"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 107-123": अवतरणों में अंतर

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==त्रयस्त्रिंश (33) अधयाय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)==
==त्रयस्त्रिंश (33) अधयाय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयस्त्रिंश अधयाय: श्लोक 107-119 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयस्त्रिंश अधयाय: श्लोक 107-123 का हिन्दी अनुवाद</div>


जो धुरन्धर महापुरूष आपत्ति पड़ने पर कभी दुखी नहीं होता, बल्कि सावधानी के साथ उद्योग का आश्रय लेता है तथा समय पर दु:ख सहता है, उसके शत्रु तो पराजित ही हैं। जो घर छोड़कर निरर्थक विदेशवास, पापियों से मेल, परस्त्रीगमन, पाखण्‍ड, चोरी, चुगलखोरी तथा मदिरापान- इन सबका सेवन नहीं करता, वह सदा सुखी रहता है। जो क्रोध या उतावली के साथ धर्म, अर्थ तथा काम का आरम्भ नहीं करता, पूछने पर यथार्थ बात ही बतलाता है, मित्र के लिये झगड़ा नहीं पंसद करता, आदर न पाने पर क्रुद्ध नहीं होता, विवेक नहीं खो बैठता, दूसरों के दोष नहीं देखता, सब पर दया करता है, असमर्थ होते हुए किसी की जमानत नहीं देता, बढ़कर नहीं बोलता तथा विवाद को सह लेता है, ऐसा मनुष्‍य सब जगह प्रशंसा पाता । जो कभी उद्दण्‍डका-सा वेष नहीं बनाता, दूसरों के सामने अपने पराक्रम की श्‍लाघा भी नहीं करता, क्रोध से व्याकुल होने पर भी कटुवचन नहीं बोलता, उस मनुष्‍य को लोग सदा ही प्यारा बना लेते हैं। जो शान्त हुई वैर की आग को फिर प्रज्वलित नहीं करता, गर्व नहीं करता, हीनता नहीं दिखाता तथा ‘मैं विपत्ति में पड़ा हूं’ ऐसा सोचकर अनुचित काम नहीं करता, उस उत्तम आचरण वाले पुरूष को आर्यजन सर्वश्रेष्‍ठ कहते हैं। जो अपने सुख में प्रसन्न नहीं होता, दूसरे के दु:ख के समय हर्ष नहीं मानता और दान देकर पश्र्वात्ताप नहीं करता, वह सज्जनों में सदाचारी कहलाता है। जो मनुष्‍य देश के व्यवहार, अवसर तथा जातियों के धर्मों को तत्त्व से जानना चाहता है, उसे उत्तम-अधम का विवेक हो जाता है। वह जहां कहीं भी जाता है, सदा महान् जनसमूह-पर अपनी प्रभुता स्थापित कर लेता है। जो बुद्धिमान् दम्भ, मोह, मात्सर्य, पापकर्म, राजद्रोह, चुगलखोरी, समूह से वैर और मतवाले, पागल तथा दुर्जनों से विवाद छोड़ देता है, वह श्रेष्‍ठ है ।
जो धुरन्धर महापुरूष आपत्ति पड़ने पर कभी दुखी नहीं होता, बल्कि सावधानी के साथ उद्योग का आश्रय लेता है तथा समय पर दु:ख सहता है, उसके शत्रु तो पराजित ही हैं। जो घर छोड़कर निरर्थक विदेशवास, पापियों से मेल, परस्त्रीगमन, पाखण्‍ड, चोरी, चुगलखोरी तथा मदिरापान- इन सबका सेवन नहीं करता, वह सदा सुखी रहता है। जो क्रोध या उतावली के साथ धर्म, अर्थ तथा काम का आरम्भ नहीं करता, पूछने पर यथार्थ बात ही बतलाता है, मित्र के लिये झगड़ा नहीं पंसद करता, आदर न पाने पर क्रुद्ध नहीं होता, विवेक नहीं खो बैठता, दूसरों के दोष नहीं देखता, सब पर दया करता है, असमर्थ होते हुए किसी की जमानत नहीं देता, बढ़कर नहीं बोलता तथा विवाद को सह लेता है, ऐसा मनुष्‍य सब जगह प्रशंसा पाता । जो कभी उद्दण्‍डका-सा वेष नहीं बनाता, दूसरों के सामने अपने पराक्रम की श्‍लाघा भी नहीं करता, क्रोध से व्याकुल होने पर भी कटुवचन नहीं बोलता, उस मनुष्‍य को लोग सदा ही प्यारा बना लेते हैं। जो शान्त हुई वैर की आग को फिर प्रज्वलित नहीं करता, गर्व नहीं करता, हीनता नहीं दिखाता तथा ‘मैं विपत्ति में पड़ा हूं’ ऐसा सोचकर अनुचित काम नहीं करता, उस उत्तम आचरण वाले पुरूष को आर्यजन सर्वश्रेष्‍ठ कहते हैं। जो अपने सुख में प्रसन्न नहीं होता, दूसरे के दु:ख के समय हर्ष नहीं मानता और दान देकर पश्र्वात्ताप नहीं करता, वह सज्जनों में सदाचारी कहलाता है। जो मनुष्‍य देश के व्यवहार, अवसर तथा जातियों के धर्मों को तत्त्व से जानना चाहता है, उसे उत्तम-अधम का विवेक हो जाता है। वह जहां कहीं भी जाता है, सदा महान् जनसमूह-पर अपनी प्रभुता स्थापित कर लेता है। जो बुद्धिमान् दम्भ, मोह, मात्सर्य, पापकर्म, राजद्रोह, चुगलखोरी, समूह से वैर और मतवाले, पागल तथा दुर्जनों से विवाद छोड़ देता है, वह श्रेष्‍ठ है ।<br />
जो दान, होम, देवपूजन, माङ्गलिक कर्म, प्रायश्र्चित्त तथा अनेक प्रकार के लौकिक आचार- इन नित्य किये जाने योग्य कर्मों को करता है, देवता लोग उसके अभ्युदय की सिद्धि करते हैं। जो अपने बराबर वालों के साथ विवाह, मित्रता,व्यवहार तथा बातचीत करता है, हीन पुरूषों के साथ नहीं; और गुणों में बढे़-चढे़ पुरूषों को सदा आगे रखता है, उस विद्वान् की नीति श्रेष्‍ठ नीति है। जो अपने आश्रित जनों को बांटकर थोड़ा ही भोजन करता है, बहुत अधिक काम करके भी थोड़ा सोता है तथा मांगने पर जो मित्र नहीं है, उस मनस्वी पुरूष को सारे अनर्थ दूर से ही छोड़ देते हैं। जिसके अपनी इच्छा के अनुकूल और दूसरों की इच्छा के विरूद्ध कार्य को दूसरे लोग कुछ भी नहीं जान पाते, मन्त्र गुप्त रहने और अभिष्‍ट कार्य का ठीक-ठीक सम्पादन होने के कारण उसका थोडा़ भी काम बिगड़ने नहीं पाता।  
जो दान, होम, देवपूजन, माङ्गलिक कर्म, प्रायश्र्चित्त तथा अनेक प्रकार के लौकिक आचार- इन नित्य किये जाने योग्य कर्मों को करता है, देवता लोग उसके अभ्युदय की सिद्धि करते हैं। जो अपने बराबर वालों के साथ विवाह, मित्रता,व्यवहार तथा बातचीत करता है, हीन पुरूषों के साथ नहीं; और गुणों में बढे़-चढे़ पुरूषों को सदा आगे रखता है, उस विद्वान् की नीति श्रेष्‍ठ नीति है। जो अपने आश्रित जनों को बांटकर थोड़ा ही भोजन करता है, बहुत अधिक काम करके भी थोड़ा सोता है तथा मांगने पर जो मित्र नहीं है, उस मनस्वी पुरूष को सारे अनर्थ दूर से ही छोड़ देते हैं। जिसके अपनी इच्छा के अनुकूल और दूसरों की इच्छा के विरूद्ध कार्य को दूसरे लोग कुछ भी नहीं जान पाते, मन्त्र गुप्त रहने और अभिष्‍ट कार्य का ठीक-ठीक सम्पादन होने के कारण उसका थोडा़ भी काम बिगड़ने नहीं पाता। जो मनुष्‍य सम्पूर्ण भूतों को शान्ति प्रदान करने में तत्पर, सत्यवादी, कोमल, दूसरों को आदर देने वाला तथा पवित्र विचार वाला होता है, वह अच्छी खान से निकले और चमकते हुए श्रेष्‍ठ रत्न की भांति अपनी जाति वालों में अधिक प्रसिद्धि पाता है। जो स्वयं ही अधिक लज्जाशील है, वह सब लोगों में श्रेष्‍ठ समझा जाता है। वह अपने अनन्त तेज, शुद्ध हृदय एवं एकाग्रता से युक्त होन के कारण कान्ति में सूर्य के समान शोभा पाता है। अम्बिकानन्दन! (मृगरूपधारी किंदम ॠषि के) शाप से दग्ध राजा पाण्‍डु के जो पांच पुत्र वन में उत्पन्न हुए, वे पांच इन्द्रों के समान शक्तिशाली हैं, उन्हें आपने ही बचपन से पाला और शिक्षादी है; वे भी आपकी आज्ञा का पालन करते रहते हैं। तात! उन्हें उनका न्यायोचित राज्यभाग देकर आप अपने पुत्रों के साथ आनन्दित होते हुए सुख भोगिये। नरेन्द्र! ऐसा करने पर आप देवताओं तथा मनुष्‍यों की आलोचना के विषय नहीं रह जांयगे।


{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 87-106|अगला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 120-123}}
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत प्रजागरपर्व में विदुरजी के नीतिवाक्यविषयक तैतीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।</div>
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 87-106|अगला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-17}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०७:३०, १६ अगस्त २०१५ का अवतरण

त्रयस्त्रिंश (33) अधयाय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयस्त्रिंश अधयाय: श्लोक 107-123 का हिन्दी अनुवाद

जो धुरन्धर महापुरूष आपत्ति पड़ने पर कभी दुखी नहीं होता, बल्कि सावधानी के साथ उद्योग का आश्रय लेता है तथा समय पर दु:ख सहता है, उसके शत्रु तो पराजित ही हैं। जो घर छोड़कर निरर्थक विदेशवास, पापियों से मेल, परस्त्रीगमन, पाखण्‍ड, चोरी, चुगलखोरी तथा मदिरापान- इन सबका सेवन नहीं करता, वह सदा सुखी रहता है। जो क्रोध या उतावली के साथ धर्म, अर्थ तथा काम का आरम्भ नहीं करता, पूछने पर यथार्थ बात ही बतलाता है, मित्र के लिये झगड़ा नहीं पंसद करता, आदर न पाने पर क्रुद्ध नहीं होता, विवेक नहीं खो बैठता, दूसरों के दोष नहीं देखता, सब पर दया करता है, असमर्थ होते हुए किसी की जमानत नहीं देता, बढ़कर नहीं बोलता तथा विवाद को सह लेता है, ऐसा मनुष्‍य सब जगह प्रशंसा पाता । जो कभी उद्दण्‍डका-सा वेष नहीं बनाता, दूसरों के सामने अपने पराक्रम की श्‍लाघा भी नहीं करता, क्रोध से व्याकुल होने पर भी कटुवचन नहीं बोलता, उस मनुष्‍य को लोग सदा ही प्यारा बना लेते हैं। जो शान्त हुई वैर की आग को फिर प्रज्वलित नहीं करता, गर्व नहीं करता, हीनता नहीं दिखाता तथा ‘मैं विपत्ति में पड़ा हूं’ ऐसा सोचकर अनुचित काम नहीं करता, उस उत्तम आचरण वाले पुरूष को आर्यजन सर्वश्रेष्‍ठ कहते हैं। जो अपने सुख में प्रसन्न नहीं होता, दूसरे के दु:ख के समय हर्ष नहीं मानता और दान देकर पश्र्वात्ताप नहीं करता, वह सज्जनों में सदाचारी कहलाता है। जो मनुष्‍य देश के व्यवहार, अवसर तथा जातियों के धर्मों को तत्त्व से जानना चाहता है, उसे उत्तम-अधम का विवेक हो जाता है। वह जहां कहीं भी जाता है, सदा महान् जनसमूह-पर अपनी प्रभुता स्थापित कर लेता है। जो बुद्धिमान् दम्भ, मोह, मात्सर्य, पापकर्म, राजद्रोह, चुगलखोरी, समूह से वैर और मतवाले, पागल तथा दुर्जनों से विवाद छोड़ देता है, वह श्रेष्‍ठ है ।
जो दान, होम, देवपूजन, माङ्गलिक कर्म, प्रायश्र्चित्त तथा अनेक प्रकार के लौकिक आचार- इन नित्य किये जाने योग्य कर्मों को करता है, देवता लोग उसके अभ्युदय की सिद्धि करते हैं। जो अपने बराबर वालों के साथ विवाह, मित्रता,व्यवहार तथा बातचीत करता है, हीन पुरूषों के साथ नहीं; और गुणों में बढे़-चढे़ पुरूषों को सदा आगे रखता है, उस विद्वान् की नीति श्रेष्‍ठ नीति है। जो अपने आश्रित जनों को बांटकर थोड़ा ही भोजन करता है, बहुत अधिक काम करके भी थोड़ा सोता है तथा मांगने पर जो मित्र नहीं है, उस मनस्वी पुरूष को सारे अनर्थ दूर से ही छोड़ देते हैं। जिसके अपनी इच्छा के अनुकूल और दूसरों की इच्छा के विरूद्ध कार्य को दूसरे लोग कुछ भी नहीं जान पाते, मन्त्र गुप्त रहने और अभिष्‍ट कार्य का ठीक-ठीक सम्पादन होने के कारण उसका थोडा़ भी काम बिगड़ने नहीं पाता। जो मनुष्‍य सम्पूर्ण भूतों को शान्ति प्रदान करने में तत्पर, सत्यवादी, कोमल, दूसरों को आदर देने वाला तथा पवित्र विचार वाला होता है, वह अच्छी खान से निकले और चमकते हुए श्रेष्‍ठ रत्न की भांति अपनी जाति वालों में अधिक प्रसिद्धि पाता है। जो स्वयं ही अधिक लज्जाशील है, वह सब लोगों में श्रेष्‍ठ समझा जाता है। वह अपने अनन्त तेज, शुद्ध हृदय एवं एकाग्रता से युक्त होन के कारण कान्ति में सूर्य के समान शोभा पाता है। अम्बिकानन्दन! (मृगरूपधारी किंदम ॠषि के) शाप से दग्ध राजा पाण्‍डु के जो पांच पुत्र वन में उत्पन्न हुए, वे पांच इन्द्रों के समान शक्तिशाली हैं, उन्हें आपने ही बचपन से पाला और शिक्षादी है; वे भी आपकी आज्ञा का पालन करते रहते हैं। तात! उन्हें उनका न्यायोचित राज्यभाग देकर आप अपने पुत्रों के साथ आनन्दित होते हुए सुख भोगिये। नरेन्द्र! ऐसा करने पर आप देवताओं तथा मनुष्‍यों की आलोचना के विषय नहीं रह जांयगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत प्रजागरपर्व में विदुरजी के नीतिवाक्यविषयक तैतीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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