"महाभारत वन पर्व अध्याय 179 श्लोक 21-42": अवतरणों में अंतर

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==सप्तसप्तधिकशततम (177) अध्‍याय: वन पर्व (अजगर पर्व)==
==एकोनाशीत्यधिकशततम(177) अध्‍याय: वन पर्व (अजगर पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: त्रिसप्तत्यधिशततम अध्‍याय:  श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: एकोनाशीत्यधिकशततम अध्‍याय:  श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद</div>


'महर्षिने मुझसे कहा था कि 'जो तुम्हारे पूछे हुए प्रश्नोंका विभागपूर्वक उतर दे दे, वही तुम्हें शापसे छुड़ा सकता है। 'राजन् ! जिसे तुम पकड़ लोगे, वह बलवान् से बलवान् प्राणी क्यों न हो, उसका भी धैर्य छूट जायगा। एवं तुमसे अधिक शक्तिशाली पुरूष क्यों न हो, सबका साहस शीघ्र ही खो जायगा,। 'इस प्रकार मेरे प्रति हार्दिक दयाभाव उत्पन्न हो जानेके कारण उन दयालु महर्षियोंने जो बात कही थी, वह भी मैंने स्पष्ट सुनी। तत्पश्चात् वे सारे ब्रह्मर्षि अन्तर्धान हो गये। 'महाद्युते ! इस प्रकार मैं अत्यन्त दुष्कर्मी होनेके कारण इस अपवित्र नरकमें निवास करता हूं। इस सर्पयोनिमें पकड़कर इससे छूटनेके अवसरकी प्रतीक्षा करता हूं। तब महाबाहु भीमने उस अजगरसे कहा-'महासर्प ! न तो मैं आपपर क्रोध करता हूं और न अपनी ही निन्दा करता हूं। 'क्योंकि मनुष्य सुख-दुःख की प्राप्ति अथवा निवृतिमें कभी असमर्थ होता है और कभी समर्थ। अतः किसी भीदशामें अपने मनमें ग्लानि नहीं आने देनी चाहिये। 'कौन ऐसा मनुष्य हैं, जो पुरूषार्थके बलसे दैवको वंचित कर सके। मैं तो दैवको ही बड़ा मानता हूं, पुरूषार्थ व्यर्थ है। 'देखिये, दैवके आघातसे आज मैं अकारण ही यहां इस दशाको प्राप्त हो गया हूं। नही तो मुझे अपने बाहुबलका बड़ा भरोसा था। 'परंतु आज मैं अपनी मृत्युके लिये उतना शोक नहीं करता हूं, जितना कि राज्यसे वंचित हो वनमें पड़े हुए अपने भाइयोंके लिये मुझे शोक हो रहा है। 'यक्षों तथा राक्षसोंसे भरा हुआ यह हिमालय अत्यन्त दुर्गम है, मेरे भाई व्याकूल होकर जब मुझे खोजेंगे, तब अवश्य कहीं खंदकमें गिर पड़ेगे। 'मेरी मृत्यु हुई सुनकर वे राज्य-प्राप्तिका सारा उद्योग छोड़ बैठेगे। मेरे सभी भाई स्वभावतः धर्मात्मा है। मैं ही राज्यके लोभसे उन्हें युद्धके लिये बाध्य करता रहता हूं।'अथवा बुद्धिमान् अर्जुन विषादमें नहीं पड़ेगे; क्योंकि वे सम्पूर्ण अस्त्रोंके ज्ञाता हैं। देवता, गन्धर्व तथा राक्षस भी उन्हें पराजित नहीं कर सकते। 'महाबली महाबाहु अर्जुन अकेले ही देवराज इन्द्रको भी अनायास ही अपने स्थानसे हटा देनेमें समर्थ हैं। फिर उस दुर्योधनको जीतना उनके लिये कौनसी बडी बात है, जो कपटद्यूतका सेवन करनेवाला, लोकद्रोही, दम्भी तथा मोहमें डूबा हुआ है। 'मैं पुत्रोके प्रति स्नेह रखनेवाली अपनी उस दीन माताके लिये शोक करता हूं, जो सदा यह आशा रखती है कि हम सभी भाइयोंका महत्व शत्रुओंसे बढ़-चढकर हो। 'भुजंग ! मेरे मरनेसे मेरी अनाथ माताके वे सभी मनोरथ जो मुझपर अवलम्बित थे, कैसे सफल हो सकेंगे ? 'एक साथ जन्म लेनेवाले नकुल ओर सहदेव सदा गुरूजनोंकी आज्ञाके पालनमें लगे रहते हैं। मेरे बाहुबलसे सुरक्षित हो वे भाई सर्वदा अपने पौरूषपर अभिमान रखते हैं। 'वे मेरे विनाशसे उत्साहशून्य हो जायेंगे, अपने बल ओर पराक्रम खो बैठेगें, और सर्वथा शक्तिहीन हो जायेगे, ऐसा मेरा विश्वास है। जनमेजय ! उस समय भीमसेनने इस तरह की बहुतसी बातें कहकर देरतक विलाप किया। वे सर्पके शरीरसे इस प्रकार जकड गये थे कि हिलडुल भी नहीं सकते थे। उधर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर अनिष्टसूचक भयंकर उत्पातोंको देखकर बड़ी चिन्तामें पड़े। वे व्याकुल हो गये। उनके आश्रमसे दक्षिण दिशामें, जहां आग लगी हुई थी, एक डरी हुई सियारिन खड़ी हो दारूण अमंगलपूर्वक आर्तनाद करने लगी। एक आंख, एक आंख तथा एक पैरवाली भयंकर और मलिन वर्तिका ( बटेर चिंडियां) सूर्यकी ओर रक्त उगलती हुई दिखायी दी।
'महर्षिने मुझसे कहा था कि 'जो तुम्हारे पूछे हुए प्रश्नोंका विभागपूर्वक उतर दे दे, वही तुम्हें शापसे छुड़ा सकता है। 'राजन् ! जिसे तुम पकड़ लोगे, वह बलवान् से बलवान् प्राणी क्यों न हो, उसका भी धैर्य छूट जायगा। एवं तुमसे अधिक शक्तिशाली पुरूष क्यों न हो, सबका साहस शीघ्र ही खो जायगा,। 'इस प्रकार मेरे प्रति हार्दिक दयाभाव उत्पन्न हो जानेके कारण उन दयालु महर्षियोंने जो बात कही थी, वह भी मैंने स्पष्ट सुनी। तत्पश्चात् वे सारे ब्रह्मर्षि अन्तर्धान हो गये। 'महाद्युते ! इस प्रकार मैं अत्यन्त दुष्कर्मी होनेके कारण इस अपवित्र नरकमें निवास करता हूं। इस सर्पयोनिमें पकड़कर इससे छूटनेके अवसरकी प्रतीक्षा करता हूं। तब महाबाहु भीमने उस अजगरसे कहा-'महासर्प ! न तो मैं आपपर क्रोध करता हूं और न अपनी ही निन्दा करता हूं। 'क्योंकि मनुष्य सुख-दुःख की प्राप्ति अथवा निवृतिमें कभी असमर्थ होता है और कभी समर्थ। अतः किसी भीदशामें अपने मनमें ग्लानि नहीं आने देनी चाहिये। 'कौन ऐसा मनुष्य हैं, जो पुरूषार्थके बलसे दैवको वंचित कर सके। मैं तो दैवको ही बड़ा मानता हूं, पुरूषार्थ व्यर्थ है। 'देखिये, दैवके आघातसे आज मैं अकारण ही यहां इस दशाको प्राप्त हो गया हूं। नही तो मुझे अपने बाहुबलका बड़ा भरोसा था। 'परंतु आज मैं अपनी मृत्युके लिये उतना शोक नहीं करता हूं, जितना कि राज्यसे वंचित हो वनमें पड़े हुए अपने भाइयोंके लिये मुझे शोक हो रहा है। 'यक्षों तथा राक्षसोंसे भरा हुआ यह हिमालय अत्यन्त दुर्गम है, मेरे भाई व्याकूल होकर जब मुझे खोजेंगे, तब अवश्य कहीं खंदकमें गिर पड़ेगे। 'मेरी मृत्यु हुई सुनकर वे राज्य-प्राप्तिका सारा उद्योग छोड़ बैठेगे। मेरे सभी भाई स्वभावतः धर्मात्मा है। मैं ही राज्यके लोभसे उन्हें युद्धके लिये बाध्य करता रहता हूं।'अथवा बुद्धिमान् अर्जुन विषादमें नहीं पड़ेगे; क्योंकि वे सम्पूर्ण अस्त्रोंके ज्ञाता हैं। देवता, गन्धर्व तथा राक्षस भी उन्हें पराजित नहीं कर सकते। 'महाबली महाबाहु अर्जुन अकेले ही देवराज इन्द्रको भी अनायास ही अपने स्थानसे हटा देनेमें समर्थ हैं। फिर उस दुर्योधनको जीतना उनके लिये कौनसी बडी बात है, जो कपटद्यूतका सेवन करनेवाला, लोकद्रोही, दम्भी तथा मोहमें डूबा हुआ है। 'मैं पुत्रोके प्रति स्नेह रखनेवाली अपनी उस दीन माताके लिये शोक करता हूं, जो सदा यह आशा रखती है कि हम सभी भाइयोंका महत्व शत्रुओंसे बढ़-चढकर हो। 'भुजंग ! मेरे मरनेसे मेरी अनाथ माताके वे सभी मनोरथ जो मुझपर अवलम्बित थे, कैसे सफल हो सकेंगे ? 'एक साथ जन्म लेनेवाले नकुल ओर सहदेव सदा गुरूजनोंकी आज्ञाके पालनमें लगे रहते हैं। मेरे बाहुबलसे सुरक्षित हो वे भाई सर्वदा अपने पौरूषपर अभिमान रखते हैं। 'वे मेरे विनाशसे उत्साहशून्य हो जायेंगे, अपने बल ओर पराक्रम खो बैठेगें, और सर्वथा शक्तिहीन हो जायेगे, ऐसा मेरा विश्वास है। जनमेजय ! उस समय भीमसेनने इस तरह की बहुतसी बातें कहकर देरतक विलाप किया। वे सर्पके शरीरसे इस प्रकार जकड गये थे कि हिलडुल भी नहीं सकते थे। उधर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर अनिष्टसूचक भयंकर उत्पातोंको देखकर बड़ी चिन्तामें पड़े। वे व्याकुल हो गये। उनके आश्रमसे दक्षिण दिशामें, जहां आग लगी हुई थी, एक डरी हुई सियारिन खड़ी हो दारूण अमंगलपूर्वक आर्तनाद करने लगी। एक आंख, एक आंख तथा एक पैरवाली भयंकर और मलिन वर्तिका ( बटेर चिंडियां) सूर्यकी ओर रक्त उगलती हुई दिखायी दी।

१२:४३, १७ अगस्त २०१५ का अवतरण

एकोनाशीत्यधिकशततम(177) अध्‍याय: वन पर्व (अजगर पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकोनाशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद

'महर्षिने मुझसे कहा था कि 'जो तुम्हारे पूछे हुए प्रश्नोंका विभागपूर्वक उतर दे दे, वही तुम्हें शापसे छुड़ा सकता है। 'राजन् ! जिसे तुम पकड़ लोगे, वह बलवान् से बलवान् प्राणी क्यों न हो, उसका भी धैर्य छूट जायगा। एवं तुमसे अधिक शक्तिशाली पुरूष क्यों न हो, सबका साहस शीघ्र ही खो जायगा,। 'इस प्रकार मेरे प्रति हार्दिक दयाभाव उत्पन्न हो जानेके कारण उन दयालु महर्षियोंने जो बात कही थी, वह भी मैंने स्पष्ट सुनी। तत्पश्चात् वे सारे ब्रह्मर्षि अन्तर्धान हो गये। 'महाद्युते ! इस प्रकार मैं अत्यन्त दुष्कर्मी होनेके कारण इस अपवित्र नरकमें निवास करता हूं। इस सर्पयोनिमें पकड़कर इससे छूटनेके अवसरकी प्रतीक्षा करता हूं। तब महाबाहु भीमने उस अजगरसे कहा-'महासर्प ! न तो मैं आपपर क्रोध करता हूं और न अपनी ही निन्दा करता हूं। 'क्योंकि मनुष्य सुख-दुःख की प्राप्ति अथवा निवृतिमें कभी असमर्थ होता है और कभी समर्थ। अतः किसी भीदशामें अपने मनमें ग्लानि नहीं आने देनी चाहिये। 'कौन ऐसा मनुष्य हैं, जो पुरूषार्थके बलसे दैवको वंचित कर सके। मैं तो दैवको ही बड़ा मानता हूं, पुरूषार्थ व्यर्थ है। 'देखिये, दैवके आघातसे आज मैं अकारण ही यहां इस दशाको प्राप्त हो गया हूं। नही तो मुझे अपने बाहुबलका बड़ा भरोसा था। 'परंतु आज मैं अपनी मृत्युके लिये उतना शोक नहीं करता हूं, जितना कि राज्यसे वंचित हो वनमें पड़े हुए अपने भाइयोंके लिये मुझे शोक हो रहा है। 'यक्षों तथा राक्षसोंसे भरा हुआ यह हिमालय अत्यन्त दुर्गम है, मेरे भाई व्याकूल होकर जब मुझे खोजेंगे, तब अवश्य कहीं खंदकमें गिर पड़ेगे। 'मेरी मृत्यु हुई सुनकर वे राज्य-प्राप्तिका सारा उद्योग छोड़ बैठेगे। मेरे सभी भाई स्वभावतः धर्मात्मा है। मैं ही राज्यके लोभसे उन्हें युद्धके लिये बाध्य करता रहता हूं।'अथवा बुद्धिमान् अर्जुन विषादमें नहीं पड़ेगे; क्योंकि वे सम्पूर्ण अस्त्रोंके ज्ञाता हैं। देवता, गन्धर्व तथा राक्षस भी उन्हें पराजित नहीं कर सकते। 'महाबली महाबाहु अर्जुन अकेले ही देवराज इन्द्रको भी अनायास ही अपने स्थानसे हटा देनेमें समर्थ हैं। फिर उस दुर्योधनको जीतना उनके लिये कौनसी बडी बात है, जो कपटद्यूतका सेवन करनेवाला, लोकद्रोही, दम्भी तथा मोहमें डूबा हुआ है। 'मैं पुत्रोके प्रति स्नेह रखनेवाली अपनी उस दीन माताके लिये शोक करता हूं, जो सदा यह आशा रखती है कि हम सभी भाइयोंका महत्व शत्रुओंसे बढ़-चढकर हो। 'भुजंग ! मेरे मरनेसे मेरी अनाथ माताके वे सभी मनोरथ जो मुझपर अवलम्बित थे, कैसे सफल हो सकेंगे ? 'एक साथ जन्म लेनेवाले नकुल ओर सहदेव सदा गुरूजनोंकी आज्ञाके पालनमें लगे रहते हैं। मेरे बाहुबलसे सुरक्षित हो वे भाई सर्वदा अपने पौरूषपर अभिमान रखते हैं। 'वे मेरे विनाशसे उत्साहशून्य हो जायेंगे, अपने बल ओर पराक्रम खो बैठेगें, और सर्वथा शक्तिहीन हो जायेगे, ऐसा मेरा विश्वास है। जनमेजय ! उस समय भीमसेनने इस तरह की बहुतसी बातें कहकर देरतक विलाप किया। वे सर्पके शरीरसे इस प्रकार जकड गये थे कि हिलडुल भी नहीं सकते थे। उधर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर अनिष्टसूचक भयंकर उत्पातोंको देखकर बड़ी चिन्तामें पड़े। वे व्याकुल हो गये। उनके आश्रमसे दक्षिण दिशामें, जहां आग लगी हुई थी, एक डरी हुई सियारिन खड़ी हो दारूण अमंगलपूर्वक आर्तनाद करने लगी। एक आंख, एक आंख तथा एक पैरवाली भयंकर और मलिन वर्तिका ( बटेर चिंडियां) सूर्यकी ओर रक्त उगलती हुई दिखायी दी।


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