"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 338": अवतरणों में अंतर

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==अष्टत्रिंशदधिकत्रिशततम (327) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)==
==अष्टत्रिंशदधिकत्रिशततम (338) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)==
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अष्टत्रिंशदधिकत्रिशततम (338) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व:अष्टत्रिंशदधिकत्रिशततम अध्‍याय: का हिन्दी अनुवाद

नारदजी का दो सौ नामों द्वारा भगवान् की स्तुति करना

भीष्मजी कहते हैं - युधिष्ठिर ! उस महान् श्वेतद्वीप में पहुँचकर भगवान् देवर्षि नारद ने जब वहाँ के उन चन्द्रमा के समान कान्तिमान् पुरुषों को देखा, तब मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और मन-ही-मन उनकी पूजा की। तत्पश्चात् श्वेतद्वीप निवासी पुरुषों ने भी नारदजी का सत्कार किया। फिर वे भगवान् के दर्शन की इच्छा से उनके नाम का जप करने लगे एवं कठोर नियमों का पालन करते हुए वहाँ रहने लगे| नारदजी वहाँ अपनी बाँहें ऊपर उठाकर एकाग्रचित्त हो निर्गुण-सगुणरूप विश्वात्मा भगवान् नारायण की इस प्रकार (दो सौ नामों द्वारा) स्तुति करने लगे।

नारदजी स्तुति करने लगे - 1. देवदेवेश ! आपको नमस्कार है। 2. आप निष्क्रिय, 3. निर्गुण और 4. समस्त जगत के साक्षी हैं। 5. क्षेत्रज्ञ 6. पुरुषोत्तम (क्षर-अक्षर पुरुष से उत्तम) 7. अनन्त 8. पुरुष 9. महापुरुष 10. पुरुषोत्तम (परमातमा) 11. त्रिगुण 12. प्रधान 13. अमृत 14. अमृताख्य 15. अनन्ताख्य (शेषनागरूप) 16. व्योग (महाकाशरूप) 17. सनातन 18. सदसद्व्यक्ताव्यक्त 19. ऋतधामा (सत्यधामस्वरूप) 20. आदिदेव 21. वसुप्रद (कर्म फल के दाता) 22. प्रजापते (दक्ष आदि) 23. सुप्रजापते (प्रजापतियों में श्रेष्ठ) 24. वनसप्ते 25. महाप्रजापते (ब्रह्मस्वरूप) 26. ऊर्जस्पते (महाशक्तिशाली) 27. वाचस्पते (बृहस्पति) 28. जगत्पते 29़. मनस्पते 30. दिवस्पते (सूर्य) 31. मरुत्पते (वायुदेवता के स्वामी) 32. सलिलपते (जल के स्वामी) 33. पृथिवीपते 34. दिक्पते 35. पूर्वनिवास (महाप्रलय के समय जगत् के आधार रूप) 36. गुह्य (स्वरूप) 37. ब्रह्मपुरोहित 38. ब्रह्मकायिक 39. महाराजिक 40. चातुर्महाराजिक 41. भासुर (प्रकाशमान) 42. महाभासुर (महाप्रकाशमान) 43. सप्तमाभाग 44. याम्य 45. महायाम्य 46. संज्ञासंज्ञ 47. तुषित 48. महातुषित 49. प्रमर्दन (मृत्युरूप) 50. परिनिर्मित 51. अपरिनिर्मित 52. वशवर्तिन 53. अपरिनिन्दित (यामदम आदि गुणसम्पन्न) 54. अपरिमित (अनन्त) 55. वशवर्तिन् 56. अवशवर्तिन् 57. यज्ञ 58. महायज्ञ 59. यज्ञसम्भव 60. यज्ञयोनि (वेदस्वरूप) 61. यज्ञगर्भ 62. यज्ञहृदय 63. यज्ञस्तुति 64. यज्ञभागहर 65. पन्चयज्ञ 66. पन्चकालकर्तृपते (अहोरात्र, मास, ऋतु, अयन और संवत्सररूप काल के स्वामि) 67. पान्चरात्रिक 68. वैकुण्ठ (परमधाम) 69. अपराजित 70. मानसिक 71. नामनामिक (जिनमें सब नामों का समावेश है) 72. परस्वामी (परमेश्वर) 73. सुस्नात 74. हंस 75. परमहंस 76. महाहंस 77. परमयाज्ञिक 78. सांख्ययोग 79. सांख्यमूर्ति (ज्ञानमूर्ति) 80 अमृतेशय (विष्णु) 81. हिरध्येशय 82. देवेशय 83. कुशेशय 84. ब्रह्मेशय 85. पद्मेशय (विष्णु) 86. विश्वेश्वर 87. विष्वक्सेन आदि आप ही के नाम हैं। 88. आप ही जगदन्वय (जगत् में ओत-प्रोत) 89. आप ही जगत् के कारण स्वरूप हैं। 90. अग्नि आपका मुख है। 91. आप ही बड़वानल, 92. आप ही आहुति रूप, 93. सारथि, 94. वषट्कार, 95. ओंकार, 96. तपःस्वरूप, 97. मनःस्वरूप, 98. चन्द्रमास्वरूप, 99. चक्षु के देवता सूर्य आप ही हैं। 100. सूर्य 101. दिग्गज 102. दिग्भानु (दिशाओं को प्रकाशित करने वाले) 103. विदिग्भानु (विदिशाओं को प्रकाशित करने वाले) 104. हयग्रीवरूप हैं। 105. आप प्रथम त्रिसौपर्ण मन्त्र, 106. ब्राह्मणादि वर्णों को धारण करने वाले, 107. पन्चाग्निरूप हैं। 108. नचिकेत नाम से प्रसिद्ध त्रिविध अग्नि भी आप ही हैं। 109. आप शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त और ज्योतिष नामक छः अंगों के भण्डार हैं। 110. प्राग्ज्योतिषस्वरूप, 111. ज्येष्ठ सामगस्वरूप आप ही हैं। 112. सामिक व्रतधारी 113. अथर्वशिरा 114. पन्चमहाकल्परूप (आप ही सौर, शाक्त, गाणपत्य, शैव और वैष्णव शास्त्रों के उपास्यदेव) हैं। 115. फेनपाचार्य 116. वालखिल्य मुनिरूप 117. वैखानस मुनि का रूप आप ही हैं। 118. अभग्न्योग (अखण्डयोग), 119. अभग्नपरिसंख्यान (अखण्ड विचार), 120. युगादि (युग के आदिरूप), 121. युगमध्य (युग के मध्य रूप), 122. युगान्त (युग के अन्त रूप आप ही हैं।), 123. आखण्डल (इन्द्र), 124. आप ही प्राचीनगर्भ, 125. कौशिक मुनि, 126. पुरुष्टुत (सबके द्वारा प्रचुर स्तुति करने योग्य), 127. पुरुहूत, 128. विश्वकृत (विश्व के रचयिता), 129. विश्वरूप, 130. अनन्तगति, 131. अनन्तभोग, 132. आपका न तो अन्त है, 133. न आदि, 134. न मध्य, 135. अव्यक्तमध्य, 136. अव्यक्तनिधन, 137. व्रतावास (व्रत के आश्रम), 138. समुद्रवासी (क्षीरसागरशायी), 139. यशोवास (यश के निवास स्थान), 140. तपोवास (तप के निवास स्थान), 141. दमावास (संयम के आधार), 142. लक्ष्मी निवास, 143. विद्या के आश्रय, 144. कीर्ती के आधार, 145. सम्पत्ति के आश्रय, 146. सर्वावास (सबके निवास स्थान), 147. वासुदेव 148. सर्वच्छन्दक (सबकी इच्छा पूर्ण करने वाले), 149. हरिहय 150. हरिमेध (अश्वमेधयज्ञरूप), 151. महायज्ञभागहर, 152. वरप्रद (भक्तो को वरदान देने वाले), 153. सुखप्रद (सबको सुख प्रदान करने वाले), 154. धनप्रद (सबको धन देने वाले), 155. हरिमेध (भगवद्भक्त भी आप ही हैं), 156. यम, 157. नियम, 158. महानियम आदि साधन आप ही हैं। 159. कृच्छ्, 160. अतिकृच्छ्, 161. महाकृच्छ्, 162. सर्वकृच्छ् आदि चान्द्रायणव्रत आप ही हैं। 163. नियमधर (नियमों को धारण करने वाले), 164. निवृत्तभ्रम (भ्रम रहित), 165. प्रवचनगत (वेदवाक्य के विषय), 166. पृश्निगर्भप्रवृत्त, 167. प्रवृत्तवेदक्रिय (वैदिक कर्मों के प्रवर्तक), 168. अज (जन्म रहित), 169 सर्वगति (सर्वव्यापी), 170. सर्वदर्शी, 171. अग्राह्य, 172. अचल, 173. महाविभूति (सृष्टिरूप विभूति वाले), 174. महात्म्यशरीर (अतुलित प्रभावशाली स्वरूप वाले), 175. पवित्र, 176. महापवित्र (पवित्रों को भी पवित्र करने वाले), 177. हिरण्यमय, 178. बृहद् (ब्रह्म), 179. अप्रतक्र्य (तर्क से जानने में न आने वाले), 180. अविज्ञेय, 181. ब्रह्माग्र्य, 182. प्रजा की सृष्टि करने वाले, 183. प्रजा का अन्त करने वाले, 184. महामायाधर, 185. चित्रशिखण्डी, 186. वरप्रद, 187. पुरोडाश भाग को ग्रहण करने वाले, 188. गताध्वर (प्राप्तयज्ञ), 189. छिन्नतृष्ण (तृष्णारहित), 190. छिन्नसंशय (संशय रहित), 191. सर्वतोवृत्त (सर्वव्यापक), 192. निवृत्तिरूप, 193. ब्राह्मणरूप, 194. ब्राह्मणाप्रिय, 195. विश्वमूिर्त, 196. महामूर्ति, 197. बान्धव (जगत् के बन्धु), 198. भक्तवत्सल तथा 199. ब्रह्मण्यदेव आदि नामों से पुकारे जाने वाले परमेश्वर ! आपका नमस्कार है। मैं आपका भक्त हूँ। आपके दर्शन की इच्छा से यहाँ उपस्थित हुआ हूँ। 200. एकान्त में दर्शन देने वाले आप परमात्मा को बारंबार नमस्कार है।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में तीन सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ|



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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