"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 87": अवतरणों में अंतर
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सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन</div> | सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन</div> | ||
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21.वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् । | 21.वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् । | ||
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ।। | कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ।। | ||
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इसे छेदा नहीं जा सकता; इसे जलाया नहीं जा सकता; न इसे गीला किया जा सकता है और न इसे सुखाया जा सकता है। वह नित्य है, सबके अन्दर व्याप्त है, अपरिवर्तनशील है और अचल है। यह सदा एक-सा रहता है। | इसे छेदा नहीं जा सकता; इसे जलाया नहीं जा सकता; न इसे गीला किया जा सकता है और न इसे सुखाया जा सकता है। वह नित्य है, सबके अन्दर व्याप्त है, अपरिवर्तनशील है और अचल है। यह सदा एक-सा रहता है। | ||
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०६:३८, २२ अगस्त २०१५ का अवतरण
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन
21.वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ।।
जो यह जानता है कि यह अविनाश्य और शाश्वत है, यह अजन्मा और अपरिवर्तनशील है, हे पार्थ (अर्जुन), इस प्रकार का मुनष्य कैसे किसी को मार सकता है या किसी को मरवा सकता है? जब हमें मालूम है कि आत्मा अजेय है, तब कोई इसे कैसे मार सकता है!
22.वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृहणाति नरोअपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
जैसे कोई व्यक्ति फटे-पुरोने कपड़ों को उतार देता है और दूसरे नये कपड़े पहन लेता है, उसी प्रकार यह धारणा करने वाली आत्मा जीर्ण-शीर्ण शरीरों को त्याग कर अन्य नये शरीरों को धारण कर लेती है। शाश्वत आत्मा एक स्थान से दूसरे स्थान तक नहीं चलती-फिरती, परन्तु शरीर धारिणी आत्मा एक स्थान से दूसरे स्थान तक आती-जाती है। यह हर बार जन्म लेती है और यह प्रकृति की सामग्री में से अपने अतीत के विकास और भविष्य की आवश्यकओं के अनुसार एक मन, जीवन और शरीर को अपने आसपास समेट लेती है। आत्मिक अस्तित्व विज्ञान है, जो शरीर (अन्न), जीवन (प्राण),और मन (मनस्) के त्रिविध रूपों को संभाले रखता है। जब सारा भौतिक शरीर नष्ट हो जाता है, तब भी आत्मा के वाहन के रूप में प्राण और मन के कोष बचे रहते हैं। पुनर्जन्म प्रकृति का नियम है। जीवन के विविध रूपों के मध्य एक सोद्देष्य सम्बन्ध है। कठोपनिपद् से तुलना कीजिए, 1,61 ’’अन्न की तरह मनुष्य पकता है और अन्न की तरह वह फिर जन्म लेता है।’’ आत्मा के लिए शरीर अनिवार्य जान पड़ता है। तब क्या शरीर को मारना उचित है? सुनिर्दिप्ट सत्ता के संसार का भी एक विशेष अर्थ है।
23.नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शयति मारूतः।।
शस्त्र इस आत्मा को छेद नहीं पाते और न अग्नि इसे जला पाती है। पानी इसे गीला नहीं करता और न वायु ही इसे सुखाती है।
साथ ही देखिए,मोक्षधर्म, 174,14।
24.अच्छेद्योअयमदाह्योअयमक्लेद्योअअशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोअयं सनातनः।।
इसे छेदा नहीं जा सकता; इसे जलाया नहीं जा सकता; न इसे गीला किया जा सकता है और न इसे सुखाया जा सकता है। वह नित्य है, सबके अन्दर व्याप्त है, अपरिवर्तनशील है और अचल है। यह सदा एक-सा रहता है।
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