर किसी का ऋण नहीं। शरण्यं मुकुंदं शरणं गतः यः – जो शरणागतों के प्रतिपालक मुकुन्द की शरण में सब प्रकार से पहुँच जाए। कर्तम् यानी गड्ढा। परिहृत्य कर्तम् – गड्ढे को छोड़कर। यह सारा संसार एक बहुत बड़ा गड्ढा है, जिसमें लोग गिरते हैं। उसे बचकर, छोड़कर जो सब प्रकार से भगवान् की शरण पहुँच जाए।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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