"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 34-49": अवतरणों में अंतर

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==त्रयस्त्रिंश (33) अधयाय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)==
==त्रयस्त्रिंश (33) अधयाय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयस्त्रिंश अधयाय: श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयस्त्रिंश अधयाय: श्लोक 34-49 का हिन्दी अनुवाद</div>


क्रोध, हर्ष, गर्व, लज्‍जा उद्दण्‍डता तथा अपने को पूज्‍य समझना-ये भाव जिसको पुरूषार्थ से भ्रष्‍ट नहीं करते, वही पण्डित कहलाता है। दूसरे लोग जिसके कर्तव्‍य, सलाह और पहले से किये हुए विचार को नहीं जानते, बल्कि काम पूरा हो जाने पर ही जानते है, वही पण्डित कहलाता है। सर्दी-गरमी, भय-अनुराग, सम्‍पत्ति अथवा दरिद्रता-ये जिसके कार्य में विघ्‍न नहीं डालते, वही पण्डित कहलाता है। जिसकी लौकिक बुद्धि धर्म और अर्थ का ही अनुसरण करती है और जो भोग को छोड़कर पुरूषार्थ का ही वरण करता है, वही पण्डित कहलाता है। विवेकपूर्ण बुद्धिवाले पुरूष शक्ति के अनुसार काम करने-की इच्‍छा रखते हैं ओर करते भी हैं तथा किसी वस्‍तु को तुच्‍छ समझकर उसकी अवहेलना नहीं कर। विद्वान् पुरूष किसी विषय को देरतक सुनता है; किंतु शीघ्र ही समझ लेता है, समझकर कर्तव्‍यबुद्धि से पुरूषार्थ में प्रवृत्‍त होता है-कामनासे नहीं, बिना पुछे दूसरे के विषय में व्‍यर्थ कोई बात नहीं कहता है। उसका यह स्‍वभाव पण्डित की मुख्‍य पहचान । पण्डितों की-सी बुद्धि रखने वाले मनुष्‍य दुर्लभ वस्तु की कामना नहीं करते, खोयी हुई वस्तु के विषय में शोक करना नहीं चाहते और विपत्ति में पड़कर घबराते नहीं है। <br />
भरतश्रेष्‍ठ! जो अपने कामों को व्यर्थ ही फैलाता है, सर्वत्र संदेह करता है तथा शीघ्र होने वाले काम में भी देर लगाता है, वह मूढ़ है। जो पितरों का श्राद्ध और देवताओं का पूजन नहीं करता तथा जिसे सुहृद् मित्र नहीं मिलता, उसे मूढ़ चित्त वाला कहते हैं। मूढ़ चित्त वाला अधम मनुष्‍य बिना बुलाये ही भीतर चला आता है, बिना पूछे ही बहुत बोलता है तथा अविश्‍व-सनीय मनुष्‍य पर भी विश्‍वास करता है। स्वयं दोषयुक्त बर्ताव करते हुए भी जो दूसरे पर उसके दोष बताकर आक्षेप करता है तथा जो असमर्थ होते हुए भी व्यर्थ का क्रोध करता है, वह मनुष्‍य महामूर्ख है। जो अपने बल को समझकर बिना काम किये ही धर्म और अर्थ से विरूद्ध तथा न पाने योग्य वस्तु की इच्छा करता है, वह पुरूष इस संसार में मूढ़ बुद्धि कहलाता है। राजन्! जो अनधिकारी को उपदेश देता और शून्य की उपासना करता है तथा जो कृपया का आश्रय लेता है, उसे मूढ़ चित्त वाला कहते हैं जो बहुत धन, विद्या तथा ऐश्‍वर्य को पाकर भी उद्दण्‍डता-पूर्वक नहीं चलता, वह पण्डित कहलाता है। जो अपने द्वारा भरण-पोषण के योग्य व्यक्तियों को बांटे बिना अकेलेही उत्तम भोजन करता और अच्छा वस्त्र पहनता है, उससे बढ़कर क्रूर कौन होगा? मनुष्‍य अकेला पाप कर (के धन कमा) ता है और (उस धन का) उपभोग बहुत-से लोग करते हैं। उपभोग करने वाले तो दोष से छूट जाते हैं, पर उसका कर्ता दोष का भागी होता है। किसी धनुर्धर वीर के द्वारा छोड़ा हुआ बाण सम्भव है, एक को भी मारे या न मारे। परन्तु बुद्धिमान् द्वारा प्रयुक्त की हुई बुद्धि राजा के साथ-साथ सम्पूर्ण राष्‍ट्र का विनाश कर सकती है। एक (बुद्धि) से दो (कर्तव्य और अकर्तव्य) का निश्‍वय करके चार (साम, दान, भेद,दण्‍ड) से तीन (शत्रु, मित्र तथा उदासीन) को वश में कीजिये। पांच (इन्द्रियों) को जीतकर छ: (सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रयरूप) गुणों को जानकर तथा सात (स्त्री, जूआ, मृगया, मद्य, कठोर वचन, दण्‍ड की कठोरता और अन्याय से धनोपार्जन) को छोड़कर सुखी हो जाइये<ref>1.यहां ‘उपास्ते’ के स्थान पर ‘उपासते’ यह प्रयोग आर्ध समझना चाहिये । </ref>
जो पहले निश्रवय करके फिर कार्य का आरम्भ करता है, कार्य के बीच में नहीं रूकता, समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और चित्त को वश में रखता है, वही पण्डित कहलाता है। भरतकुलभूषण! पण्डितजन श्रेष्‍ठ कर्मों में रूचि रखते हैं तथा भलाई करने वालों में दोष नहीं निकालते। जो अपना आदर होने पर हर्ष के मारे फूल नहीं उठता, अनादर से संतप्त नहीं होता तथा गङा्गजी के हृद (गहरे गर्त) के समान जिसके चित्त को क्षोभ नहीं होता, वही पण्डित कहलाता है । जो सम्पूर्ण भौतिक पदार्थो की असलियत का ज्ञान रखने-वाला, सब कार्यों के करने का ढ़ग जानने वाला तथा मनुष्‍यों में सबसे बढ़कर उपाय का जानकार है, वह मनुष्‍य पण्डित कहलाता है।। जिसकी वाणी कहीं रूकती नहीं, जो विचित्र ढ़ग से बातचीत करता है, तर्क में निपुण और प्रतिभाशाली है तथा जो ग्रन्थ के तात्पर्य को शीघ्र बता सकता है, वह पण्डित कहलाता है। जिसकी विद्या बुद्धि का अनुसरण करती है और बुद्धि विद्या का तथा जो शिष्‍ट पुरूषों की मर्यादा का उल्लङ्घन नहीं करता, वही पण्डित की संज्ञा पा सकता है। बिना पढे़ ही गर्व करने वाले, दरिद्र होकर भी बडे़-बडे़ मनोरथ करने वाले और बिना काम किये ही धन पाने की इच्छा रखने वाले मनुष्‍य को पण्डित लोग मूर्ख कहते हैं ।
विष का रस एक (पीने वाले) को ही मारता है, शस्त्र से एक का ही वध होता है; किंतु (गुप्त) मन्त्रणा का प्रकाशित होना राष्‍ट्र और प्रजा के साथ ही राजा का भी विनाश कर डालता है। अकेले स्वादिष्‍ट भोजन न करे, अकेला किसी विषय का निश्र्वय न करे, अकेला रास्ता न चले और बहुत-से लोग सोये हों तो उनमें अकेला न जागता रहे। राजन्! जैसे समु्द्र के पार जाने के लिये नाव ही एकमात्र साधन है, उसी प्रकार स्वर्ग के लिये सत्य ही एकमात्र सोपान है, दूसरा नहीं; किंतु आप इसे नहीं समझ रहे हैं। क्षमाशील पुरूषों में एक ही दोष का आरोप होता है, दूसरे की तो सम्भावना ही नहीं है। वह दोष यह है कि क्षमाशील मनुष्‍य को लोग असमर्थ समझ लेते हैं। किंतु क्षमाशील पुरूष का वह दोष नहीं मानना चाहिये; क्योंकि क्षमा बहुत बड़ा बल है। क्षमा असमर्थ मनुष्‍यों का गुण तथा समर्थों का भूषण है ।
जो अपना कर्तव्य छोड़कर दूसरे के कर्तव्य का पालन करता है तथा मित्र के साथ असत् आचरण करता है, वह मूर्ख कहलाता है। जो न चाहने वालों को चाहता है और चाहने वालों को त्याग देता है तथा जो अपने से बलवान् के साथ वैर बांधता है, उसे मूढ़ विचार का मनुष्‍य कहते है। जो शत्रु को मित्र बनाता और मित्र से द्वेष करते हुए उसे कष्‍ट पहुंचाता है तथा सदा बुरे कर्मों का आरम्भ किया करता है, उसे मूढ़ चित्त वाला कहते हैं


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:४९, १५ अगस्त २०१५ का अवतरण

त्रयस्त्रिंश (33) अधयाय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयस्त्रिंश अधयाय: श्लोक 34-49 का हिन्दी अनुवाद

भरतश्रेष्‍ठ! जो अपने कामों को व्यर्थ ही फैलाता है, सर्वत्र संदेह करता है तथा शीघ्र होने वाले काम में भी देर लगाता है, वह मूढ़ है। जो पितरों का श्राद्ध और देवताओं का पूजन नहीं करता तथा जिसे सुहृद् मित्र नहीं मिलता, उसे मूढ़ चित्त वाला कहते हैं। मूढ़ चित्त वाला अधम मनुष्‍य बिना बुलाये ही भीतर चला आता है, बिना पूछे ही बहुत बोलता है तथा अविश्‍व-सनीय मनुष्‍य पर भी विश्‍वास करता है। स्वयं दोषयुक्त बर्ताव करते हुए भी जो दूसरे पर उसके दोष बताकर आक्षेप करता है तथा जो असमर्थ होते हुए भी व्यर्थ का क्रोध करता है, वह मनुष्‍य महामूर्ख है। जो अपने बल को न समझकर बिना काम किये ही धर्म और अर्थ से विरूद्ध तथा न पाने योग्य वस्तु की इच्छा करता है, वह पुरूष इस संसार में मूढ़ बुद्धि कहलाता है। राजन्! जो अनधिकारी को उपदेश देता और शून्य की उपासना करता है तथा जो कृपया का आश्रय लेता है, उसे मूढ़ चित्त वाला कहते हैं जो बहुत धन, विद्या तथा ऐश्‍वर्य को पाकर भी उद्दण्‍डता-पूर्वक नहीं चलता, वह पण्डित कहलाता है। जो अपने द्वारा भरण-पोषण के योग्य व्यक्तियों को बांटे बिना अकेलेही उत्तम भोजन करता और अच्छा वस्त्र पहनता है, उससे बढ़कर क्रूर कौन होगा? मनुष्‍य अकेला पाप कर (के धन कमा) ता है और (उस धन का) उपभोग बहुत-से लोग करते हैं। उपभोग करने वाले तो दोष से छूट जाते हैं, पर उसका कर्ता दोष का भागी होता है। किसी धनुर्धर वीर के द्वारा छोड़ा हुआ बाण सम्भव है, एक को भी मारे या न मारे। परन्तु बुद्धिमान् द्वारा प्रयुक्त की हुई बुद्धि राजा के साथ-साथ सम्पूर्ण राष्‍ट्र का विनाश कर सकती है। एक (बुद्धि) से दो (कर्तव्य और अकर्तव्य) का निश्‍वय करके चार (साम, दान, भेद,दण्‍ड) से तीन (शत्रु, मित्र तथा उदासीन) को वश में कीजिये। पांच (इन्द्रियों) को जीतकर छ: (सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रयरूप) गुणों को जानकर तथा सात (स्त्री, जूआ, मृगया, मद्य, कठोर वचन, दण्‍ड की कठोरता और अन्याय से धनोपार्जन) को छोड़कर सुखी हो जाइये[१] विष का रस एक (पीने वाले) को ही मारता है, शस्त्र से एक का ही वध होता है; किंतु (गुप्त) मन्त्रणा का प्रकाशित होना राष्‍ट्र और प्रजा के साथ ही राजा का भी विनाश कर डालता है। अकेले स्वादिष्‍ट भोजन न करे, अकेला किसी विषय का निश्र्वय न करे, अकेला रास्ता न चले और बहुत-से लोग सोये हों तो उनमें अकेला न जागता रहे। राजन्! जैसे समु्द्र के पार जाने के लिये नाव ही एकमात्र साधन है, उसी प्रकार स्वर्ग के लिये सत्य ही एकमात्र सोपान है, दूसरा नहीं; किंतु आप इसे नहीं समझ रहे हैं। क्षमाशील पुरूषों में एक ही दोष का आरोप होता है, दूसरे की तो सम्भावना ही नहीं है। वह दोष यह है कि क्षमाशील मनुष्‍य को लोग असमर्थ समझ लेते हैं। किंतु क्षमाशील पुरूष का वह दोष नहीं मानना चाहिये; क्योंकि क्षमा बहुत बड़ा बल है। क्षमा असमर्थ मनुष्‍यों का गुण तथा समर्थों का भूषण है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.यहां ‘उपास्ते’ के स्थान पर ‘उपासते’ यह प्रयोग आर्ध समझना चाहिये ।

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