"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 11 श्लोक 13-21": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तर्गत दानधर्मपर्व में लक्ष्‍मी और रूक्मिणी का संवादविषयक ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ।</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तर्गत दानधर्मपर्व में लक्ष्‍मी और रूक्मिणी का संवादविषयक ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ।</div>


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०५:४७, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

एकादश (11) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 13-21 का हिन्दी अनुवाद

जो स्त्रियां सत्‍यवादिनी और अपनी सौम्‍य वेश-भूषा के कारण देखने में प्रिय होती है, जो सौभाग्‍शालिनी, सद्गुणवती, प्रतिव्रता एवं कल्‍याणमय आचार-विचार वाली होती है, तथा जो सदा वस्‍त्रा भूषणों से विभूषित रहती हैं, ऐसी स्त्रियों में मैं सदा निवास करती हूं। सुन्‍दर सवारियों में, कुमारी कन्‍याओं में, आभूषणों में, यज्ञों में, वर्षा करने वाले मेघों में, खिले हुए कमलों में, शरद् ऋतु की नक्षत्र-मालाओं में, हाथियों और गोशालाओं में सुन्‍दर आसनों में तथा खिले हुए उत्‍पल और कमलों से सुशोभित सरोवरों में मैं सदा निवास करती हूं। जहां हंसों की मधुर ध्‍वनि गूंजती रहती है, क्रौंच पक्षी के कलरव जिनकी शोभा बढ़ाते हैं, जो अपने तटों पर फैले हुए वृक्षों की श्रेणियों से शोभायमान हैं, जिनके किनारे तपस्‍वी, सिद्ध और ब्राह्माण निवास करते हैं, जिनमें बहुत जल भरा रहता है तथा सिंह और हाथी जिनके जल में अवगाहन करते रहते हैं, एसी नदियों में भी मैं सदा निवास करती रहती हूं। मतवाले हाथी, सांड, राजा, सिंहासन और सत्‍पुरूषों में मेरा नित्‍य-निवास है। जिस घर में लोग अग्नि में आहुति देते हैं, गौ, ब्राह्माण तथा देवताओं की पूजा करते हैं और समय-समय पर जहां फूलों से देवताओं को उपहार समर्पित किये जाते हैं, उस घर में मैं नित्‍य निवास करती हूं। सदा वेदों के स्‍वाध्‍याय में तत्‍पर रहने वाले ब्राह्माणों, स्‍वधर्मपरायण क्षत्रियों, कृषि-कर्म में लगे हुए वैश्‍यों तथा नित्‍य सेवापरायण शूद्रों के यहां भी मैं सदा निवास करती हूं। मैं मूर्तिमती एवं अनन्‍यचित होकर तो भगवान नारायण में सम्‍पूर्ण भाव से निवास करती हूं, क्‍योंकि उनमें महान् धर्म संनिहित है । उनका ब्राह्माणों के प्रति प्रेम है और उनमें स्‍वयं सर्वप्रिय होने का गुण भी है। देवि ! मैं नारायण के सिवा अन्‍यत्र शरीर से नहीं निवास करती हूं । मैं यहां ऐसा नहीं कह सकती कि सर्वत्र इसी रूप में रहती हूं । जिस पुरूष में भावना द्वारा निवास करती हूं वह धर्म, यश, धन और काम से सम्‍पन्‍न होकर सदा बढ़ता रहता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तर्गत दानधर्मपर्व में लक्ष्‍मी और रूक्मिणी का संवादविषयक ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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