"भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-150": अवतरणों में अंतर

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<poem style="text-align:center"> कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
<poem style="text-align:center"> कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठन् त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन् ।।</poem>
उत्तिष्ठन् त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन् ।।</poem>
अर्थात् सोनेवाला कलियुग में रहता है, बैठनेवाला द्वापर में, खड़े होते हुए त्रेता में आता है और चलने लगे तो कृतयुग में पहुँच जाता है। खड़ा रहना, बैठना, घूमना, सोना – ये कर्म ज्ञानी भी करता है, जैसे कि दूसरे सांसारिक लोग। उक्षन्तम् – मल-मूत्र-विसर्जन आदि संस्कार यह करता है और अपना अन्न-भाग भी लेता है। इसके अलावा और भी कुछ करता है – किमपि ईहमानम्। ईह का अर्थ, करना या इच्छा है। ज्ञानी अपने स्वभाव के अनुसार और भी कुछ करता है : स्वभावमन्यत् किमपीहमानम्। फिर भी वह अपने को जानता नहीं। यानी वह नहीं जानता कि ‘ये क्रियाएँ मैं कर रहा हूँ।’ वे होती रहती हैं, पर उसे इसकी अनुभूति नहीं होती कि ‘मैं कर रहा हूँ।’ मुझे एक मिसाल याद आती है। गाड़ी के डिब्बे में दो आदमी थे। एक लेटा था, तो दूसरा घूम रहा था। लेटनेवाले ने दूसरे से पूछा : ‘क्यों घूमते हो?’ तो उसने कहा : ‘गाडी की गति चालीस मील है और मैं चार मील की गति से चल रहा हूँ। दोनों गतियाँ इकट्ठी हो जाएँ तो 44 मील की गति आयेगी और मैं जल्दी पहुँचूँगा।’ यह है मनुष्य की मूर्खता! वह ईश्वर की गाड़ी में बैठा है और उसमें अपनी गति भी मिलाना चाहता है। यानी अहंकार ले लेता है। कर्ता तो ईश्वर है, लेकिन अहंकार के कारण हम व्यर्थ ही वह बोझ उठा लेते हैं। एक मिसाल और, जो मैं बहुत दफा कह चुका हूँ। एक मनुष्य घोड़े पर बैठा था। उसके पास सामान की गठरी थी। उसे लगा कि घोड़े का भार कुछ हलका करना चाहिए। तो, उसने घोड़े की पीठ पर की गठरी अपने सिर पर ले ली! दुनिया का भार ईश्वर पर है ही। मनुष्य समझता है कि ईश्वर का कुछ बोझ कम करने के लिए थोड़ा भार मैं ही उठा लूँ। पर क्या यह हो सकता है? एक बार घोड़े का भार हम हलका कर सकते हैं, यदि घोड़े पर से उतर जाएँ। लेकिन ईश्वर का भार कम नहीं कर सकते, क्योंकि हम उसके सिर पर बैठे हैं। यह समझने की बात है, लेकिन यह न जानते हुए मनुष्य समझता है कि मैं ईश्वर का थोड़ा भार हलका कर दूँ। ज्ञानी पुरुष यह भार नहीं उठाता। वह अपनी आत्मस्थिति में बना रहता है। ज्ञानदेव महाराज ने कहा है : रोम वाहूनि रोमा नेणें – हम अपने बालों का बोझ उठाते हैं, लेकिन वह बोझ महसूस नहीं करते। उसका भार हम पर नहीं आता। इसी प्रकार ज्ञानी जो कर्म करता है, उसका भार उसे नहीं होता। बालों के भार के समान वह सहज हो जाता है।
अर्थात् सोनेवाला कलियुग में रहता है, बैठनेवाला द्वापर में, खड़े होते हुए त्रेता में आता है और चलने लगे तो कृतयुग में पहुँच जाता है। खड़ा रहना, बैठना, घूमना, सोना – ये कर्म ज्ञानी भी करता है, जैसे कि दूसरे सांसारिक लोग। उक्षन्तम् – मल-मूत्र-विसर्जन आदि संस्कार यह करता है और अपना अन्न-भाग भी लेता है। इसके अलावा और भी कुछ करता है – '''किमपि ईहमानम्'''। ईह का अर्थ, करना या इच्छा है। ज्ञानी अपने स्वभाव के अनुसार और भी कुछ करता है : '''स्वभावमन्यत् किमपीहमानम्'''। फिर भी वह अपने को जानता नहीं। यानी वह नहीं जानता कि ‘ये क्रियाएँ मैं कर रहा हूँ।’ वे होती रहती हैं, पर उसे इसकी अनुभूति नहीं होती कि ‘मैं कर रहा हूँ।’ मुझे एक मिसाल याद आती है। गाड़ी के डिब्बे में दो आदमी थे। एक लेटा था, तो दूसरा घूम रहा था। लेटनेवाले ने दूसरे से पूछा : ‘क्यों घूमते हो?’ तो उसने कहा : ‘गाडी की गति चालीस मील है और मैं चार मील की गति से चल रहा हूँ। दोनों गतियाँ इकट्ठी हो जाएँ तो 44 मील की गति आयेगी और मैं जल्दी पहुँचूँगा।’ यह है मनुष्य की मूर्खता! वह ईश्वर की गाड़ी में बैठा है और उसमें अपनी गति भी मिलाना चाहता है। यानी अहंकार ले लेता है। कर्ता तो ईश्वर है, लेकिन अहंकार के कारण हम व्यर्थ ही वह बोझ उठा लेते हैं। एक मिसाल और, जो मैं बहुत दफा कह चुका हूँ। एक मनुष्य घोड़े पर बैठा था। उसके पास सामान की गठरी थी। उसे लगा कि घोड़े का भार कुछ हलका करना चाहिए। तो, उसने घोड़े की पीठ पर की गठरी अपने सिर पर ले ली! दुनिया का भार ईश्वर पर है ही। मनुष्य समझता है कि ईश्वर का कुछ बोझ कम करने के लिए थोड़ा भार मैं ही उठा लूँ। पर क्या यह हो सकता है? एक बार घोड़े का भार हम हलका कर सकते हैं, यदि घोड़े पर से उतर जाएँ। लेकिन ईश्वर का भार कम नहीं कर सकते, क्योंकि हम उसके सिर पर बैठे हैं। यह समझने की बात है, लेकिन यह न जानते हुए मनुष्य समझता है कि मैं ईश्वर का थोड़ा भार हलका कर दूँ। ज्ञानी पुरुष यह भार नहीं उठाता। वह अपनी आत्मस्थिति में बना रहता है। ज्ञानदेव महाराज ने कहा है : '''रोम वाहूनि रोमा नेणें''' – हम अपने बालों का बोझ उठाते हैं, लेकिन वह बोझ महसूस नहीं करते। उसका भार हम पर नहीं आता। इसी प्रकार ज्ञानी जो कर्म करता है, उसका भार उसे नहीं होता। बालों के भार के समान वह सहज हो जाता है।


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१२:२७, ११ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

भागवत धर्म मिमांसा

11. ब्रह्म-स्थिति

 
(28.8) तिष्ठन्तमासीनमुत व्रजन्तं
शयानमुक्षन्तमदन्तमन्नम् ।
स्वभावमन्यत् किमपीहमानं
आत्मानमात्मस्थमतिर् न वेद ।।[१]

आत्मानम् आत्मस्थमतिः न वेद – जिसकी बुद्धि आत्मनिष्ठ हो गयी, वह अपने को जानता ही नहीं। वह खड़ा रहता है, बैठता है, घूमता है, सोता है – इस तरह चार अवस्थाएँ बतायी हैं। ये चार अवस्थाएँ सभी जानते हैं।

 कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठन् त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन् ।।

अर्थात् सोनेवाला कलियुग में रहता है, बैठनेवाला द्वापर में, खड़े होते हुए त्रेता में आता है और चलने लगे तो कृतयुग में पहुँच जाता है। खड़ा रहना, बैठना, घूमना, सोना – ये कर्म ज्ञानी भी करता है, जैसे कि दूसरे सांसारिक लोग। उक्षन्तम् – मल-मूत्र-विसर्जन आदि संस्कार यह करता है और अपना अन्न-भाग भी लेता है। इसके अलावा और भी कुछ करता है – किमपि ईहमानम्। ईह का अर्थ, करना या इच्छा है। ज्ञानी अपने स्वभाव के अनुसार और भी कुछ करता है : स्वभावमन्यत् किमपीहमानम्। फिर भी वह अपने को जानता नहीं। यानी वह नहीं जानता कि ‘ये क्रियाएँ मैं कर रहा हूँ।’ वे होती रहती हैं, पर उसे इसकी अनुभूति नहीं होती कि ‘मैं कर रहा हूँ।’ मुझे एक मिसाल याद आती है। गाड़ी के डिब्बे में दो आदमी थे। एक लेटा था, तो दूसरा घूम रहा था। लेटनेवाले ने दूसरे से पूछा : ‘क्यों घूमते हो?’ तो उसने कहा : ‘गाडी की गति चालीस मील है और मैं चार मील की गति से चल रहा हूँ। दोनों गतियाँ इकट्ठी हो जाएँ तो 44 मील की गति आयेगी और मैं जल्दी पहुँचूँगा।’ यह है मनुष्य की मूर्खता! वह ईश्वर की गाड़ी में बैठा है और उसमें अपनी गति भी मिलाना चाहता है। यानी अहंकार ले लेता है। कर्ता तो ईश्वर है, लेकिन अहंकार के कारण हम व्यर्थ ही वह बोझ उठा लेते हैं। एक मिसाल और, जो मैं बहुत दफा कह चुका हूँ। एक मनुष्य घोड़े पर बैठा था। उसके पास सामान की गठरी थी। उसे लगा कि घोड़े का भार कुछ हलका करना चाहिए। तो, उसने घोड़े की पीठ पर की गठरी अपने सिर पर ले ली! दुनिया का भार ईश्वर पर है ही। मनुष्य समझता है कि ईश्वर का कुछ बोझ कम करने के लिए थोड़ा भार मैं ही उठा लूँ। पर क्या यह हो सकता है? एक बार घोड़े का भार हम हलका कर सकते हैं, यदि घोड़े पर से उतर जाएँ। लेकिन ईश्वर का भार कम नहीं कर सकते, क्योंकि हम उसके सिर पर बैठे हैं। यह समझने की बात है, लेकिन यह न जानते हुए मनुष्य समझता है कि मैं ईश्वर का थोड़ा भार हलका कर दूँ। ज्ञानी पुरुष यह भार नहीं उठाता। वह अपनी आत्मस्थिति में बना रहता है। ज्ञानदेव महाराज ने कहा है : रोम वाहूनि रोमा नेणें – हम अपने बालों का बोझ उठाते हैं, लेकिन वह बोझ महसूस नहीं करते। उसका भार हम पर नहीं आता। इसी प्रकार ज्ञानी जो कर्म करता है, उसका भार उसे नहीं होता। बालों के भार के समान वह सहज हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.28.31

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