"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 151": अवतरणों में अंतर
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अवतार में अर्थात् दिव्य - जन्मप्राप्त मनुष्य में वह भागवत सत्य लेप के रहते हुए भी भीतर से जगमगा उठता है; प्रकृति की मुहरछाप वहां केवल रूप के लिये होती है , अवतार की दृष्टि अंतःस्थित ईश्वर की दृष्टि होती है, उनकी जीवन - शक्ति अंतःस्थित ईश्वर की जीवन - शक्ति होती है, और वह धारण की हुयी मानव - प्रकृति की मुहर छाप को भेद कर बाहर निकल पड़ती है ईश्वर का यह चिन्ह ,अंतरस्थ अंतरात्मा का यह चिह्न कोई बाह्म या भौतिक चिह्न न होने पर भी उनके लिये स्पष्ट बोधगम्य होता है जो उसे देखना चाहें या देख सकें; आसुरी प्रकृति अवश्य ही यह सब नहीं देख सकती , क्योंकि यह केवल शरीर को देखती है आत्मा को नहीं, वह बाह्म सत्ता को देखती है अंतःसत्ता को नहीं, वह परदे को देखती है उसके भीतर के पुरूष को नहीं। | अवतार में अर्थात् दिव्य - जन्मप्राप्त मनुष्य में वह भागवत सत्य लेप के रहते हुए भी भीतर से जगमगा उठता है; प्रकृति की मुहरछाप वहां केवल रूप के लिये होती है , अवतार की दृष्टि अंतःस्थित ईश्वर की दृष्टि होती है, उनकी जीवन - शक्ति अंतःस्थित ईश्वर की जीवन - शक्ति होती है, और वह धारण की हुयी मानव - प्रकृति की मुहर छाप को भेद कर बाहर निकल पड़ती है ईश्वर का यह चिन्ह ,अंतरस्थ अंतरात्मा का यह चिह्न कोई बाह्म या भौतिक चिह्न न होने पर भी उनके लिये स्पष्ट बोधगम्य होता है जो उसे देखना चाहें या देख सकें; आसुरी प्रकृति अवश्य ही यह सब नहीं देख सकती , क्योंकि यह केवल शरीर को देखती है आत्मा को नहीं, वह बाह्म सत्ता को देखती है अंतःसत्ता को नहीं, वह परदे को देखती है उसके भीतर के पुरूष को नहीं। | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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०७:२५, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण
हम देखते हैं कि मनुष्य में परमेश्वर का अवतरण अर्थात् परमेश्वर का मानव - रूप और मानव - स्वभाव - धारण एक ऐसा रहस्य है जो गीता की दृष्टि में स्वयं मानव - जन्म के चिरंतन रहस्य का एक दूसरा पहलू है; क्योंकि मानव - जन्म मूलतः , बाह्यतः न सही, ऐसा ही आश्चर्यमय व्यापार है प्रत्येक मनुष्य का सनातन और विराट् आत्मा स्वयं परमेश्वर है; उसका व्यष्टिभूत आत्मा भी परमेश्वर का ही अंश है, जो निश्चय ही परमेवर से कटकर अलग हुआ कोई टुकडा़ नहीं- कारण परमेश्वर के संबंध में कोई ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती कि वे छोटे - छोटे टुकडों में बंटे हुए हों, - बल्कि वह एक ही चैतन्य का आंशिक चैतन्य है, एक ही शक्ति का शकत्यंश है, सत्ता के आनंद के द्वारा जगत् - सत्ता का आंशिक आनंद - उपभोग है, और इसलिये व्यक्त रूप में या यह कहिये कि प्रकृति में यह जीव उसी एक अनंत अपरिच्छिन्न पुरूष का एक सांत परिच्छिन्न भाव हैं, इस परिच्छिन्नता की जो छाप उस पर पड़ी है वह एक ऐसा अज्ञान है जिससे वह न केवल उन परमेश्वर को जिनसे वह आया , बल्कि उन परमेश्वर को भी भूल जाता है जो सदा उसके अंतर में विराजमान हैं, उसकी अपनी प्रकृति के गुह्य हृदेश मैं अवस्थित हैं उसके अपने मानव चैतन्य के देवालय के अन्तर्वेदी में समान प्रज्वलित हैं। मनुष्य उन्हें नहीं जानता, क्योंकि उसकी आत्मा की आंखों पर और उसकी समस्त इन्द्रियों पर उस प्रकृति की, उस माया की छाप लगी हुई है जिसके द्वारा वह परमेश्वर की सनातन सत्ता से बाहर निकालकर अभिव्यक्त किया गया है; प्रकति ने उसे भागवत सत्व की अत्यंत मूल्यवान् धातु से सिक्के के रूप में ढाला है, पर उस पर अपने प्राकृत गुणों के मिश्रण का इतना गहरा लेप चढा़ दिया है, अपनी मुद्रा की और पाशविक मानवता के चिह्न की इतनी गहरी छाप लगा दी है कि यद्यपि भागवत भाग का गुप्त चिह्न वहां मौजूद है लेकिन वह आरंभ में दिखायी नहीं देता , उसका बोध होना सदा ही दुस्तर होता है, उसका पता चलता है तो केवल आत्म - स्वरूप के रहस्य की उस दीक्षा से जो बहिमुंख मानवता से ईश्वरभिमुख मानवता का पार्थक्य स्पष्ट दिखा देती है।
अवतार में अर्थात् दिव्य - जन्मप्राप्त मनुष्य में वह भागवत सत्य लेप के रहते हुए भी भीतर से जगमगा उठता है; प्रकृति की मुहरछाप वहां केवल रूप के लिये होती है , अवतार की दृष्टि अंतःस्थित ईश्वर की दृष्टि होती है, उनकी जीवन - शक्ति अंतःस्थित ईश्वर की जीवन - शक्ति होती है, और वह धारण की हुयी मानव - प्रकृति की मुहर छाप को भेद कर बाहर निकल पड़ती है ईश्वर का यह चिन्ह ,अंतरस्थ अंतरात्मा का यह चिह्न कोई बाह्म या भौतिक चिह्न न होने पर भी उनके लिये स्पष्ट बोधगम्य होता है जो उसे देखना चाहें या देख सकें; आसुरी प्रकृति अवश्य ही यह सब नहीं देख सकती , क्योंकि यह केवल शरीर को देखती है आत्मा को नहीं, वह बाह्म सत्ता को देखती है अंतःसत्ता को नहीं, वह परदे को देखती है उसके भीतर के पुरूष को नहीं।
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