"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 30 श्लोक 43-49": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: त्रिंश | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: त्रिंश अध्याय: श्लोक 43-49 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
राजा दुर्योधन से कहना, मैंने कुछ ब्राह्मणों के लिये वार्षिक जीविका-वृत्तियां नियत कर रक्खी थीं, किंतु खेद है कि तुम्हारे कर्मचारीगण उन्हें ठीक से | राजा दुर्योधन से कहना, मैंने कुछ ब्राह्मणों के लिये वार्षिक जीविका-वृत्तियां नियत कर रक्खी थीं, किंतु खेद है कि तुम्हारे कर्मचारीगण उन्हें ठीक से |
०७:२०, १७ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण
त्रिंश (30) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
राजा दुर्योधन से कहना, मैंने कुछ ब्राह्मणों के लिये वार्षिक जीविका-वृत्तियां नियत कर रक्खी थीं, किंतु खेद है कि तुम्हारे कर्मचारीगण उन्हें ठीक से नहीं चला रहे हैं। मैं उन ब्राह्मणों को पुन: पूर्ववत् उन्हीं वृत्तियों से युक्त देखना चाहता हूं। तुम किसी दूत के द्वारा मुझे यह समाचार सुना दो कि उन वृत्तियों का अब यथावत्रूप से पालन होने लगा है। संजय! जो अनाथ, दुर्बल एवं मूर्खजन सदा अपने शरीर का पोषण करने के लिये ही प्रयत्न करते हैं, तुम मेरे कहने से उन दीनजनों के पास भी पास जाकर सब प्रकारसे उनका कुशल-समाचार पूछना। सूतपुत्र! इनके सिवा विभिन्न दिशाओं से आये हुए दूसरे-दूसरे लोग घृतराष्ट्रपुत्रों का आश्रय लेकर रहते हैं। उन सब माननीय पुरूषों से भी मिलकर उनकी कुशल और क्या वे जीवित बचे रहेंगे, इस संबंध में भी प्रश्न करना। इस प्रकार वहां सब दिशाओं से पधारे हुए राजदूतों तथा अन्य सब अभ्यागतों से कुशल-मंड़्गल पूछकर अंत में उनसे मेरा कुशल-समाचार भी निवेदन करना। यद्यपि दुर्योधन ने जिन योद्धाओं का संग्रह किया है, वैसे वीर इस भूमण्डल में दूसरे नहीं हैं, तथापि धर्म ही नित्य है और मेरे पास शत्रुओं का नाश करने के लिये धर्म काही सबसे महान् बल है। संजय! दुर्योधन को तुम मेरी यह बात पुन: सुना देना-'तुम्हारे शरीर के भीतर मन में जो यह अभिलाषा उत्पन्न हुई है कि मैं कौरवों का निष्कण्टक राज्य करूं, वह तुम्हारे हृदय को पीड़ामात्र दे रही है। उसकी सिद्धिका कोई उपाय नहीं है। हम ऐसे पौरूषहीन नहीं है कि तुम्हारा यह प्रिय कार्य होने दें। भरतवंश के प्रमुख वीर! तुम इन्द्रप्रस्थपुरी फिर मुझे ही लौटा दो अथवा युद्ध करो' ।
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