"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 8 श्लोक 18-29": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तर्गत दानधर्मपर्व श्रेष्‍ठ ब्राह्माणों की प्रशंसाविषयक आठवां अध्‍याय पूरा हुआ।</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तर्गत दानधर्मपर्व श्रेष्‍ठ ब्राह्माणों की प्रशंसाविषयक आठवां अध्‍याय पूरा हुआ।</div>


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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१३:१३, १९ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

अष्‍टम (8) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्‍टम अध्याय: श्लोक 18-29 का हिन्दी अनुवाद

लोग मुझे ब्राह्माणभक्‍त कहते हैं । उनके इस कथन से मुझे बड़ा संतोष होता है । ब्रहृाणों की सेवा ही सम्‍पूर्ण पवित्र कर्मों से बढ़कर परम पवित्र कार्य है। तोत ! ब्राह्माण की सेवामें रहने वाले पुरूष को जिन पवित्र और निर्मल लोकों की प्राप्ति होती है, उन्‍हें मैं यहीं से देखता हूं। अब शीघ्र मुझे चिरकाल के लिये उन्‍हीं लोकों में जाना है। युधिष्ठिर ! जैसे स्त्रियों के लिये पति की सेवा ही संसार में सबसे बड़ा धर्म है, पति ही उनका देवता और वही उनकी परम गति है, उनके लिये दूसरी कोई गति नहीं है, उसी प्रकार क्षत्रिय के लिये ब्रह्माण की सेवा ही परम धर्म है । ब्राह्माण ही उनका देवता और परम गति है, दूसरा नहीं। क्षत्रिय सौ वर्ष का हो और श्रेष्‍ठ ब्राह्माण दस वर्ष की अवस्‍था का हो तो भी उन दोनों को परस्‍पर पुत्र और पिता के समान जानना चाहिए । उनमें ब्रह्माण पिता है और क्षत्रिय पुत्र। जैसे नारी पति के अभाव में देवर को पति बनाती है, उसी प्रकार पृथ्‍वी ब्राह्माण के न मिलने पर ही क्षत्रिय को अपना अधिपति बनाती है। पुरोहित सहित राजाओं को ब्रह्माण की आज्ञा से राज्‍य ग्रहण करना चाहिए । ब्राह्माण की रक्षा से ही राजा को स्‍वर्ग मिलता है और उसको रूष्‍ट कर देने से वह अनन्‍तकाल के लिये नरक में गिर जाता है ।। कुरूश्रेष्‍ठ ! ब्राह्माणों की पुत्र के समान रक्षा, गुरू की भांति उपासना और अग्नि की भांति उनकी सेवा-पूजा करनी चाहिए। सरल, साधु, स्‍वभावत: सत्‍यवादी तथा समस्‍त प्राणियों के हित में तत्‍पर रहने वाले ब्राह्माणों की सदा ही सेवा करनी चाहिए और क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प के समान समझकर उनसे भयभीत रहना चाहिए । ब्रहृाणों की जो स्त्रियां हों उनकी भी सुरक्षा का ध्‍यान रखते हुए माता के समान उनका दूर से ही पूजन करना चाहिए ।। यूधिष्ठिर ! ब्राह्माणों के तेज ओर तप से सदा डरना चाहिए तथा उनके सामने अपने तप एवं तेज का अभिमान त्‍याग देना चाहिए। महाराज ! ब्राह्माण के तप और क्षत्रिय के तेज का फल शीघ्र ही प्रकट होता है तथापि जो तपस्‍वी ब्राह्माण हैं वे कुपित होने पर तेजस्‍वी श्रत्रिय को अपने तपके प्रभाव से मार सकते हैं। क्रोधरहित – क्षमाशील ब्राह्माण को पाकर क्षत्रिय की ओर से अधिक मात्रा में प्रयुक्‍त किये गये तप और तेज आग पर रूर्इ के ढेर के समान तत्‍काल नष्‍ट हो जाते हैं । यदि दोनों ओर से एक-दूसरे पर तेज और तपका प्रयोग हो तो उनका सर्वथा नाश नहीं होता, परंतु क्षमाशील ब्राह्माण के द्वारा खण्डित होने से बचा हुआ क्षत्रिय का तेज किसी तेजस्‍वी ब्राह्माण पर प्रयुक्‍त हो तो वह उससे प्रतिहत होकर सर्वथा नष्‍ट हो जाता है, थोड़ा-सा भी शेष नहीं रह जाता। जैसे चरवाहा हाथ में डंडा लेकर सदा गौओं की रखवाली करता है, उसी प्रकार क्षत्रिय को उचित है कि वह ब्राह्माणों और वेदों की सदा रक्षा करें। राजा को चाहिए कि वह धर्मात्‍मा ब्राह्माणों की उसी तरह रक्षा करें, जैसे पिता पुत्रों की करता है । वह सदा इस बात की देख-भाल करता रहे कि उनके घर में जीवन-निर्वाह के लिये क्‍या है और क्‍या नहीं है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तर्गत दानधर्मपर्व श्रेष्‍ठ ब्राह्माणों की प्रशंसाविषयक आठवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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