"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 83" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">अध्याय-2<br /> सांख्य-सिद्धान्...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
पंक्ति १: पंक्ति १:
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">अध्याय-2<br />
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">अध्याय-2<br />
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास
+
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन</div>
कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन</div>
 
  
कश्मीर के संस्करण में यह मिलता है: ’’तू बुद्धिमान व्यक्ति की तरह बात नहीं कर रहा’’: ’’प्राज्ञवन्नाभिभाषसे’’ ।<ref>तुलना कीजिए, प्लोटिनसः ’’ हत्याएं, अपने सब स्वरूपों में मृत्यु, शहरों पर कब्जा करना और उन्हें नष्ट कर देना- यह सब रंगमंच पर होने वाला प्रदर्शन ही समझा जाना चाहिए। इतने सारे दृश्यों का परिवर्तन, एक नाटक का आतंक और चीत्कार, क्योंकि यहाँ भी जीवन के परिवर्तित होते हुए भाग्य में शोक और विषाद करने वाला वास्तविक मनुष्य, उसकी आन्तरिक आत्मा नहीं है, अपितु केवल मनुष्य की छाया है, बाहरी मनुष्य जो संसार के रंगमंच पर अपना अभिनय कर रहा है। ऐनीड्स 3,2,15। अंग्रेजी अनुवाद। </ref>
 
यहाँ गुरु 11 से लेकर 38 तक के श्लाकों में संक्षेप में सांख्यदर्शन के ज्ञान की व्याख्या करता है। यह सांख्य कपिल का सांख्यदर्शन नहीं है, अपितु अपनिषदों का सांख्यदर्शन है।
 
 
<poem style="text-align:center">                       
 
<poem style="text-align:center">                       
 
12.न त्वेवाहं जातु नासं त्वं नेमे जनाधिपाः ।
 
12.न त्वेवाहं जातु नासं त्वं नेमे जनाधिपाः ।
 
न चैव न भविश्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।
 
न चैव न भविश्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।
  
ऐसा कोई समय नहीं था, जब मैं नहीं था या तू नहीं था या ये सब राजा नहीं थे और न कभी कोई ऐसा समय आएगा, जब कि इसके बाद नहीं रहेंगे।
+
ऐसा कोई समय नहीं था, जब मैं नहीं था या तू नहीं था या ये सब राजा नहीं थे और न कभी कोई ऐसा समय आएगा, जब कि इसके बाद नहीं रहेंगे। शंकराचार्य इस अनेकता के उल्लेख को केवल रूढ़ मानते हैं उनकी युक्ति है कि बहुवचन का प्रयोग केवल शरीरों के लिए किया गया है, जो कि अलग-अलग हैं, एक विश्वजनीन आत्मा के लिए नहीं ।<ref>देहभेदानुवृत्या बहुवचनम्, नात्मभेदाभिप्रायेण।</ref> श्रामानुज कृष्ण, अर्जुन और राजाओं में किए गये भेद पर जोर देता है और उसे अन्तिम मानता है उसका विचार है कि प्रत्येक व्यक्तिगत आत्मा अनश्वर है और समस्त विश्व के साथ समयुगीन है। यहां पर परम आत्मा की शाश्वता की ओर संकेत नहीं है, अपितु अनुभवजन्य अहम् की पूर्वसत्ता और उत्तरसत्ता की ओर संकेत है। अहम् की अनेकता अनुभवसिद्ध विश्व का एकत्व है। प्रत्येक व्यक्ति प्रारम्भिक अनस्तित्व से वास्तविक के रूप में पूर्ण अस्तित्व की ओर, असत् से सत् की ओर आरोहण कर रहा है। जहाँ सांख्य-प्रणाली में आत्माओं की अनेकता स्थापित की गई है, वहाँ गीता इस अनेकता का मेल एकता से बिठा देती है। क्षेत्रज्ञ एक है, जिसमें हमजीते हैं, चलते-फिरते हैं और जिसमें हमारा अस्तित्व है।<br />
 +
ब्रह्म सब वस्तुओं का आधार है और वह अपने-आप में कोई वस्तु नहीं है। ब्रह्म काल में नहीं रहता, अपितु काल ब्रह्म में रहता है। इस अर्थ में भी जीवों का न कोई आदि है, न अन्त। आत्माएं ब्रह्म की भांति हैं, क्यों कि कारण और कार्य मूलतः एक हैं, जैसा कि -- मैं ब्रह्म हूं’’, ’’वह तू है’’ इत्यादि उक्तियों से सूचित होता है। सूसो से तुलना कीजिएः ’’सब प्राणी दिव्य मूल तत्व में अपने आदर्श की भाँति शाश्वत काल से विद्यमान चले आ रहे हैं। सब वस्तुएं, जहां तक वे अपने दिव्य आदर्श के अनुकूल-अनुरूप हैं, उनकी सृष्टि होने से पहले भी परमात्मा के साथ एकरूपता में विद्यमान थीं।’’
 
</poem>
 
</poem>
शंकराचार्य इस अनेकता के उल्लेख को केवल रूढ़ मानते हैं उनकी युक्ति है कि बहुवचन का प्रयोग केवल शरीरों के लिए किया गया है, जो कि अलग-अलग हैं, एक विश्वजनीन आत्मा के लिए नहीं ।<ref>देहभेदानुवृत्या बहुवचनम्, नात्मभेदाभिप्रायेण।</ref>
 
श्रामानुज कृष्ण, अर्जुन और राजाओं में किए गये भेद पर जोर देता है और उसे अन्तिम मानता है उसका विचार है कि प्रत्येक व्यक्तिगत आत्मा अनश्वर है और समस्त विश्व के साथ समयुगीन है।
 
यहां पर परम आत्मा की शाश्वता की ओर संकेत नहीं है, अपितु अनुभवजन्य अहम् की पूर्वसत्ता और उत्तरसत्ता की ओर संकेत है। अहम् की अनेकता अनुभवसिद्ध विश्व का एकत्व है। प्रत्येक व्यक्ति प्रारम्भिक अनस्तित्व से वास्तविक के रूप में पूर्ण अस्तित्व की ओर, असत् से सत् की ओर आरोहण कर रहा है। जहाँ सांख्य-प्रणाली में आत्माओं की अनेकता स्थापित की गई है, वहाँ गीता इस अनेकता का मेल एकता से बिठा देती है। क्षेत्रज्ञ एक है, जिसमें हमजीते हैं, चलते-फिरते हैं और जिसमें हमारा अस्तित्व है।<br />
 
ब्रह्म सब वस्तुओं का आधार है और वह अपने-आप में कोई वस्तु नहीं है। ब्रह्म काल में नहीं रहता, अपितु काल ब्रह्म में रहता है। इस अर्थ में भी जीवों का न कोई आदि है, न अन्त। आत्माएं ब्रह्म की भांति हैं, क्यों कि कारण और कार्य मूलतः एक हैं, जैसा कि -- मैं ब्रह्म हूं’’, ’’वह तू है’’ इत्यादि उक्तियों से सूचित होता है। सूसो से तुलना कीजिएः ’’सब प्राणी दिव्य मूल तत्व में अपने आदर्श की भाँति शाश्वत काल से विद्यमान चले आ रहे हैं। सब वस्तुएं, जहां तक वे अपने दिव्य आदर्श के अनुकूल-अनुरूप हैं, उनकी सृष्टि होने से पहले भी परमात्मा के साथ एकरूपता में विद्यमान थीं।’’
 
  
 
{{लेख क्रम |पिछला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-82|अगला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-84}}
 
{{लेख क्रम |पिछला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-82|अगला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-84}}

०६:२६, २२ अगस्त २०१५ का अवतरण

अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

                      
12.न त्वेवाहं जातु नासं त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविश्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।

ऐसा कोई समय नहीं था, जब मैं नहीं था या तू नहीं था या ये सब राजा नहीं थे और न कभी कोई ऐसा समय आएगा, जब कि इसके बाद नहीं रहेंगे। शंकराचार्य इस अनेकता के उल्लेख को केवल रूढ़ मानते हैं उनकी युक्ति है कि बहुवचन का प्रयोग केवल शरीरों के लिए किया गया है, जो कि अलग-अलग हैं, एक विश्वजनीन आत्मा के लिए नहीं ।[१] श्रामानुज कृष्ण, अर्जुन और राजाओं में किए गये भेद पर जोर देता है और उसे अन्तिम मानता है उसका विचार है कि प्रत्येक व्यक्तिगत आत्मा अनश्वर है और समस्त विश्व के साथ समयुगीन है। यहां पर परम आत्मा की शाश्वता की ओर संकेत नहीं है, अपितु अनुभवजन्य अहम् की पूर्वसत्ता और उत्तरसत्ता की ओर संकेत है। अहम् की अनेकता अनुभवसिद्ध विश्व का एकत्व है। प्रत्येक व्यक्ति प्रारम्भिक अनस्तित्व से वास्तविक के रूप में पूर्ण अस्तित्व की ओर, असत् से सत् की ओर आरोहण कर रहा है। जहाँ सांख्य-प्रणाली में आत्माओं की अनेकता स्थापित की गई है, वहाँ गीता इस अनेकता का मेल एकता से बिठा देती है। क्षेत्रज्ञ एक है, जिसमें हमजीते हैं, चलते-फिरते हैं और जिसमें हमारा अस्तित्व है।

ब्रह्म सब वस्तुओं का आधार है और वह अपने-आप में कोई वस्तु नहीं है। ब्रह्म काल में नहीं रहता, अपितु काल ब्रह्म में रहता है। इस अर्थ में भी जीवों का न कोई आदि है, न अन्त। आत्माएं ब्रह्म की भांति हैं, क्यों कि कारण और कार्य मूलतः एक हैं, जैसा कि -- मैं ब्रह्म हूं’’, ’’वह तू है’’ इत्यादि उक्तियों से सूचित होता है। सूसो से तुलना कीजिएः ’’सब प्राणी दिव्य मूल तत्व में अपने आदर्श की भाँति शाश्वत काल से विद्यमान चले आ रहे हैं। सब वस्तुएं, जहां तक वे अपने दिव्य आदर्श के अनुकूल-अनुरूप हैं, उनकी सृष्टि होने से पहले भी परमात्मा के साथ एकरूपता में विद्यमान थीं।’’


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. देहभेदानुवृत्या बहुवचनम्, नात्मभेदाभिप्रायेण।

संबंधित लेख

साँचा:भगवद्गीता -राधाकृष्णन