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जिन श्लोंको का अनुवाद ऊपर दिया गया है, उनमें से पीछे के श्लोक, जिनका सारांश - मात्र दिया गया है, ‘दिव्य कर्म ’ का स्वरूप बतलाने वाले हैं, और उसका निरूपण हम पिछले अध्याय में कर चुके हैं; और उनमें से पहले के श्लोक, जिनका संपूर्ण अनुवाद दिया गया है , वे ‘दिव्य जन’ अर्थात् अवतारतत्व का प्रतिपादन करने वाले हैं पर यहां हमें एक बात बड़ी सावधनी के साथ कह देनी है कि अवतार का अपना - जो मानव जाति के अंदर भगवान् का परम रहस्य है - केवल धर्म का संस्थापन करने के लिये ही नहीं होता। क्योंकि धर्मसंस्थापन स्वयं कोई इतना बड़ा और पर्याप्त हेतु नहीं है, कोई ऐसा महान लक्ष्य नहीं है जिसके लिये ईसा या कृष्ण या बुद्ध को उतरकर आना पड़े , धर्मसंस्थापन तो किसी और भी महान् ,परतर और भागत संकल्पसिद्धि की एक सामान्य अवस्था मात्र है। कारण दिव्य जन्म के दो पहलू हैं; एक अवतरण, मानव भांति में भगवान् का जन्मग्रहण , मानव आकृति और प्रकृति में भगवान का प्राकटय, यही सनातन अवतार है; दूसरा है आरोहण, भगवान् के भाव में मनुष्य का जन्मग्रहण , भागवत प्रकृति और भागवत चैतन्य में उसका उत्थान - मदभाव - मागताः यह जीव का नवजन्म, द्वितीय जन्म है। भगवान् का अवतार लेना और धर्म का संस्थापन करना इसी नव - जनम के लिये होता है। अवतारविषयक गीता सिद्धांत के इस द्विविध पहलू की और उन लोगो का ध्यान नहीं जाता जो गीता को सरसरी तौर पर पढ़ जाते हैं और अधिकांश पाठक ऐसे ही होते हैं जो इस ग्रंथ की गंभीर शिक्षा की और न जाकर इसके ऊपरी अर्थ से ही संतुष्ट हो जाते हैं। और वे भाष्यकार भी, जो अपनी सांप्रदायिक चहारदीवारी के अंदर बंद रहते हैं, इसको नहीं देख पाते।  
 
जिन श्लोंको का अनुवाद ऊपर दिया गया है, उनमें से पीछे के श्लोक, जिनका सारांश - मात्र दिया गया है, ‘दिव्य कर्म ’ का स्वरूप बतलाने वाले हैं, और उसका निरूपण हम पिछले अध्याय में कर चुके हैं; और उनमें से पहले के श्लोक, जिनका संपूर्ण अनुवाद दिया गया है , वे ‘दिव्य जन’ अर्थात् अवतारतत्व का प्रतिपादन करने वाले हैं पर यहां हमें एक बात बड़ी सावधनी के साथ कह देनी है कि अवतार का अपना - जो मानव जाति के अंदर भगवान् का परम रहस्य है - केवल धर्म का संस्थापन करने के लिये ही नहीं होता। क्योंकि धर्मसंस्थापन स्वयं कोई इतना बड़ा और पर्याप्त हेतु नहीं है, कोई ऐसा महान लक्ष्य नहीं है जिसके लिये ईसा या कृष्ण या बुद्ध को उतरकर आना पड़े , धर्मसंस्थापन तो किसी और भी महान् ,परतर और भागत संकल्पसिद्धि की एक सामान्य अवस्था मात्र है। कारण दिव्य जन्म के दो पहलू हैं; एक अवतरण, मानव भांति में भगवान् का जन्मग्रहण , मानव आकृति और प्रकृति में भगवान का प्राकटय, यही सनातन अवतार है; दूसरा है आरोहण, भगवान् के भाव में मनुष्य का जन्मग्रहण , भागवत प्रकृति और भागवत चैतन्य में उसका उत्थान - मदभाव - मागताः यह जीव का नवजन्म, द्वितीय जन्म है। भगवान् का अवतार लेना और धर्म का संस्थापन करना इसी नव - जनम के लिये होता है। अवतारविषयक गीता सिद्धांत के इस द्विविध पहलू की और उन लोगो का ध्यान नहीं जाता जो गीता को सरसरी तौर पर पढ़ जाते हैं और अधिकांश पाठक ऐसे ही होते हैं जो इस ग्रंथ की गंभीर शिक्षा की और न जाकर इसके ऊपरी अर्थ से ही संतुष्ट हो जाते हैं। और वे भाष्यकार भी, जो अपनी सांप्रदायिक चहारदीवारी के अंदर बंद रहते हैं, इसको नहीं देख पाते।  
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०७:२५, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
15.अवतार की संभावना और हेतु

इसलिये मनुष्यों को अपने गुण - कर्म के अनुसार चतुर्विध धर्म का पालन करना पड़ता है और सांसारिक कर्म के इस क्षेत्र में वे भगवान् को उनके विविध गुणों में ही ढूंढते हैं। परंतु भगवान् कहते हैं कि यद्यपि मैं चतुर्विध कर्मो का कर्ता और चातुर्वण्य का स्पष्टता हूं तो भी मुझे अकर्ता , अव्यय, अक्षर आत्मा भी जानना चाहिये । “ कर्म मुझे लिप्त नहीं करते, न कर्मफल की मुझे कोई स्पृहा है।” कारण भगवान् नैव्र्यक्तिक हैं और इस अहंभावापन्न व्यक्तित्व के तथा प्रकृति के गुणें के इस द्वंद्व के परे हैं, और अपने पुरूषोत्तम - स्वरूप में भी, जो उनका नैव्र्यक्तिक पुरूषभाव है , वे कर्म के अंदर रहते हुए भी अपनी इस परम स्वतंत्रता पर अधिकार रखते हैं । इसलिये दिव्य कर्मो के कर्ता को चातुर्वण्य का पालन करते हुए भी उसी को जानना और उसकी में रहना होता है जो परे है, जो नैवर्यक्तिक है और फलतः परमेश्वर है। भगवान कहते हैं “ इस प्रकार जो मुझे जानता है, वह अपने कर्मो से नहीं बंधता। यही जानकर मुमुक्ष लोगों ने पुराकाल में कर्म किया; इसलिये तू भी उसी पूर्वतर प्रकार के कर्म कर जेसे पूर्वपुरूषों ने किये थे।”[१]
जिन श्लोंको का अनुवाद ऊपर दिया गया है, उनमें से पीछे के श्लोक, जिनका सारांश - मात्र दिया गया है, ‘दिव्य कर्म ’ का स्वरूप बतलाने वाले हैं, और उसका निरूपण हम पिछले अध्याय में कर चुके हैं; और उनमें से पहले के श्लोक, जिनका संपूर्ण अनुवाद दिया गया है , वे ‘दिव्य जन’ अर्थात् अवतारतत्व का प्रतिपादन करने वाले हैं पर यहां हमें एक बात बड़ी सावधनी के साथ कह देनी है कि अवतार का अपना - जो मानव जाति के अंदर भगवान् का परम रहस्य है - केवल धर्म का संस्थापन करने के लिये ही नहीं होता। क्योंकि धर्मसंस्थापन स्वयं कोई इतना बड़ा और पर्याप्त हेतु नहीं है, कोई ऐसा महान लक्ष्य नहीं है जिसके लिये ईसा या कृष्ण या बुद्ध को उतरकर आना पड़े , धर्मसंस्थापन तो किसी और भी महान् ,परतर और भागत संकल्पसिद्धि की एक सामान्य अवस्था मात्र है। कारण दिव्य जन्म के दो पहलू हैं; एक अवतरण, मानव भांति में भगवान् का जन्मग्रहण , मानव आकृति और प्रकृति में भगवान का प्राकटय, यही सनातन अवतार है; दूसरा है आरोहण, भगवान् के भाव में मनुष्य का जन्मग्रहण , भागवत प्रकृति और भागवत चैतन्य में उसका उत्थान - मदभाव - मागताः यह जीव का नवजन्म, द्वितीय जन्म है। भगवान् का अवतार लेना और धर्म का संस्थापन करना इसी नव - जनम के लिये होता है। अवतारविषयक गीता सिद्धांत के इस द्विविध पहलू की और उन लोगो का ध्यान नहीं जाता जो गीता को सरसरी तौर पर पढ़ जाते हैं और अधिकांश पाठक ऐसे ही होते हैं जो इस ग्रंथ की गंभीर शिक्षा की और न जाकर इसके ऊपरी अर्थ से ही संतुष्ट हो जाते हैं। और वे भाष्यकार भी, जो अपनी सांप्रदायिक चहारदीवारी के अंदर बंद रहते हैं, इसको नहीं देख पाते।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ‘अवतार’ शब्द का अर्थ उतरना; यह भगवान् का उस रेखा के नीचे उतर आना है , जो भगवान् को मानव - जगत् या मानव - अवस्था से पृथक करती है।

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