"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 152": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">15.अवतार की संभावना और हेतु</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">15.अवतार की संभावना और हेतु</div> | ||
कहा जा सकता है कि मानव - प्राणी के रूप में भगवान् के प्राकटय की संभावना को दृष्टंतरूप से सामने रखने के लिये अवतार होता है कि ताकि मनुष्य देखे कि यह क्या चीज है और उसमें इस बात का साहस हो कि वह अपने जीवन को उसके जैसा बना सके। और यह इसलिये भी होता है पार्थिव प्रकृति की नसों में इस प्राकटय का प्रभाव बहता रहे और उस प्राकटय की आत्मा पार्थिव प्रकृति के ऊध्र्वगामी प्रयास का नेतृत्व करती रहे। यह जन्म मनुष्य को दिव्य मानवता का एक ऐसा आध्यात्मिक सांचा देने के लिये होता है जिसमें मनुष्य की जिज्ञासुं अंतरात्मा अपने - आपकों ढाल सके। यह जन्म एक धर्म देने के लिये - कोई संप्रदाय या मतविशेषमात्र नहीं, बल्कि आंतर और बाह्म जीवनयापन की प्रणाली - आत्म - संस्कारक मार्ग , नियम और विधन देने के लिये होता है जिसके द्वारा मनुष्य दिव्यता की और बढ़ सके। चूंकि मनुष्य का इस प्रकार आगे बढ़ना, इस प्रकार आरोहण करना मात्र पृथक और वैयक्तिक व्यापार नहीं है, बल्कि भवावान् के समस्त जगत् - कर्म की तरह एक सामूहिक व्यापार है, मानवमात्र के लिये किया गया कर्म है इसलिये अवतार का आना मानव - यात्रा की सहायता के लिये , महान् संकट - काल के समय मानवजाति को एक साथ रखने के लिये, अधोगामी शक्तियां जब बहुत अधिक बढ़ जाए तो उन्हें चूर्ण - विचूर्ण करने के लिये, मनुष्य के अंदर जो भगवन्मुखी महान् धर्म है उसकी स्थापना या रक्षा के लिये भगवान् के साम्राज्य की (फिर चाहे वह कितना ही दूर क्यों न हो) प्रतिष्ठा के लिये, प्रकाश और पूर्णता के साधकों , को विजय दिलाने के लिये और जो अशुभ और अंधकार को बनाये रखने के लिये युद्ध करते हैं उनके विनाश के लिये होता है । | सामान्य मानवजन्म में मानवरूप धारण करने वाले जगदात्मा जगदीश्वर का प्रकृति भाव ही मुख्य होता है; अवतार के मनुष्य - जन्म में उनका ईश्वर भाव प्रकट होता है। एक में ईश्वर मानव- प्रकृति को अपनी आंशिक सत्ता पर अधिकार और शासन करने देते हैं और दूसरे में वे अपनी अंशसत्ता और उसकी प्रकृति को अपने अधिकार मे लेकर उस पर शासन करते हैं। गीता हमे बतलाती है कि साधारण मनुष्य जिस प्रकार विकास को प्राप्त होता हुआ या ऊपर उठता हुआ भागवत जन्म को प्राप्त होता है उसका नाम अवतार नहीं है, बल्कि भगवान् जब मानवता के अंदर प्रत्यक्ष रूप में उतर आते हैं और मनुष्य के ढांचे को पहन लेते हैं , तब वह अवतार कहलाते हैं। परंतु अवतार लेने के लिये यह स्वीकृति या यह अवतरण मनुष्य के आरोहणा या विकास को सहायता पहुंचाने के लिये ही होता है , इस बात को गीता ने बहुत स्पष्ट करके कहा है। | ||
कहा जा सकता है कि मानव - प्राणी के रूप में भगवान् के प्राकटय की संभावना को दृष्टंतरूप से सामने रखने के लिये अवतार होता है कि ताकि मनुष्य देखे कि यह क्या चीज है और उसमें इस बात का साहस हो कि वह अपने जीवन को उसके जैसा बना सके। और यह इसलिये भी होता है पार्थिव प्रकृति की नसों में इस प्राकटय का प्रभाव बहता रहे और उस प्राकटय की आत्मा पार्थिव प्रकृति के ऊध्र्वगामी प्रयास का नेतृत्व करती रहे। यह जन्म मनुष्य को दिव्य मानवता का एक ऐसा आध्यात्मिक सांचा देने के लिये होता है जिसमें मनुष्य की जिज्ञासुं अंतरात्मा अपने - आपकों ढाल सके। यह जन्म एक धर्म देने के लिये - कोई संप्रदाय या मतविशेषमात्र नहीं, बल्कि आंतर और बाह्म जीवनयापन की प्रणाली - आत्म - संस्कारक मार्ग , नियम और विधन देने के लिये होता है जिसके द्वारा मनुष्य दिव्यता की और बढ़ सके। चूंकि मनुष्य का इस प्रकार आगे बढ़ना, इस प्रकार आरोहण करना मात्र पृथक और वैयक्तिक व्यापार नहीं है, बल्कि भवावान् के समस्त जगत् - कर्म की तरह एक सामूहिक व्यापार है, मानवमात्र के लिये किया गया कर्म है इसलिये अवतार का आना मानव - यात्रा की सहायता के लिये , महान् संकट - काल के समय मानवजाति को एक साथ रखने के लिये, अधोगामी शक्तियां जब बहुत अधिक बढ़ जाए तो उन्हें चूर्ण - विचूर्ण करने के लिये, मनुष्य के अंदर जो भगवन्मुखी महान् धर्म है उसकी स्थापना या रक्षा के लिये भगवान् के साम्राज्य की (फिर चाहे वह कितना ही दूर क्यों न हो) प्रतिष्ठा के लिये, प्रकाश और पूर्णता के साधकों , को विजय दिलाने के लिये और जो अशुभ और अंधकार को बनाये रखने के लिये युद्ध करते हैं उनके विनाश के लिये होता है । | |||
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१२:०२, १९ सितम्बर २०१५ का अवतरण
सामान्य मानवजन्म में मानवरूप धारण करने वाले जगदात्मा जगदीश्वर का प्रकृति भाव ही मुख्य होता है; अवतार के मनुष्य - जन्म में उनका ईश्वर भाव प्रकट होता है। एक में ईश्वर मानव- प्रकृति को अपनी आंशिक सत्ता पर अधिकार और शासन करने देते हैं और दूसरे में वे अपनी अंशसत्ता और उसकी प्रकृति को अपने अधिकार मे लेकर उस पर शासन करते हैं। गीता हमे बतलाती है कि साधारण मनुष्य जिस प्रकार विकास को प्राप्त होता हुआ या ऊपर उठता हुआ भागवत जन्म को प्राप्त होता है उसका नाम अवतार नहीं है, बल्कि भगवान् जब मानवता के अंदर प्रत्यक्ष रूप में उतर आते हैं और मनुष्य के ढांचे को पहन लेते हैं , तब वह अवतार कहलाते हैं। परंतु अवतार लेने के लिये यह स्वीकृति या यह अवतरण मनुष्य के आरोहणा या विकास को सहायता पहुंचाने के लिये ही होता है , इस बात को गीता ने बहुत स्पष्ट करके कहा है। कहा जा सकता है कि मानव - प्राणी के रूप में भगवान् के प्राकटय की संभावना को दृष्टंतरूप से सामने रखने के लिये अवतार होता है कि ताकि मनुष्य देखे कि यह क्या चीज है और उसमें इस बात का साहस हो कि वह अपने जीवन को उसके जैसा बना सके। और यह इसलिये भी होता है पार्थिव प्रकृति की नसों में इस प्राकटय का प्रभाव बहता रहे और उस प्राकटय की आत्मा पार्थिव प्रकृति के ऊध्र्वगामी प्रयास का नेतृत्व करती रहे। यह जन्म मनुष्य को दिव्य मानवता का एक ऐसा आध्यात्मिक सांचा देने के लिये होता है जिसमें मनुष्य की जिज्ञासुं अंतरात्मा अपने - आपकों ढाल सके। यह जन्म एक धर्म देने के लिये - कोई संप्रदाय या मतविशेषमात्र नहीं, बल्कि आंतर और बाह्म जीवनयापन की प्रणाली - आत्म - संस्कारक मार्ग , नियम और विधन देने के लिये होता है जिसके द्वारा मनुष्य दिव्यता की और बढ़ सके। चूंकि मनुष्य का इस प्रकार आगे बढ़ना, इस प्रकार आरोहण करना मात्र पृथक और वैयक्तिक व्यापार नहीं है, बल्कि भवावान् के समस्त जगत् - कर्म की तरह एक सामूहिक व्यापार है, मानवमात्र के लिये किया गया कर्म है इसलिये अवतार का आना मानव - यात्रा की सहायता के लिये , महान् संकट - काल के समय मानवजाति को एक साथ रखने के लिये, अधोगामी शक्तियां जब बहुत अधिक बढ़ जाए तो उन्हें चूर्ण - विचूर्ण करने के लिये, मनुष्य के अंदर जो भगवन्मुखी महान् धर्म है उसकी स्थापना या रक्षा के लिये भगवान् के साम्राज्य की (फिर चाहे वह कितना ही दूर क्यों न हो) प्रतिष्ठा के लिये, प्रकाश और पूर्णता के साधकों , को विजय दिलाने के लिये और जो अशुभ और अंधकार को बनाये रखने के लिये युद्ध करते हैं उनके विनाश के लिये होता है ।
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