"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 25": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;"> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">6.संसार की स्थिति और माया की धारणा</div> | ||
संसार अपने क्रमिक सोपान-तन्त्र के साथ जो कुछ है, उस रूप में यह क्यों है? हम केवल इतना कह सकते हैं कि अपने-आप को इस रूप में प्रकट करना भगवान् का स्वभाव है। हम संसार के होने के कारण नहीं बतला सकते; हम केवल इसकी प्रकृति के विषय में बतला सकते हैं, जो अस्तित्वमान् होने की प्रक्रिया में सत् और असत् के बीच चल रहे संघर्ष के रूप में है। विशुद्ध सत् संसार से ऊपर है और विशुद्ध असत् निम्नतम विद्यमान वस्तु से भी नीचे है। यदि हम उससे भी नीचे जाएं, तो हम शून्य तक पहुँच जाएंगे, जो बिलकुल परम अनस्तित्व है। सच्चे अस्तित्वमान् जगत्, संसार, में हमें सत् और असत् के दो मूल तत्त्वों के बीच संघर्ष दिखाई पड़ता है। पारस्परिक क्रिया की पहली उपज ब्रह्माण्ड है, जिसके अन्दर व्यक्त सत् की सम्पूर्णता निहित रहती है। बाद में होने वाले सब विकास उसके अन्दर बीज-रूप में रहते हैं। उसके अन्दर अतीत, वर्तमान और भविष्य, एक सर्वोच्च ‘अब’ (अधुना) में निहित रहते हैं। अर्जुन सारे विश्व-रूप को एक विशाल आकृति में देखता है। वह ब्रह्म के रूप को अस्तित्व की सम्पूर्ण सीमाओं को तोड़ते हुए, सम्पूर्ण आकाश और विश्व को व्याप्त करते हुए देखता है, जिसमें लोक जल प्रपातों की भाँति बह रहे हैं। जो लोग भगवान् को अव्यक्तिक (निर्गुण) और सम्बन्धहीन मानते हैं, वे आत्म-प्रकाशन की शक्ति समेत ईश्वर की धारणा को अज्ञान (अविद्या) का परिणाम मानते हैं।<ref>शंकराचार्य का कथन है कि “वे नाम और रूप, जिन्हें आत्मा की प्रकृति के आज्ञान के फलस्वरूप परमेश्वर में विद्यमान समझा जाता है और जिनके विषय में यह कह पाना सम्भव नहीं है कि वे भगवान् से भिन्न हैं या अभिन्न, श्रुति और स्मृति ग्रन्थों में सर्वत्र परमेश्वर की माया, शक्ति और प्रकृति कहे गये हैं।” ब्रह्मसूत्र पर शांकर भाष्य, 2, 1, 14</ref>विचार की वह शक्ति, जो उन रूपों को उत्पन्न करती है जो क्षणिक हैं और इसीलिए शाश्वत वास्तविकता की तुलना में अवास्तविक है, इन रूपों को उत्पन्न करने के कारण अविद्या कहलाती है। परन्तु अविद्या किसी इस या उस व्यक्ति का विलक्षण गुण नहीं है। यह भगवान् की आत्मा-प्रकाशन की शक्ति कही जाती है। भगवान् का कथन है कि भले ही वह वस्तुतः अजन्मा है, परन्तु वह अपनी शक्ति द्वारा, आत्ममायया,<ref>4, 61 “भगवान् ने अपनी योग की शक्ति का प्रयोग करके लीला करने की इच्छा की।” भगवान् अपि रन्तुं मनश्चक्रे योगमायाम् उपाश्रितः। भागवत 10, 29, 1</ref>जन्म लेता है। माया शब्द ‘मा’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है — बनाना, रचना करना और मूलतः इस शब्द का अर्थ था — रूप उत्पन्न करने की क्षमता। वह सृजनात्मक शक्ति, जिसके द्वारा परमात्मा विश्व को गढ़ता है, योगमाया कहलाती है। इस बात का कोई संकेत नहीं है कि माया द्वारा या परमात्मा, मायी, की रूप गढ़ने की शक्ति द्वारा उत्पन्न किए गए रूप, घटनाएं और वस्तुएं केवल भ्रम हैं। कभी-कभी माया को मोह का स्त्रोत भी बताया जाता है। “प्रकृति के इन तीन गुणों से मूढ़ होकर यह संसार मुझे नहीं पहचान पाता, जो कि मैं उन तीनों दिव्य गति विधि किसी अपने प्रयोजन को सामने रखकर प्रारम्भ नहीं की गई, क्योंकि परमात्मा तो नित्यतृप्त है। यह अनाशक्ति का तत्त्व लीला शब्द के प्रयोग द्वारा स्पष्ट किया गया है। लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्। ब्रह्मसूत्र, 2, 1, 33। राधा उपनिषद् में कहा गया है कि वह एक परमात्मा संसार की विविध गतिविधियों में सदा क्रीड़ा करता रहता है। एको देवो नित्यलीलानुरक्तः। 4, गुणों से ऊपर अनश्वर हूँ।” | संसार अपने क्रमिक सोपान-तन्त्र के साथ जो कुछ है, उस रूप में यह क्यों है? हम केवल इतना कह सकते हैं कि अपने-आप को इस रूप में प्रकट करना भगवान् का स्वभाव है। हम संसार के होने के कारण नहीं बतला सकते; हम केवल इसकी प्रकृति के विषय में बतला सकते हैं, जो अस्तित्वमान् होने की प्रक्रिया में सत् और असत् के बीच चल रहे संघर्ष के रूप में है। विशुद्ध सत् संसार से ऊपर है और विशुद्ध असत् निम्नतम विद्यमान वस्तु से भी नीचे है। यदि हम उससे भी नीचे जाएं, तो हम शून्य तक पहुँच जाएंगे, जो बिलकुल परम अनस्तित्व है। सच्चे अस्तित्वमान् जगत्, संसार, में हमें सत् और असत् के दो मूल तत्त्वों के बीच संघर्ष दिखाई पड़ता है। पारस्परिक क्रिया की पहली उपज ब्रह्माण्ड है, जिसके अन्दर व्यक्त सत् की सम्पूर्णता निहित रहती है। बाद में होने वाले सब विकास उसके अन्दर बीज-रूप में रहते हैं। उसके अन्दर अतीत, वर्तमान और भविष्य, एक सर्वोच्च ‘अब’ (अधुना) में निहित रहते हैं। अर्जुन सारे विश्व-रूप को एक विशाल आकृति में देखता है। वह ब्रह्म के रूप को अस्तित्व की सम्पूर्ण सीमाओं को तोड़ते हुए, सम्पूर्ण आकाश और विश्व को व्याप्त करते हुए देखता है, जिसमें लोक जल प्रपातों की भाँति बह रहे हैं। जो लोग भगवान् को अव्यक्तिक (निर्गुण) और सम्बन्धहीन मानते हैं, वे आत्म-प्रकाशन की शक्ति समेत ईश्वर की धारणा को अज्ञान (अविद्या) का परिणाम मानते हैं।<ref>शंकराचार्य का कथन है कि “वे नाम और रूप, जिन्हें आत्मा की प्रकृति के आज्ञान के फलस्वरूप परमेश्वर में विद्यमान समझा जाता है और जिनके विषय में यह कह पाना सम्भव नहीं है कि वे भगवान् से भिन्न हैं या अभिन्न, श्रुति और स्मृति ग्रन्थों में सर्वत्र परमेश्वर की माया, शक्ति और प्रकृति कहे गये हैं।” ब्रह्मसूत्र पर शांकर भाष्य, 2, 1, 14</ref>विचार की वह शक्ति, जो उन रूपों को उत्पन्न करती है जो क्षणिक हैं और इसीलिए शाश्वत वास्तविकता की तुलना में अवास्तविक है, इन रूपों को उत्पन्न करने के कारण अविद्या कहलाती है। परन्तु अविद्या किसी इस या उस व्यक्ति का विलक्षण गुण नहीं है। यह भगवान् की आत्मा-प्रकाशन की शक्ति कही जाती है। भगवान् का कथन है कि भले ही वह वस्तुतः अजन्मा है, परन्तु वह अपनी शक्ति द्वारा, आत्ममायया,<ref>4, 61 “भगवान् ने अपनी योग की शक्ति का प्रयोग करके लीला करने की इच्छा की।” भगवान् अपि रन्तुं मनश्चक्रे योगमायाम् उपाश्रितः। भागवत 10, 29, 1</ref>जन्म लेता है। माया शब्द ‘मा’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है — बनाना, रचना करना और मूलतः इस शब्द का अर्थ था — रूप उत्पन्न करने की क्षमता। वह सृजनात्मक शक्ति, जिसके द्वारा परमात्मा विश्व को गढ़ता है, योगमाया कहलाती है। इस बात का कोई संकेत नहीं है कि माया द्वारा या परमात्मा, मायी, की रूप गढ़ने की शक्ति द्वारा उत्पन्न किए गए रूप, घटनाएं और वस्तुएं केवल भ्रम हैं। कभी-कभी माया को मोह का स्त्रोत भी बताया जाता है। “प्रकृति के इन तीन गुणों से मूढ़ होकर यह संसार मुझे नहीं पहचान पाता, जो कि मैं उन तीनों दिव्य गति विधि किसी अपने प्रयोजन को सामने रखकर प्रारम्भ नहीं की गई, क्योंकि परमात्मा तो नित्यतृप्त है। यह अनाशक्ति का तत्त्व लीला शब्द के प्रयोग द्वारा स्पष्ट किया गया है। लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्। ब्रह्मसूत्र, 2, 1, 33। राधा उपनिषद् में कहा गया है कि वह एक परमात्मा संसार की विविध गतिविधियों में सदा क्रीड़ा करता रहता है। एको देवो नित्यलीलानुरक्तः। 4, गुणों से ऊपर अनश्वर हूँ।” |
०५:१३, २० अगस्त २०१५ का अवतरण
संसार अपने क्रमिक सोपान-तन्त्र के साथ जो कुछ है, उस रूप में यह क्यों है? हम केवल इतना कह सकते हैं कि अपने-आप को इस रूप में प्रकट करना भगवान् का स्वभाव है। हम संसार के होने के कारण नहीं बतला सकते; हम केवल इसकी प्रकृति के विषय में बतला सकते हैं, जो अस्तित्वमान् होने की प्रक्रिया में सत् और असत् के बीच चल रहे संघर्ष के रूप में है। विशुद्ध सत् संसार से ऊपर है और विशुद्ध असत् निम्नतम विद्यमान वस्तु से भी नीचे है। यदि हम उससे भी नीचे जाएं, तो हम शून्य तक पहुँच जाएंगे, जो बिलकुल परम अनस्तित्व है। सच्चे अस्तित्वमान् जगत्, संसार, में हमें सत् और असत् के दो मूल तत्त्वों के बीच संघर्ष दिखाई पड़ता है। पारस्परिक क्रिया की पहली उपज ब्रह्माण्ड है, जिसके अन्दर व्यक्त सत् की सम्पूर्णता निहित रहती है। बाद में होने वाले सब विकास उसके अन्दर बीज-रूप में रहते हैं। उसके अन्दर अतीत, वर्तमान और भविष्य, एक सर्वोच्च ‘अब’ (अधुना) में निहित रहते हैं। अर्जुन सारे विश्व-रूप को एक विशाल आकृति में देखता है। वह ब्रह्म के रूप को अस्तित्व की सम्पूर्ण सीमाओं को तोड़ते हुए, सम्पूर्ण आकाश और विश्व को व्याप्त करते हुए देखता है, जिसमें लोक जल प्रपातों की भाँति बह रहे हैं। जो लोग भगवान् को अव्यक्तिक (निर्गुण) और सम्बन्धहीन मानते हैं, वे आत्म-प्रकाशन की शक्ति समेत ईश्वर की धारणा को अज्ञान (अविद्या) का परिणाम मानते हैं।[१]विचार की वह शक्ति, जो उन रूपों को उत्पन्न करती है जो क्षणिक हैं और इसीलिए शाश्वत वास्तविकता की तुलना में अवास्तविक है, इन रूपों को उत्पन्न करने के कारण अविद्या कहलाती है। परन्तु अविद्या किसी इस या उस व्यक्ति का विलक्षण गुण नहीं है। यह भगवान् की आत्मा-प्रकाशन की शक्ति कही जाती है। भगवान् का कथन है कि भले ही वह वस्तुतः अजन्मा है, परन्तु वह अपनी शक्ति द्वारा, आत्ममायया,[२]जन्म लेता है। माया शब्द ‘मा’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है — बनाना, रचना करना और मूलतः इस शब्द का अर्थ था — रूप उत्पन्न करने की क्षमता। वह सृजनात्मक शक्ति, जिसके द्वारा परमात्मा विश्व को गढ़ता है, योगमाया कहलाती है। इस बात का कोई संकेत नहीं है कि माया द्वारा या परमात्मा, मायी, की रूप गढ़ने की शक्ति द्वारा उत्पन्न किए गए रूप, घटनाएं और वस्तुएं केवल भ्रम हैं। कभी-कभी माया को मोह का स्त्रोत भी बताया जाता है। “प्रकृति के इन तीन गुणों से मूढ़ होकर यह संसार मुझे नहीं पहचान पाता, जो कि मैं उन तीनों दिव्य गति विधि किसी अपने प्रयोजन को सामने रखकर प्रारम्भ नहीं की गई, क्योंकि परमात्मा तो नित्यतृप्त है। यह अनाशक्ति का तत्त्व लीला शब्द के प्रयोग द्वारा स्पष्ट किया गया है। लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्। ब्रह्मसूत्र, 2, 1, 33। राधा उपनिषद् में कहा गया है कि वह एक परमात्मा संसार की विविध गतिविधियों में सदा क्रीड़ा करता रहता है। एको देवो नित्यलीलानुरक्तः। 4, गुणों से ऊपर अनश्वर हूँ।”
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शंकराचार्य का कथन है कि “वे नाम और रूप, जिन्हें आत्मा की प्रकृति के आज्ञान के फलस्वरूप परमेश्वर में विद्यमान समझा जाता है और जिनके विषय में यह कह पाना सम्भव नहीं है कि वे भगवान् से भिन्न हैं या अभिन्न, श्रुति और स्मृति ग्रन्थों में सर्वत्र परमेश्वर की माया, शक्ति और प्रकृति कहे गये हैं।” ब्रह्मसूत्र पर शांकर भाष्य, 2, 1, 14
- ↑ 4, 61 “भगवान् ने अपनी योग की शक्ति का प्रयोग करके लीला करने की इच्छा की।” भगवान् अपि रन्तुं मनश्चक्रे योगमायाम् उपाश्रितः। भागवत 10, 29, 1