"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 108": अवतरणों में अंतर

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पर जब तक हम अहिंसा के अधीन है तब तक इस सत्य को नहीं जान सकते, न सत्य के इस भाव के साथ कर्म कर सकते हैं, तब तक हमारा सारा कर्म अहंभाव से, अहंकार की तृष्टि के लिये अर्थात् यज्ञ के विपरीत भाव से, ही हुआ करता है। यह अहंकार के बंधन की गांठ हैं । अहंकार को छोड़कर भगवत् - प्रीत्यर्थ कर्म करने से यह गांठ ढीली पड़ जाती है और अतं में हम मुक्त हो जाते हैं। जो हो, आरंभ में गीता ने यज्ञ के वेदोक्त भाव को ही लिया है और उस समय प्रचलित वैदिक परिपाटी के अनुसार ही यज्ञ के विधान का वर्णन किया है। ऐसा करने का एक विशिष्ट हेतु है। हम लोग देख चुके हैं कि संन्यास और कर्म में जो झगड़ा है उसके दो रूप हैं; एक सांख्य और योग का विधि जिसका सिद्धांतत: समन्वय इससे पहले किया जा चुका है और दूसरा वेदवाद और वेदांतवाद का विरोध जिसका गुरु को अभी समन्वय करना है ।इस विरोधविषयक पहले वर्णन में श्रीकृष्ण ने कर्म को सर्वसाधारण और व्यापक अर्थ में ग्रहण किया है। सांख्य इस सिद्धांत को मानकर चलता है कि अक्षर और अकर्ता पुरूष की स्थिति हो परा स्थिति है और वास्तव में प्रत्येक जीव यही है, तथा पुरूष का नैष्कम्र्य और प्रकृति की कमण्यता दोनों परस्पर विरोधी वत्व हैं । अतएवं सांख्य- सिद्धांत का कर्म की समाप्ति में पर्यवसान होना न्यायसंगत ही है । दूसरी ओर, योगमार्ग का निरूपण आरंभ होता है उन भगवान् की धारणा के साथ जो ईश्वर हैं, प्रकृति के कर्मो के स्वामी हैं, इसलिये उनके परे हैं, अतएव योगमार्ग का मुक्तिसंगत पर्यवसान कर्म की समाप्ति में नहीं , बल्कि आत्मा की श्रेष्ठता और समस्त कर्म करते हुए भी उसकी मुक्तावस्था में होता है।  
पर जब तक हम अहिंसा के अधीन है तब तक इस सत्य को नहीं जान सकते, न सत्य के इस भाव के साथ कर्म कर सकते हैं, तब तक हमारा सारा कर्म अहंभाव से, अहंकार की तृष्टि के लिये अर्थात् यज्ञ के विपरीत भाव से, ही हुआ करता है। यह अहंकार के बंधन की गांठ हैं । अहंकार को छोड़कर भगवत् - प्रीत्यर्थ कर्म करने से यह गांठ ढीली पड़ जाती है और अतं में हम मुक्त हो जाते हैं। जो हो, आरंभ में गीता ने यज्ञ के वेदोक्त भाव को ही लिया है और उस समय प्रचलित वैदिक परिपाटी के अनुसार ही यज्ञ के विधान का वर्णन किया है। ऐसा करने का एक विशिष्ट हेतु है। हम लोग देख चुके हैं कि संन्यास और कर्म में जो झगड़ा है उसके दो रूप हैं; एक सांख्य और योग का विधि जिसका सिद्धांतत: समन्वय इससे पहले किया जा चुका है और दूसरा वेदवाद और वेदांतवाद का विरोध जिसका गुरु को अभी समन्वय करना है ।इस विरोधविषयक पहले वर्णन में श्रीकृष्ण ने कर्म को सर्वसाधारण और व्यापक अर्थ में ग्रहण किया है। सांख्य इस सिद्धांत को मानकर चलता है कि अक्षर और अकर्ता पुरूष की स्थिति हो परा स्थिति है और वास्तव में प्रत्येक जीव यही है, तथा पुरूष का नैष्कम्र्य और प्रकृति की कमण्यता दोनों परस्पर विरोधी वत्व हैं । अतएवं सांख्य- सिद्धांत का कर्म की समाप्ति में पर्यवसान होना न्यायसंगत ही है । दूसरी ओर, योगमार्ग का निरूपण आरंभ होता है उन भगवान् की धारणा के साथ जो ईश्वर हैं, प्रकृति के कर्मो के स्वामी हैं, इसलिये उनके परे हैं, अतएव योगमार्ग का मुक्तिसंगत पर्यवसान कर्म की समाप्ति में नहीं , बल्कि आत्मा की श्रेष्ठता और समस्त कर्म करते हुए भी उसकी मुक्तावस्था में होता है।  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०७:२२, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
11.कर्म और यज्ञ

अस्तु, अपने- आपसे बाहर का कोई विधान मानने से ही हम नैव्र्यक्त्कि नहीं हो सकते , कारण इस प्रकार हम अपने - आपसे बाहर नहीं हो सकते । यह काम हम केवल अपने अंदर उच्चतम तत्व को प्राप्त करके ही कर सकते हैं, अर्थात् हमें अपनी नित्यमुक्त अंतराम्ता और जीवात्मा को प्राप्त करना होगा, जो सबके अंदर एक ही है, और इसलिये इसका कोई निजी स्वार्थ नहीं होता है और फिर हमें अपनी सत्ता में जो भगवान् है, उन्हें प्राप्त करना होगा , क्योंकि भगवान् अपनी विश्वातीत महिमा में नित्यप्रतिष्ठ होने के कारण अपने विश्कर्मो और अपने व्यक्तिगत क्रियाओं से बंधे हुए नहीं हैं - जब हम यह कर सकेगें तभी अपने नैव्यक्तिक स्वरूप में प्रतिष्ठित हो सकेगें। यही गीता की शिक्षा है और निष्कामता इस नैव्र्यक्तिक अवस्था को प्राप्त करने का एक साधन है, स्वयं साध्य नहीं । माना , पर यह हो सके? कैसे सभी कर्मो को छोड़कर जो कर्म किये जाते हैं उनसे यह मनुष्यलोक कर्म में बंधा है, हे कुन्ती सुत तू आसक्ति से मुक्त होकर यज्ञ के लिये कर्म कर। यह रूप है, कि केवल यज्ञ - योग और सामाजिक कर्तव्य ही नहीं, बल्कि सभी कर्म इस भाव से किये जा सकते हैं कोई भी कर्म संकुचित या संवर्धित अहंभाव से किया जा सकता या फिर भगवान् के लिये किया जा सकता है, प्रकृति की सारी सत्ता और सारा कर्म भगवान् के लिये ही है; भगवान् से ही उसका उद्भव होता है , भगवान् से ही उसकी स्थिति है और भगवान् की और ही उसकी गति है।
पर जब तक हम अहिंसा के अधीन है तब तक इस सत्य को नहीं जान सकते, न सत्य के इस भाव के साथ कर्म कर सकते हैं, तब तक हमारा सारा कर्म अहंभाव से, अहंकार की तृष्टि के लिये अर्थात् यज्ञ के विपरीत भाव से, ही हुआ करता है। यह अहंकार के बंधन की गांठ हैं । अहंकार को छोड़कर भगवत् - प्रीत्यर्थ कर्म करने से यह गांठ ढीली पड़ जाती है और अतं में हम मुक्त हो जाते हैं। जो हो, आरंभ में गीता ने यज्ञ के वेदोक्त भाव को ही लिया है और उस समय प्रचलित वैदिक परिपाटी के अनुसार ही यज्ञ के विधान का वर्णन किया है। ऐसा करने का एक विशिष्ट हेतु है। हम लोग देख चुके हैं कि संन्यास और कर्म में जो झगड़ा है उसके दो रूप हैं; एक सांख्य और योग का विधि जिसका सिद्धांतत: समन्वय इससे पहले किया जा चुका है और दूसरा वेदवाद और वेदांतवाद का विरोध जिसका गुरु को अभी समन्वय करना है ।इस विरोधविषयक पहले वर्णन में श्रीकृष्ण ने कर्म को सर्वसाधारण और व्यापक अर्थ में ग्रहण किया है। सांख्य इस सिद्धांत को मानकर चलता है कि अक्षर और अकर्ता पुरूष की स्थिति हो परा स्थिति है और वास्तव में प्रत्येक जीव यही है, तथा पुरूष का नैष्कम्र्य और प्रकृति की कमण्यता दोनों परस्पर विरोधी वत्व हैं । अतएवं सांख्य- सिद्धांत का कर्म की समाप्ति में पर्यवसान होना न्यायसंगत ही है । दूसरी ओर, योगमार्ग का निरूपण आरंभ होता है उन भगवान् की धारणा के साथ जो ईश्वर हैं, प्रकृति के कर्मो के स्वामी हैं, इसलिये उनके परे हैं, अतएव योगमार्ग का मुक्तिसंगत पर्यवसान कर्म की समाप्ति में नहीं , बल्कि आत्मा की श्रेष्ठता और समस्त कर्म करते हुए भी उसकी मुक्तावस्था में होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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