"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 156": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">16.भगवान् की अवतरण - प्रणाली</div>
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परंतु यह भी संभव है कि परम पुरूष पुरूषोत्म का उच्चतर भागवत चैतन्य मनुष्य के अंदर उतर आये और जीव- चैतन्य का उसमें लय हो जाये। श्री चैतन्य के समकालीन लोग बतला गये है कि वे अपनी साधारण चेतनाओं में भगवान के केवल एक प्रेमी और भक्त थे और देवत्वारोपण को अस्वीकार करते थे । किंतु कभी - कभी वे बौद्ध आख्यायिका में गौतम बुद्ध की माता का नाम इस सांकेतिक भाषा को खोल देता है ; ईसाइयों के यहां यह संबंध सुपरिचित पौराणिक कथाओं की रचना - प्रणाली के अनुसार नजरेथ के ईसा की मानुषी माता के साथ जोड़ दिया गया है।एक ऐसे विलक्षण भाव में आ जाते थे कि उस अवस्था में वे स्वयं भगवान् हो जाते तथा भगवद्भाव से ही भाषण और कर्माचरण करते थे ; और ऐसे समय उनसे भगवतसत्ता के प्रकाश , प्रेम और शक्ति का अबोध प्रवाह उमड़ पड़ता था। इसीको यदि जीवन की सामान्य अवस्था मान लें , अर्थात् मनुष्य सदा इस भागवत सत्ता और भागवत चैतन्य का केवल एक पात्र ही बना रहे तो एकसा पुरूष अवतार - संबंधी मध्यवर्ती भावना के अनुसार अवतार होगा? मानव- धारणा के अनुसार अवतार - संबंधी मध्यवर्ती भावना ठीक ही जंचती है; क्योंकि यदि मानवप्राणी अपनी प्रकृति को इतना उन्नत कर ले कि उसे भागवत सत्ता के साथ एकत्व अनुभव हो और वह भगवान के चैतन्य , प्रकाश, शक्ति और प्रेम का एक वाहक - सा बन जाये, उसका अपना संकल्प और व्यक्तित्व भगवान के संकल्प और उनकी सत्ता में घुल - मिलकर अपना पृथकत्व खो दे - क्योंकि यह भी एक मानी हुई आध्यात्मिक अवस्था है - तो मनव - जीव के अंदर , उसके संपूर्ण व्यक्त्त्वि को अधिकृत करके , भगवान् का ही संकल्प , भगवान की ही सत्ता और शक्ति, उन्हीं के प्रेम प्रकाश और चैतन्य प्रतिबिंबित हो सकते हैं, और यह जरा भी असंभव नहीं है। और, इस प्रकार की अवस्था मनुष्य का केवल आरोहण द्वारा दिव्य जन्म और दिव्य स्वभाव को प्राप्त होना ही नहीं है , बल्कि उसमें दिव्य पुरूष का मानव में अवतरण भी है , यह एक अवतार है। परंतु गीता इसके भी आगे चलती है। वह साफ - साफ कहती है कि भगवान् स्वयं जन्म लेते हैं । श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरे बहुत - से जन्म बीत चुके और अपने शब्दों से यह स्पष्ट करे दते हैं कि वे ग्रहणशील मानव - प्राणी में उतर आने की बात नहीं कह रहे हैं, बल्कि भगवान् के ही बहुत - जन्म ग्रहण करने की बात कह रहे हैं क्योंकि यहां वे ठीक सृष्टिकर्ता की भाषा में बोल रहे हैं, और इसी भाषा का प्रयोग वे वहां करेंगे जहां अपनी जगत् - सृष्टि की बात कहेंगे। ‘‘ यद्यपि मैं प्राणियों का अज अविनाशी ईश्वर हूं तो भी मैं अपनी माया से अपने - आपको सृष्ट करता हूं ”१ - अपनी प्रकृति के कार्यो का अधिष्ठान होकर ।  
परंतु यह भी संभव है कि परम पुरूष पुरूषोत्म का उच्चतर भागवत चैतन्य मनुष्य के अंदर उतर आये और जीव- चैतन्य का उसमें लय हो जाये। श्री चैतन्य के समकालीन लोग बतला गये है कि वे अपनी साधारण चेतनाओं में भगवान के केवल एक प्रेमी और भक्त थे और देवत्वारोपण को अस्वीकार करते थे । किंतु कभी - कभी वे बौद्ध आख्यायिका में गौतम बुद्ध की माता का नाम इस सांकेतिक भाषा को खोल देता है ; ईसाइयों के यहां यह संबंध सुपरिचित पौराणिक कथाओं की रचना - प्रणाली के अनुसार नजरेथ के ईसा की मानुषी माता के साथ जोड़ दिया गया है।एक ऐसे विलक्षण भाव में आ जाते थे कि उस अवस्था में वे स्वयं भगवान् हो जाते तथा भगवद्भाव से ही भाषण और कर्माचरण करते थे ; और ऐसे समय उनसे भगवतसत्ता के प्रकाश , प्रेम और शक्ति का अबोध प्रवाह उमड़ पड़ता था। इसीको यदि जीवन की सामान्य अवस्था मान लें , अर्थात् मनुष्य सदा इस भागवत सत्ता और भागवत चैतन्य का केवल एक पात्र ही बना रहे तो एकसा पुरूष अवतार - संबंधी मध्यवर्ती भावना के अनुसार अवतार होगा? मानव- धारणा के अनुसार अवतार - संबंधी मध्यवर्ती भावना ठीक ही जंचती है; क्योंकि यदि मानवप्राणी अपनी प्रकृति को इतना उन्नत कर ले कि उसे भागवत सत्ता के साथ एकत्व अनुभव हो और वह भगवान के चैतन्य , प्रकाश, शक्ति और प्रेम का एक वाहक सा बन जाये, उसका अपना संकल्प और व्यक्तित्व भगवान के संकल्प और उनकी सत्ता में घुल - मिलकर अपना पृथकत्व खो दे - क्योंकि यह भी एक मानी हुई आध्यात्मिक अवस्था है - तो मनव - जीव के अंदर , उसके संपूर्ण व्यक्त्त्वि को अधिकृत करके , भगवान् का ही संकल्प , भगवान की ही सत्ता और शक्ति, उन्हीं के प्रेम प्रकाश और चैतन्य प्रतिबिंबित हो सकते हैं, और यह जरा भी असंभव नहीं है। और, इस प्रकार की अवस्था मनुष्य का केवल आरोहण द्वारा दिव्य जन्म और दिव्य स्वभाव को प्राप्त होना ही नहीं है , बल्कि उसमें दिव्य पुरूष का मानव में अवतरण भी है , यह एक अवतार है। परंतु गीता इसके भी आगे चलती है। वह साफ - साफ कहती है कि भगवान् स्वयं जन्म लेते हैं । श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरे बहुत - से जन्म बीत चुके और अपने शब्दों से यह स्पष्ट करे दते हैं कि वे ग्रहणशील मानव - प्राणी में उतर आने की बात नहीं कह रहे हैं, बल्कि भगवान् के ही बहुत - जन्म ग्रहण करने की बात कह रहे हैं क्योंकि यहां वे ठीक सृष्टिकर्ता की भाषा में बोल रहे हैं, और इसी भाषा का प्रयोग वे वहां करेंगे जहां अपनी जगत् - सृष्टि की बात कहेंगे। ‘‘ यद्यपि मैं प्राणियों का अज अविनाशी ईश्वर हूं तो भी मैं अपनी माया से अपने - आपको सृष्ट करता हूं - अपनी प्रकृति के कार्यो का अधिष्ठान होकर ।  


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०५:१५, २० सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
16.भगवान् की अवतरण - प्रणाली

परंतु यह भी संभव है कि परम पुरूष पुरूषोत्म का उच्चतर भागवत चैतन्य मनुष्य के अंदर उतर आये और जीव- चैतन्य का उसमें लय हो जाये। श्री चैतन्य के समकालीन लोग बतला गये है कि वे अपनी साधारण चेतनाओं में भगवान के केवल एक प्रेमी और भक्त थे और देवत्वारोपण को अस्वीकार करते थे । किंतु कभी - कभी वे बौद्ध आख्यायिका में गौतम बुद्ध की माता का नाम इस सांकेतिक भाषा को खोल देता है ; ईसाइयों के यहां यह संबंध सुपरिचित पौराणिक कथाओं की रचना - प्रणाली के अनुसार नजरेथ के ईसा की मानुषी माता के साथ जोड़ दिया गया है।एक ऐसे विलक्षण भाव में आ जाते थे कि उस अवस्था में वे स्वयं भगवान् हो जाते तथा भगवद्भाव से ही भाषण और कर्माचरण करते थे ; और ऐसे समय उनसे भगवतसत्ता के प्रकाश , प्रेम और शक्ति का अबोध प्रवाह उमड़ पड़ता था। इसीको यदि जीवन की सामान्य अवस्था मान लें , अर्थात् मनुष्य सदा इस भागवत सत्ता और भागवत चैतन्य का केवल एक पात्र ही बना रहे तो एकसा पुरूष अवतार - संबंधी मध्यवर्ती भावना के अनुसार अवतार होगा? मानव- धारणा के अनुसार अवतार - संबंधी मध्यवर्ती भावना ठीक ही जंचती है; क्योंकि यदि मानवप्राणी अपनी प्रकृति को इतना उन्नत कर ले कि उसे भागवत सत्ता के साथ एकत्व अनुभव हो और वह भगवान के चैतन्य , प्रकाश, शक्ति और प्रेम का एक वाहक सा बन जाये, उसका अपना संकल्प और व्यक्तित्व भगवान के संकल्प और उनकी सत्ता में घुल - मिलकर अपना पृथकत्व खो दे - क्योंकि यह भी एक मानी हुई आध्यात्मिक अवस्था है - तो मनव - जीव के अंदर , उसके संपूर्ण व्यक्त्त्वि को अधिकृत करके , भगवान् का ही संकल्प , भगवान की ही सत्ता और शक्ति, उन्हीं के प्रेम प्रकाश और चैतन्य प्रतिबिंबित हो सकते हैं, और यह जरा भी असंभव नहीं है। और, इस प्रकार की अवस्था मनुष्य का केवल आरोहण द्वारा दिव्य जन्म और दिव्य स्वभाव को प्राप्त होना ही नहीं है , बल्कि उसमें दिव्य पुरूष का मानव में अवतरण भी है , यह एक अवतार है। परंतु गीता इसके भी आगे चलती है। वह साफ - साफ कहती है कि भगवान् स्वयं जन्म लेते हैं । श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरे बहुत - से जन्म बीत चुके और अपने शब्दों से यह स्पष्ट करे दते हैं कि वे ग्रहणशील मानव - प्राणी में उतर आने की बात नहीं कह रहे हैं, बल्कि भगवान् के ही बहुत - जन्म ग्रहण करने की बात कह रहे हैं क्योंकि यहां वे ठीक सृष्टिकर्ता की भाषा में बोल रहे हैं, और इसी भाषा का प्रयोग वे वहां करेंगे जहां अपनी जगत् - सृष्टि की बात कहेंगे। ‘‘ यद्यपि मैं प्राणियों का अज अविनाशी ईश्वर हूं तो भी मैं अपनी माया से अपने - आपको सृष्ट करता हूं ” - अपनी प्रकृति के कार्यो का अधिष्ठान होकर ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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