"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 55": अवतरणों में अंतर
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जब जो कुछ उसे प्राप्त होता है, वह उसे ग्रहण कर लेता है और जब आवश्यकता होती है, तब वह बिना दुःख से उसे त्याग भी देता है।यदि कर्म की पद्धति के प्रति विरोध है, तो वह स्चयं कर्म के प्रति विरोध नहीं है, अपितु कर्म द्वारा मुक्ति पाने के सिद्धान्त के प्रति विरोध है। यदि अज्ञान या अविद्या मूल बुराई है, तब ज्ञान ही उसका सबसे बढ़िया इलाज है। ज्ञान की प्राप्ति ऐसी वस्तु नहीं है, जो काल में उपलब्ध हो सकती हो। ज्ञान सदा विशुद्ध और पूर्ण है और वह किसी कर्म का फल नहीं है। एक सनातन उपलब्धि, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता, किसी क्षणिक कर्म का परिणाम नहीं हो सकती। परन्तु कर्म ज्ञान के लिए मनुष्य को तैयार करता है। ‘सनत्सुजातीय’ पर टीका करते हुए शंकराचार्य ने कहा हैः “मुक्ति ज्ञान द्वारा प्राप्त होती है; परन्तु ज्ञान हृदय को पवित्र किए बिना उत्पन्न नहीं हो सकता। अतः हृदय की शुद्धि के लिए मनुष्य को श्रुतियों और स्मृतियों द्वारा विहित वाणी, मन और शरीर के सब कर्म करने चाहिए और उन्हें परमात्मा को समर्पित कर देना चाहिए।”<ref>ज्ञानेनैव मोक्षः सिद्ध्यति, किन्तु तदेव ज्ञान सत्वशुद्धिं बिना नोत्पद्येत...तस्मात् सत्वशुद्ध्यर्थ सर्वेश्वरम् उद्दिश्य सर्वाणि वाङ्मनः कायलक्षणानि श्रौतस्मार्तानि कर्माणि समाचरेत्। </ref> इस प्रकार की भावना से किया गया कर्म यज्ञ या बलिदान बन जाता है। यज्ञ का अर्थ है--परमात्मा के निमित्त पवित्र बनाना। यह वचन या आत्मबलिदान नहीं है, अपितु स्वतःस्फूर्त आत्मदान है; एक ऐसी महत्तर चेतना के प्रति आत्मसमर्पण, जिसकी सीमा हम स्वयं हैं। इस प्रकार के आत्मसमर्पण द्वारा मन मलिनताओं से शुद्ध हो जाता है और वह भगवान् की शक्ति और ज्ञान में भागीदार बन जाता है। यज्ञ या बलिदान की भावना से किया गया कर्म बन्धन का कारण नहीं रहता। भगवद्गीता हमारे सम्मुख एक ऐसा धर्म प्रस्तुत करती है, जिसके द्वारा कर्म के नियम से, कर्म और उसके फल की स्वाभाविक व्यवस्था से ऊपर उठा जा सकता है। लोकोत्तर प्रयोजन की ओर से प्राकृतिक व्यवस्था में कोई मनमाने हस्तक्षेप का तत्व विद्यमान नहीं है। गीता का गुरू वास्तविकता के जगत् को पहचानता है, जिसमें कर्म का नियम लागू नहीं होता और यदि हम आपना सम्बन्ध उस जगत् के साथ जोड़ लें, तो हम अपने गम्भीरतम अस्तित्व में स्वतन्त्र हो जाएंगे। कर्म की श्रृंखला को यहीं और अभी, अनुभवजन्य संसार के प्रवाह में रहते हुए तोड़ा जा सकता है। निष्कामता और परमात्मा में श्रद्धा को पुष्ट करके हम कर्म के स्वामी बन जाते हैं। जो ज्ञानी ऋषि परम ब्रह्म में लीन होकर जीवन व्यतीत करता है, उसके लिए यह कहा जाता है कि उसे कुछ करने को शेष नहीं है, तस्य कार्य न विद्यते।<ref>3, 17</ref> सत्य के द्रष्टा की कुछ भी करने या पाने की महत्वाकांक्षा शेष नहीं रहती। जब सब इच्छाएं नष्ट हो जाती हैं, तब कार्य कर पाना सम्भव नहीं है। उत्तरगीता में इस आपत्ति (ऐतराज़) को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया हैः “जो योगी ज्ञान का अमृत पीकर सिद्ध हो गया है, उसके लिए कोई कत्र्तव्य शेष नहीं रहता; यदि कत्र्तव्य शेष रहता है, तो वह सत्य का वास्तविक ज्ञानी नहीं है।”<ref>ज्ञानामृतेन तृप्तस्य कृतकृत्यस्य योगिनः। न चास्ति किं´चत् कर्तव्यमस्ति चेन्न स तत्ववित्।। 1, 23</ref> | जब जो कुछ उसे प्राप्त होता है, वह उसे ग्रहण कर लेता है और जब आवश्यकता होती है, तब वह बिना दुःख से उसे त्याग भी देता है।यदि कर्म की पद्धति के प्रति विरोध है, तो वह स्चयं कर्म के प्रति विरोध नहीं है, अपितु कर्म द्वारा मुक्ति पाने के सिद्धान्त के प्रति विरोध है। यदि अज्ञान या अविद्या मूल बुराई है, तब ज्ञान ही उसका सबसे बढ़िया इलाज है। ज्ञान की प्राप्ति ऐसी वस्तु नहीं है, जो काल में उपलब्ध हो सकती हो। ज्ञान सदा विशुद्ध और पूर्ण है और वह किसी कर्म का फल नहीं है। एक सनातन उपलब्धि, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता, किसी क्षणिक कर्म का परिणाम नहीं हो सकती। परन्तु कर्म ज्ञान के लिए मनुष्य को तैयार करता है। ‘सनत्सुजातीय’ पर टीका करते हुए शंकराचार्य ने कहा हैः “मुक्ति ज्ञान द्वारा प्राप्त होती है; परन्तु ज्ञान हृदय को पवित्र किए बिना उत्पन्न नहीं हो सकता।<br /> | ||
अतः हृदय की शुद्धि के लिए मनुष्य को श्रुतियों और स्मृतियों द्वारा विहित वाणी, मन और शरीर के सब कर्म करने चाहिए और उन्हें परमात्मा को समर्पित कर देना चाहिए।”<ref>ज्ञानेनैव मोक्षः सिद्ध्यति, किन्तु तदेव ज्ञान सत्वशुद्धिं बिना नोत्पद्येत...तस्मात् सत्वशुद्ध्यर्थ सर्वेश्वरम् उद्दिश्य सर्वाणि वाङ्मनः कायलक्षणानि श्रौतस्मार्तानि कर्माणि समाचरेत्। </ref> इस प्रकार की भावना से किया गया कर्म यज्ञ या बलिदान बन जाता है। यज्ञ का अर्थ है--परमात्मा के निमित्त पवित्र बनाना। यह वचन या आत्मबलिदान नहीं है, अपितु स्वतःस्फूर्त आत्मदान है; एक ऐसी महत्तर चेतना के प्रति आत्मसमर्पण, जिसकी सीमा हम स्वयं हैं। इस प्रकार के आत्मसमर्पण द्वारा मन मलिनताओं से शुद्ध हो जाता है और वह भगवान् की शक्ति और ज्ञान में भागीदार बन जाता है। यज्ञ या बलिदान की भावना से किया गया कर्म बन्धन का कारण नहीं रहता। भगवद्गीता हमारे सम्मुख एक ऐसा धर्म प्रस्तुत करती है, जिसके द्वारा कर्म के नियम से, कर्म और उसके फल की स्वाभाविक व्यवस्था से ऊपर उठा जा सकता है। लोकोत्तर प्रयोजन की ओर से प्राकृतिक व्यवस्था में कोई मनमाने हस्तक्षेप का तत्व विद्यमान नहीं है।<br /> | |||
गीता का गुरू वास्तविकता के जगत् को पहचानता है, जिसमें कर्म का नियम लागू नहीं होता और यदि हम आपना सम्बन्ध उस जगत् के साथ जोड़ लें, तो हम अपने गम्भीरतम अस्तित्व में स्वतन्त्र हो जाएंगे। कर्म की श्रृंखला को यहीं और अभी, अनुभवजन्य संसार के प्रवाह में रहते हुए तोड़ा जा सकता है। निष्कामता और परमात्मा में श्रद्धा को पुष्ट करके हम कर्म के स्वामी बन जाते हैं। जो ज्ञानी ऋषि परम ब्रह्म में लीन होकर जीवन व्यतीत करता है, उसके लिए यह कहा जाता है कि उसे कुछ करने को शेष नहीं है, तस्य कार्य न विद्यते।<ref>3, 17</ref> सत्य के द्रष्टा की कुछ भी करने या पाने की महत्वाकांक्षा शेष नहीं रहती। जब सब इच्छाएं नष्ट हो जाती हैं, तब कार्य कर पाना सम्भव नहीं है। उत्तरगीता में इस आपत्ति (ऐतराज़) को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया हैः “जो योगी ज्ञान का अमृत पीकर सिद्ध हो गया है, उसके लिए कोई कत्र्तव्य शेष नहीं रहता; यदि कत्र्तव्य शेष रहता है, तो वह सत्य का वास्तविक ज्ञानी नहीं है।”<ref>ज्ञानामृतेन तृप्तस्य कृतकृत्यस्य योगिनः। न चास्ति किं´चत् कर्तव्यमस्ति चेन्न स तत्ववित्।। 1, 23</ref> | |||
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१२:५१, २० अगस्त २०१५ का अवतरण
जब जो कुछ उसे प्राप्त होता है, वह उसे ग्रहण कर लेता है और जब आवश्यकता होती है, तब वह बिना दुःख से उसे त्याग भी देता है।यदि कर्म की पद्धति के प्रति विरोध है, तो वह स्चयं कर्म के प्रति विरोध नहीं है, अपितु कर्म द्वारा मुक्ति पाने के सिद्धान्त के प्रति विरोध है। यदि अज्ञान या अविद्या मूल बुराई है, तब ज्ञान ही उसका सबसे बढ़िया इलाज है। ज्ञान की प्राप्ति ऐसी वस्तु नहीं है, जो काल में उपलब्ध हो सकती हो। ज्ञान सदा विशुद्ध और पूर्ण है और वह किसी कर्म का फल नहीं है। एक सनातन उपलब्धि, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता, किसी क्षणिक कर्म का परिणाम नहीं हो सकती। परन्तु कर्म ज्ञान के लिए मनुष्य को तैयार करता है। ‘सनत्सुजातीय’ पर टीका करते हुए शंकराचार्य ने कहा हैः “मुक्ति ज्ञान द्वारा प्राप्त होती है; परन्तु ज्ञान हृदय को पवित्र किए बिना उत्पन्न नहीं हो सकता।
अतः हृदय की शुद्धि के लिए मनुष्य को श्रुतियों और स्मृतियों द्वारा विहित वाणी, मन और शरीर के सब कर्म करने चाहिए और उन्हें परमात्मा को समर्पित कर देना चाहिए।”[१] इस प्रकार की भावना से किया गया कर्म यज्ञ या बलिदान बन जाता है। यज्ञ का अर्थ है--परमात्मा के निमित्त पवित्र बनाना। यह वचन या आत्मबलिदान नहीं है, अपितु स्वतःस्फूर्त आत्मदान है; एक ऐसी महत्तर चेतना के प्रति आत्मसमर्पण, जिसकी सीमा हम स्वयं हैं। इस प्रकार के आत्मसमर्पण द्वारा मन मलिनताओं से शुद्ध हो जाता है और वह भगवान् की शक्ति और ज्ञान में भागीदार बन जाता है। यज्ञ या बलिदान की भावना से किया गया कर्म बन्धन का कारण नहीं रहता। भगवद्गीता हमारे सम्मुख एक ऐसा धर्म प्रस्तुत करती है, जिसके द्वारा कर्म के नियम से, कर्म और उसके फल की स्वाभाविक व्यवस्था से ऊपर उठा जा सकता है। लोकोत्तर प्रयोजन की ओर से प्राकृतिक व्यवस्था में कोई मनमाने हस्तक्षेप का तत्व विद्यमान नहीं है।
गीता का गुरू वास्तविकता के जगत् को पहचानता है, जिसमें कर्म का नियम लागू नहीं होता और यदि हम आपना सम्बन्ध उस जगत् के साथ जोड़ लें, तो हम अपने गम्भीरतम अस्तित्व में स्वतन्त्र हो जाएंगे। कर्म की श्रृंखला को यहीं और अभी, अनुभवजन्य संसार के प्रवाह में रहते हुए तोड़ा जा सकता है। निष्कामता और परमात्मा में श्रद्धा को पुष्ट करके हम कर्म के स्वामी बन जाते हैं। जो ज्ञानी ऋषि परम ब्रह्म में लीन होकर जीवन व्यतीत करता है, उसके लिए यह कहा जाता है कि उसे कुछ करने को शेष नहीं है, तस्य कार्य न विद्यते।[२] सत्य के द्रष्टा की कुछ भी करने या पाने की महत्वाकांक्षा शेष नहीं रहती। जब सब इच्छाएं नष्ट हो जाती हैं, तब कार्य कर पाना सम्भव नहीं है। उत्तरगीता में इस आपत्ति (ऐतराज़) को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया हैः “जो योगी ज्ञान का अमृत पीकर सिद्ध हो गया है, उसके लिए कोई कत्र्तव्य शेष नहीं रहता; यदि कत्र्तव्य शेष रहता है, तो वह सत्य का वास्तविक ज्ञानी नहीं है।”[३]
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