"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 20": अवतरणों में अंतर
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हमें स्वतन्त्र इच्छाशक्ति प्रदान करने के बाद परमात्मा हमें छोड़कर अलग खड़ा नहीं हो जाता कि हम स्वेच्छापूर्वक अपना निर्माण या विनाश कर सकें। जब भी कभी स्वतन्त्रता के दुरूपयोग के फलस्वरूप अधर्म बढ़ जाता है और संसार की गाड़ी किसी लीक में फंस जाती है, तो संसार को उस लीक में से निकालने के लिए और किसी नये रास्ते पर उसे चला देने के लिए वह स्वयं जन्म लेता है। अपने प्रेम के कारण वह सृष्टि के कार्य को उच्चतर स्तर पर ले जाने के लिए बार-बार जन्म लेता है। महाभारत के एक श्लोक के अनुसार, विश्व की रक्षा के लिए सदा उद्यत भगवान् के चार रूप हैं। उनमें एक पृथ्वी पर रहकर तप करता है; दूसरा ग़लतियां करने वाली मानवता के कार्यों पर सतर्क दृष्टि रखता है; तीसरा मनुष्य-जगत् में कर्म में लगा रहता है और चौथा रूप एक हज़ार साल की नींद में सोया रहता है। <poem><ref>चतुर्मूर्तिरहं शश्वल्लोकत्राणार्थमुद्यतः। आत्मानं प्रविभज्येह लोकानां हितमाद्धे।। एका मूर्तिसतपश्चर्या कुरूते में भुवि स्थिता। अपरा पश्यति जगत् कुर्वाणं साध्वसाधुनी।। | हमें स्वतन्त्र इच्छाशक्ति प्रदान करने के बाद परमात्मा हमें छोड़कर अलग खड़ा नहीं हो जाता कि हम स्वेच्छापूर्वक अपना निर्माण या विनाश कर सकें। जब भी कभी स्वतन्त्रता के दुरूपयोग के फलस्वरूप अधर्म बढ़ जाता है और संसार की गाड़ी किसी लीक में फंस जाती है, तो संसार को उस लीक में से निकालने के लिए और किसी नये रास्ते पर उसे चला देने के लिए वह स्वयं जन्म लेता है। अपने प्रेम के कारण वह सृष्टि के कार्य को उच्चतर स्तर पर ले जाने के लिए बार-बार जन्म लेता है। महाभारत के एक श्लोक के अनुसार, विश्व की रक्षा के लिए सदा उद्यत भगवान् के चार रूप हैं। उनमें एक पृथ्वी पर रहकर तप करता है; दूसरा ग़लतियां करने वाली मानवता के कार्यों पर सतर्क दृष्टि रखता है; तीसरा मनुष्य-जगत् में कर्म में लगा रहता है और चौथा रूप एक हज़ार साल की नींद में सोया रहता है। <poem><ref>चतुर्मूर्तिरहं शश्वल्लोकत्राणार्थमुद्यतः। आत्मानं प्रविभज्येह लोकानां हितमाद्धे।। एका मूर्तिसतपश्चर्या कुरूते में भुवि स्थिता। अपरा पश्यति जगत् कुर्वाणं साध्वसाधुनी।। अपरा कुरूते कर्म मानुषं लोकमाश्रिता। शते चतुर्थी त्वपरा निद्रां वर्षसहस्त्रिकीम्।। -द्रोणपर्व, 29, 32-34</ref></poem> पूर्ण निष्क्रियता ही ब्रह्म के स्वभाव का एकमात्र पक्ष नहीं है। हिन्दू परम्परा में बताया गया है कि अवतार केवल मानवय स्तर तक ही सीमित नहीं है। कष्ट और अपूर्णता की विद्यमानता का मूल मनुष्य के विद्रोही संकल्प में नहीं बताया गया, अपितु परमात्मा के सृजनात्मक प्रयोजन और वास्तविक संसार के मध्य विद्यमान विषमता में बताया गया है। <br /> | ||
कष्ट और अपूर्णता की विद्यमानता का मूल मनुष्य के विद्रोही संकल्प में नहीं बताया गया, अपितु परमात्मा के सृजनात्मक प्रयोजन और वास्तविक संसार के मध्य विद्यमान विषमता में बताया गया है। यदि कष्ट का मूल मनुष्य के ‘पतन’ को माना जाए, तो हम निर्दोष प्रकृति की अपूर्णताओं की, उस भ्रष्टता की, जो सब जीवित वस्तुओं में विद्यमान है, और रोग के विधान (व्यवस्था) की व्याख्या नहीं कर सकते। इस निदर्शक प्रश्न से, कि मछलियों को कैंसर क्यों होता है, किसी प्रकार पिंड नहीं छुड़ाया जा सकता। गीता बताती है कि एक दिव्य स्त्रष्टा है, जो अगाध शून्य पर अपने रूपों का आरोप करता है। प्रकृति एक अपरिष्कृत पदार्थ है, एक अव्यवस्था, जिसमें से व्यवस्था का विकास किया जाना है; एक यात्रि जिसे प्रकाशित किया जाना है। जब भी दोनों के संघर्ष में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है, तभी उस गातिरोध को दूर करने के लिए दैवीय हस्तक्षेप होता है। इसके अतिरिक्त एक अद्भुत प्रकाशन की धारणा विश्व के सम्बन्ध में हमारे वर्तमान दृष्टिकोणों के साथ कठिनाई से ही मेल खाती है। कबीलों का परमात्मा धीरे-धीरे पृथ्वी का परमात्मा बना और पृथ्वी का परमात्मा अब विश्व का परमात्मा, सम्भवतः अपने विश्वों में से एक विश्व का परमात्मा बन गया है। यह बात सोचने की भी नहीं है कि भगवान् का सम्बन्ध केवल क्षुद्रतम ग्रहों में एक इस ग्रह के केवल एक अंश से ही है। अवतार का सिद्धान्त आध्यात्मिक जगत् के नियम की एक वाक् पटुतापूर्ण अभिव्यक्ति है। यदि परमात्मा को मनुष्यों का रक्षक माना जाए, तो जब भी कभी बुराई की शक्तियां मानवीय मान्यताओं का विनाश करने को उद्यत प्रतीत होती हों, तब परमात्मा को अपने-आप को प्रकट करना ही चाहिए। अवतार परमात्मा का मनुष्य में अवतरण है, मनुष्य का परमात्मा में आरोहण नहीं, जैसा कि मुक्त आत्माओं के मामले में होता है। | यदि कष्ट का मूल मनुष्य के ‘पतन’ को माना जाए, तो हम निर्दोष प्रकृति की अपूर्णताओं की, उस भ्रष्टता की, जो सब जीवित वस्तुओं में विद्यमान है, और रोग के विधान (व्यवस्था) की व्याख्या नहीं कर सकते। इस निदर्शक प्रश्न से, कि मछलियों को कैंसर क्यों होता है, किसी प्रकार पिंड नहीं छुड़ाया जा सकता। गीता बताती है कि एक दिव्य स्त्रष्टा है, जो अगाध शून्य पर अपने रूपों का आरोप करता है। प्रकृति एक अपरिष्कृत पदार्थ है, एक अव्यवस्था, जिसमें से व्यवस्था का विकास किया जाना है; एक यात्रि जिसे प्रकाशित किया जाना है। जब भी दोनों के संघर्ष में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है, तभी उस गातिरोध को दूर करने के लिए दैवीय हस्तक्षेप होता है। इसके अतिरिक्त एक अद्भुत प्रकाशन की धारणा विश्व के सम्बन्ध में हमारे वर्तमान दृष्टिकोणों के साथ कठिनाई से ही मेल खाती है। कबीलों का परमात्मा धीरे-धीरे पृथ्वी का परमात्मा बना और पृथ्वी का परमात्मा अब विश्व का परमात्मा, सम्भवतः अपने विश्वों में से एक विश्व का परमात्मा बन गया है। यह बात सोचने की भी नहीं है कि भगवान् का सम्बन्ध केवल क्षुद्रतम ग्रहों में एक इस ग्रह के केवल एक अंश से ही है। अवतार का सिद्धान्त आध्यात्मिक जगत् के नियम की एक वाक् पटुतापूर्ण अभिव्यक्ति है। यदि परमात्मा को मनुष्यों का रक्षक माना जाए, तो जब भी कभी बुराई की शक्तियां मानवीय मान्यताओं का विनाश करने को उद्यत प्रतीत होती हों, तब परमात्मा को अपने-आप को प्रकट करना ही चाहिए। अवतार परमात्मा का मनुष्य में अवतरण है, मनुष्य का परमात्मा में आरोहण नहीं, जैसा कि मुक्त आत्माओं के मामले में होता है। | ||
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०८:१५, १८ अगस्त २०१५ का अवतरण
हमें स्वतन्त्र इच्छाशक्ति प्रदान करने के बाद परमात्मा हमें छोड़कर अलग खड़ा नहीं हो जाता कि हम स्वेच्छापूर्वक अपना निर्माण या विनाश कर सकें। जब भी कभी स्वतन्त्रता के दुरूपयोग के फलस्वरूप अधर्म बढ़ जाता है और संसार की गाड़ी किसी लीक में फंस जाती है, तो संसार को उस लीक में से निकालने के लिए और किसी नये रास्ते पर उसे चला देने के लिए वह स्वयं जन्म लेता है। अपने प्रेम के कारण वह सृष्टि के कार्य को उच्चतर स्तर पर ले जाने के लिए बार-बार जन्म लेता है। महाभारत के एक श्लोक के अनुसार, विश्व की रक्षा के लिए सदा उद्यत भगवान् के चार रूप हैं। उनमें एक पृथ्वी पर रहकर तप करता है; दूसरा ग़लतियां करने वाली मानवता के कार्यों पर सतर्क दृष्टि रखता है; तीसरा मनुष्य-जगत् में कर्म में लगा रहता है और चौथा रूप एक हज़ार साल की नींद में सोया रहता है।
पूर्ण निष्क्रियता ही ब्रह्म के स्वभाव का एकमात्र पक्ष नहीं है। हिन्दू परम्परा में बताया गया है कि अवतार केवल मानवय स्तर तक ही सीमित नहीं है। कष्ट और अपूर्णता की विद्यमानता का मूल मनुष्य के विद्रोही संकल्प में नहीं बताया गया, अपितु परमात्मा के सृजनात्मक प्रयोजन और वास्तविक संसार के मध्य विद्यमान विषमता में बताया गया है।
यदि कष्ट का मूल मनुष्य के ‘पतन’ को माना जाए, तो हम निर्दोष प्रकृति की अपूर्णताओं की, उस भ्रष्टता की, जो सब जीवित वस्तुओं में विद्यमान है, और रोग के विधान (व्यवस्था) की व्याख्या नहीं कर सकते। इस निदर्शक प्रश्न से, कि मछलियों को कैंसर क्यों होता है, किसी प्रकार पिंड नहीं छुड़ाया जा सकता। गीता बताती है कि एक दिव्य स्त्रष्टा है, जो अगाध शून्य पर अपने रूपों का आरोप करता है। प्रकृति एक अपरिष्कृत पदार्थ है, एक अव्यवस्था, जिसमें से व्यवस्था का विकास किया जाना है; एक यात्रि जिसे प्रकाशित किया जाना है। जब भी दोनों के संघर्ष में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है, तभी उस गातिरोध को दूर करने के लिए दैवीय हस्तक्षेप होता है। इसके अतिरिक्त एक अद्भुत प्रकाशन की धारणा विश्व के सम्बन्ध में हमारे वर्तमान दृष्टिकोणों के साथ कठिनाई से ही मेल खाती है। कबीलों का परमात्मा धीरे-धीरे पृथ्वी का परमात्मा बना और पृथ्वी का परमात्मा अब विश्व का परमात्मा, सम्भवतः अपने विश्वों में से एक विश्व का परमात्मा बन गया है। यह बात सोचने की भी नहीं है कि भगवान् का सम्बन्ध केवल क्षुद्रतम ग्रहों में एक इस ग्रह के केवल एक अंश से ही है। अवतार का सिद्धान्त आध्यात्मिक जगत् के नियम की एक वाक् पटुतापूर्ण अभिव्यक्ति है। यदि परमात्मा को मनुष्यों का रक्षक माना जाए, तो जब भी कभी बुराई की शक्तियां मानवीय मान्यताओं का विनाश करने को उद्यत प्रतीत होती हों, तब परमात्मा को अपने-आप को प्रकट करना ही चाहिए। अवतार परमात्मा का मनुष्य में अवतरण है, मनुष्य का परमात्मा में आरोहण नहीं, जैसा कि मुक्त आत्माओं के मामले में होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चतुर्मूर्तिरहं शश्वल्लोकत्राणार्थमुद्यतः। आत्मानं प्रविभज्येह लोकानां हितमाद्धे।। एका मूर्तिसतपश्चर्या कुरूते में भुवि स्थिता। अपरा पश्यति जगत् कुर्वाणं साध्वसाधुनी।। अपरा कुरूते कर्म मानुषं लोकमाश्रिता। शते चतुर्थी त्वपरा निद्रां वर्षसहस्त्रिकीम्।। -द्रोणपर्व, 29, 32-34